बीएस बातचीत
रिजर्व बैंक के आंतरिक कार्य समूह (आईडब्ल्यूजी) ने बैंकों में प्रवर्तकों की हिस्सेदारी कम करने के लिए चरणबद्ध तरीके की अनुशंसा की है। समूह के सदस्य सचिन चतुर्वेदी ने एक साक्षात्कार में शुभमय भट्टाचार्य से इन दिशानिर्देशों के बारे में बातचीत की। प्रस्तुत हैं संक्षिप्त अंश:
समिति ने निजी बैंकों के स्वामित्व ढांचे में बदलाव की अनुशंसा क्यों की?
यह रिपोर्ट ऐसे समय पर आई है जब निजी क्षेत्र के बैंकों में एक के बाद एक डिफॉल्ट के कारण नियामकीय व्यवस्था पर भरोसा डगमगाया हुआ है तो दूसरी ओर 5 लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था की ओर कदम बढ़ाने के लिए बाजार को अधिक पहुंच और विस्तार की आवश्यकता भी है। सन 2016 से देश में विशिष्ट बैंकों मसलन स्थानीय बैंक, छोटे फाइनैंस बैंक और भुगतान बैंकों में वृद्धि देखने को मिल रही है। राष्ट्रीयकरण से पहले देश में निजी बैंकों का दबदबा था। इन्हें 1993, 2001, 2013 और 2016 में चार चरणों में पुन: खोला गया और हर बार नियामकीय प्राथमिकताएं अलग थीं। ऐसे में एक समान संस्थानों का नियमन अलग-अलग ढांचों के अधीन हो रहा था। इससे नियामकीय मनमानी की गुंजाइश बनी। रिपोर्ट में यह सुझाने का प्रयास किया गया है कि कैसे बैंकों के कारोबार को संगठित स्वरूप प्रदान किया जा सकता है। इसमें कहा गया है कि जब भी नए लाइसेंस के दिशानिर्देश जारी हों, यदि नए नियम अधिक शिथिल हैं तो उनका लाभ पुराने बैंकों को भी तत्काल मिलना चाहिए। यदि नए नियम कठिन हैं तो पुराने बैंकों को भी इनका पालन करना पड़े। परंतु बदलाव की प्रक्रिया प्रभावित बैंकों से चर्चा करके तय होनी चाहिए ताकि यह सहजता से हो सके।
प्रवर्तकों की हिस्सेदारी कम करने के मामले में जो भेदपूर्ण व्यवहार है उसे कैसे उचित ठहराएंगे?
सबके लिए एक तरीका मददगार नहीं होगा। इसलिए हमने चरणबद्ध रुख की वकालत की। 15 वर्ष की लंबी अवधि में प्रवर्तकों की हिस्सेदारी पर सीमा को मौजूदा 15 फीसदी से बढ़ाकर 26 फीसदी किया जा सकता है। या फिर पांच वर्ष की लॉक इन अवधि के बाद प्रवर्तक चाहे तो अपनी हिस्सेदारी 26 फीसदी से कम भी कर सकता है। ऐसे बदलावों के सुझाव हैं ताकि अधिक से अधिक एनबीएफसी बैंकिंग क्षेत्र में आएं। ज्यादा अंशधारक होने से जवाबदेही बढ़ेगी और हम ऐसा ही चाहते हैं।
बड़ी फर्म या औद्योगिक घरानों को बैंकिंग कारोबार में आने देने के संबंधी अनुशंसाओं पर विवाद हो सकता है?
हमने कहा है कि ऐसे संस्थान बैंक प्रवर्तक तभी बन सकते हैं जब बैंकिंग नियमन अधिनियम 1949 में जरूरी संशोधन हो जाए। हमने बैंकों तथा अन्य वित्तीय और गैर वित्तीय समूहों के बीच संबद्ध ऋण और जोखिम के मुद्दों पर भी बचाव के उचित उपाय लागू किए हैं। बड़े समूहों के लिए निगरानी प्रणाली भी मजबूत की गई है।