अनुभवी कारोबारी भली भांति जानते हैं कि बॉन्ड स्ट्रीट दलाल स्ट्रीट की तरफ जाता है और दलाल स्ट्रीट मेन स्ट्रीट की तरफ।
यह रिले प्रभाव इसलिए होता है क्योंकि नकदी का प्रभाव बॉन्डों के लाभ और ब्याज दरों पर तुरंत होता है। ब्याज दरों में परिवर्तन का प्रभाव शेयर के मूल्यों पर जल्द नजर आता है और वास्तविक अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव देर से नजर आता है।
पिछले कुछ महीनों का घटनाक्रम आकर्षक रहा है। अगस्त 2008 में थोक मूल्य सूचकांक 12.9 प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया था और फिर इसमें कमी आनी शुरू हो गई। मार्च 2009 में यह घट कर 0.27 प्रतिशत के स्तर पर आ गया।
जनवरी 2009 में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक 10.45 प्रतिशत के स्तर पर था और इसी समय थोक मूल्य सूचकांक 3.92 प्रतिशत के स्तर पर था। इस अवधि में भारतीय रिजर्व बैंक ने विभिन्न दरों में 5 प्रतिशत तक की कमी की। एक साल के सरकारी ट्रेजरी बिल पर मिलने वाला लाभ अगस्त के 9.5 फीसदी से घट कर जनवरी अंत में 4.5 प्रतिशत के स्तर पर आ गया।
विभिन्न दरों में कटौती किए जाने के बावजूद जनवरी में ट्रेजरी बिल 4.5 फीसदी पर स्थिर हो गया और इसी स्तर पर बना हुआ है। मंदी के इन दिनों में डिफॉल्ट बढ़ने की संभावनाओं से बैंक भारतीय रिजर्व बैंक की आसान नीतियों के अनुरूप चलने में अधिक दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। अगस्त में बैंक के पीएलआर (प्रधान उधारी दरें) 14 प्रतिशत या उससे अधिक थे और होम लोन की दरें 12 फीसदी थीं।
बैंकों ने दरों में कटौती शुरू कर दिया। लेकिन, वर्तमान टी-बिल के लाभों (5 फीसदी से कम) और वाणिज्यिक पीएलआर (12 प्रतिशत) तथा होम लोन (9.5 फीसदी) के बीच काफी फर्क है। सरकार लगभग 4.5 फीसदी का वास्तविक ब्याज दे रही है। समेकित राजकोषीय घाटा जीडीपी का 12 से 13 प्रतिशत होने के साथ ही भारत सरकार की उधारियां वाणिज्यिक उधारियों पर दबाव बना रही हैं।
वाणिज्यिक दरें काफी अधिक हैं और खुदरा खर्चे या कॉर्पोरेट निवेश के नजरिये से महंगे हैं। साल 2003-04, जब पिछला मंदी समाप्त हुई थी, के मौद्रिक स्थितियों पर निगाह डालिए। तब महंगाई दर लगभग 5 प्रतिशत, टी-बिल के लाभ 7 प्रतिशत और होम लोन की दरें लगभग 9 फीसदी थी। प्रधान उधारी दर लगभग 10 प्रतिशत पर था।
वास्तव में, सरकार उस समय 2 से 3 फीसदी का भुगतान कर रही थी जबकि वाणिज्यिक और खुदरा उधारकर्ता 4 से 6 फीसदी दे रहे थे। साल 2003-04 के बीच दरों के बीच फर्क था लेकिन ये उतने अधिक भी नहीं थे। साल 2004-05 में यह फर्क घटा और देखते ही देखते फिर से दरों में मजबूती आनी शुरू हो गई।
सामान्य तौर पर बैंकों को अब पीएलआर और मॉर्गेज की दरें कम से कम 4 फीसदी घटाने चाहिए ताकि पिछली मंदी की तरह ही आसान नकदी की परिस्थितियां बनाने में मदद मिल सके। दरों के स्वीकार्य स्तर तक पहुंचने में कितना समय लगेगा? यह बात बैंकिंग उद्योग और दरों में कटौती करने की उनकी इच्छाओं पर निर्भर करती है। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक बाजार में तेजी नहीं आ सकती।
जब तक दरों में नरमी आती तब तक फंडामेंटल भी ज्यादा मजबूत नहीं हो सकेंगे। अभी मूल्यांकन आकर्षक आ सकते हैं लेकिन पर्याप्त नकदी के अभाव में बाजार में स्थाई तेजी नहीं बनी रह सकती। मुद्रा बाजार के असंगत स्प्रेड को देखते हुए वर्तमान बढ़त थोड़े समय के लिए आकर्षक लगता है। जैसा कि अत्यधिक बिकवाली के समय नजर आता है यह वैसी ही अस्थायी तेजी हो सकती है।
खरीद के अवसर की जगह इस बढ़त को बिकवाली के उपयुक्त समय के तौर पर भी देखा जा सकता है। आम चुनाव होने वाले हैं। उन चार सप्ताहों में और जब तक सरकार नहीं बन जाती तब तक राजनीतिक अस्थिरता सभी परिस्थितियों पर हावी रहेंगी। अस्थिरता के भय से बढ़त पर लगाम लगेगा और अगर चुनाव के दौरान कीमतें घटती हैं तो मूल्यांकन और अधिक आकर्षक हो जाएंगे।
अगर आप वैकल्पिक निवेश या हेजिंग की सोच रहे हैं तो एनएसई के करेंसी फ्यूचर अनुबंध में दीर्घकालिक पोजीशन लेना वर्तमान बाजार में खरीदारी करने की अपेक्षा ज्यादा आकर्षक नजर आता है।
रुपया पहले रिकॉर्ड न्यूनतम स्तर को छू चुका है और चुनाव के दौरान इस पर दवाब बना रहेगा। अगर तीसरा मोर्चा महत्वपूर्ण रूप से सामने आता है, जिसकी संभावना है, तो विदेशी संस्थागत निवेशक बड़ी तादाद में भारतीय बाजार से बाहर होंगे। अगर ऐसा होता है तो रुपये पर दांव लगाने से बेहतर लाभ प्राप्त किया जा सकता है।