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Kashmir Politics: करवट ले रहा कश्मीर का राजनीतिक इतिहास

राजनीति के प्रति क्या आ रही जागरूकता, कई धार्मिक विद्वान मुख्यधारा की राजनीति में

Last Updated- September 16, 2024 | 10:59 PM IST
Kashmir Politics

लंबा इस्लामी लबादा और काराकुल टोपी पहने धार्मिक विद्वान गलियों में घूम-घूम कर लोगों से बातचीत कर रहे हैं। यह कश्मीरी विद्वान अपने मदरसे में बच्चों को पढ़ाते हैं और इसी मोहल्ले में रहते हैं। वह आसपास के लोगों के साथ कोई नियमित रूप से मस्जिद आने या मदरसे के मामले में वार्तालाप नहीं कर रहे हैं, वह चुनाव के बारे में चर्चा कर रहे हैं। यह इलाका दशकों से चुनावी गतिविधियों और माहौल से अलग ही रहा है।

इन विद्वान का नाम है गुल मोहम्मद भट, जो लोगों के बीच गुल अजहरी के नाम से मशहूर हैं। वह दक्षिणी कश्मीर में नई बनी अनंतनाग पश्चिम विधान सभा सीट से जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के उम्मीदवार हैं। इस सीट पर पहले चरण में 18 सितंबर को मतदान होगा।

दुनिया में इस्लामी शिक्षा के लिए मशहूर मिस्र की अल-अजहर यूनिवर्सिटी से इस्लामिक फिलॉसफी में स्नात्कोत्तर और डॉक्टरेट की डिग्री हासिल करने वाले गुल यहां सुन्नी मदरसा चलाते हैं, जिसमें लगभग 80 छात्र धार्मिक शिक्षा हासिल कर रहे हैं।

गुल मोहम्मद अजहरी ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया, ‘कश्मीर की राजनीति में हिस्सेदारी निभाना इस्लामिक विद्वानों के लिए यह सबसे उपयुक्त समय है, ताकि लोगों में भरोसे की दीवार को मजबूत किया जा सके।’ परिसीमन से अस्तित्व में आई नई विधान सभा सीटें गुल मोहम्मद जैसे नए-नए राजनीति में उतरे लोगों के लिए वरदान से कम नहीं हैं। ये आसानी से वोटों को एकजुट कर सकते हैं, क्योंकि जहां वह रहते हैं और मदरसा चलाते हैं, वहां लोगों से बहुत अच्छे तरीके से संपर्क में रहते हैं।

परिसीमन से पहले अनंतनाग पश्चिम में आने वाले मुस्लिम बहुल इलाके अनंतनाग और देवसर विधान सभा सीटों में विभाजित थे। कश्मीर में मस्जिदों की तकरीरें दशकों से राजनीतिक मुद्दों से दूरी बनाकर रखती रही हैं, लेकिन मौजूदा विधान सभा चुनाव में परिदृश्य बदलता दिख रहा है, क्योंकि गुल और उनके दो विद्वान समर्थक अपनी धार्मिक तकरीरों में लोगों से राजनीति और चुनावों में भागीदारी के लिए खुलकर तर्क-वितर्क करते देखे जा सकते हैं।

उग्रवादी फंडिंग मामले में जेल में बंद सरजन बरकाती वर्ष 2016 में कश्मीर में कथित रूप से बड़े पैमाने पर उथल-पुथल मचाने वालों में प्रमुख किरदार के रूप में उभरा था। हालांकि एक धार्मिक उपदेशक के रूप में उसका प्रभाव केवल उसके क्षेत्र की पुरानी सुन्नी संस्था इदारा तहकीकात इस्लामी तक ही सीमित था।

