भारत में शिक्षा की लागत बढ़ रही है। उदाहरण के लिए, भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद ने अपनी फीस में 2016 से 2021 के बीच 43.6 फीसदी का इजाफा किया है। लेकिन, बैंक बढ़ी हुई लागत को पूरा करने के लिए शिक्षा ऋण देने में हिचकिचा रहे हैं।
बिज़नेस स्टैंडर्ड के एक विश्लेषण से पता चलता है कि पिछले एक दशक में ऋण वितरण में शिक्षा ऋण में 2.6 गुना की गिरावट हुई है। शिक्षा ऋण के लिए बकाया ऋण का हिस्सा जून 2012 के 6.3 फीसदी से गिरकर जून 2022 में 2.4 फीसदी हो गया है। 35 लाख करोड़ रुपये के खुदरा ऋण बकाया में 84,375 करोड़ रुपये शिक्षा ऋण है। अगर इसमें गैर बैंकिंग वित्त कंपनियों के ऋण जोड़ दें तो कुल आंकड़ा एक लाख करोड़ रुपये तक हो जाएगा।
इस शेयर में और गिरावट आने की उम्मीद है। शिक्षा ऋण में बकाया ऋण पिछले साल की तुलना में इस साल जून में 8.5 फीसदी बढ़ा, लेकिन व्यक्तिगत ऋण श्रेणी में 18 फीसदी की वृद्धि हुई। इसे अलावा, शिक्षा ऋण में पिछले 5 वर्षों में से 3 वर्षों में गिरावट आई थी, जबकि व्यक्तिगत ऋण में सालाना औसतम 16.5 फीसदी की वृद्धि रही। इसलिए सरकार के पास अब एक बढ़िया कारण है कि वह बैंकों को अधिक शिक्षा ऋण वितरण करने के लिए जोर दे सके। पिछले महीने ऐसी खबरें आई थीं कि सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को मामूली आधार पर कर्ज देने से इनकार नहीं करने को कहा है। उन्हें सरकारी योजनाओं के बारे में जागरूक करने को भी कहा गया है।
बैंकों की अनिच्छा का एक कारण श्रेणी में गैर-निष्पादित आस्तियों (एनपीए) का उच्च हिस्सा रहा है। मार्च में, भारतीय रिजर्व बैंक की वित्त स्थिरता रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार ने बताया कि बड़े व्यक्तिगत ऋण श्रेणी के 1.8 फीसदी जीएनपीए की तुलना में शिक्षा ऋणों का अनुपात 6.7 फीसदी था। सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों के लिए यह अनुपात निजी बैंकों के 5.8 फीसदी तुलना में 6.8 फीसदी था। एनबीएफसी के लिए आंकड़े मौजूद नहीं थे, लेकिन क्रिसिल रेटिंग्स की उप मुख्य रेटिंग्स अधिकारी कृष्णन सीतारमण ने कहा, विदेशी शिक्षा क्षेत्र में एनबीएफसी सक्रिय रहता है और इसके एनपीए कम रह सकते हैं।