पिछले साल से उसकी पत्नी भी क्राउड फंडिंग के आरोपों में जेल में बंद है। इस तरह अस्तित्व को बचाए रखने के लिए बरकाती चुनावी राजनीति में कूद पड़ा है। वह निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में दो सीटों गांदरबल और बीरवाह से चुनाव लड़ रहा है। सांसद इंजीनियर रशीद के चुनाव जिताने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले उनके बेटे से प्रेरणा लेते हुए बरकाती की 17 वर्षीय बेटी और 12 वर्षीय बेटा भी नामांकन से लेकर प्रचार अभियान में आगे-आगे हैं और लोगों से अपने माता-पिता की रिहाई का दुहाई देते हुए वोट मांग रहे हैं।

सामाजिक-धार्मिक संगठन जमात-ए-इस्लामी ने भी लगभग 37 साल बाद मुख्यधारा की राजनीति में कदम रख दिया है। यह संगठन 1970 से राजनीतिक दल के रूप में चुनावों में भाग लेता रहा है, लेकिन 1987 से इसने चुनावों से दूरी बना ली थी। राज्य विरोधी गतिविधि के आरोपों का सामना करने वाले इस संगठन को वर्ष 2019 में प्रतिबंधित कर दिया गया था। चुनावों में सक्रिय भागीदारी से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि यह संगठन भी नई दिल्ली के प्रति अपनी वफादारी साबित करने की दिशा में बढ़ चला है।

मध्य और उत्तरी कश्मीर में बड़ी संख्या में रहने वाले शिया मुस्लिम 1990 के मध्य से चुनावों में अपने धार्मिक नेता को समर्थन देते आ रहे हैं। जमात-ए-इस्लामी के उलट शिया समुदाय के नेता कांग्रेस, नैशनल कॉन्फ्रेंस या पीडीपी जैसे मुख्यधारा के दलों के साथ जुड़े रहे हैं। मौजूदा चुनाव में इस समुदाय से मौलवी इमरान रजा अंसारी और आगा सैयद अहमद मूसवी जैसे कुछ उम्मीदवार मैदान में हैं। रजा बडगाम और मूसवी पट्टन सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं। दोनों ही सीटे शिया बहुल हैं।

कश्मीर की राजनीति यूं तो धर्म से अछूती बनी रही है। बड़े पैमाने पर खासकर सुन्नी धार्मिक नेता इससे दूरी बनाकर ही रहते हैं, लेकिन इस बार हवा का रुख बदला-बदला नजर आ रहा है। वर्ष 2019 से हिंसक वारदातों में कमी आने से सुन्नी धार्मिक नेताओं ने समाज में अपनी जगह कायम करने के लिए मुख्यधारा की राजनीति के बारे में सोचना शुरू कर दिया।

सुन्नी संगठन करवानी इस्लामी के मुखिया गुलाम रसूल हामी ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया, ‘धार्मिक विद्वानों में कोई रानीतिक नेतृत्व नहीं उभर पाया है। शराब बंदी और शेख-उल-अलम यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिए मेरे प्रयासों पर राजनेताओं ने कभी ध्यान ही नहीं दिया। आखिर कब तक अपने राजनीतिक मुद्दों और धार्मिक मसलों के लिए हम दूसरों पर निर्भर रहें।’

हामी विधान सभा चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन वह कहते हैं कि जिस जल्दबाजी में चुनाव का ऐलान किया गया उससे उन्हें अपना इरादा बदलना पड़ा। केंद्र शासित प्रदेश में तीन चरणों 18 और 25 सितंबर तथा 1 अक्टूबर को चुनाव होगा।
भरोसेमंद सूत्रों ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि करवानी इस्लामी के गुलाम रसूल हामी और तहरीक साउत उल औलिया के अब्दुल रशीद दाऊदी समेत तमाम धार्मिक विद्वानों की 13 अगस्त को श्रीनगर में बैठक हुई थी। ये विद्वान चुनाव में सक्रिय भागीदारी के लिए सुन्नी वर्ल्ड फोरम के बैनर तले अपनी अलग राजनीतिक पार्टी बनाने पर विचार कर रहे थे, लेकिन सूत्रों ने बताया कि इस पर आम सहमति नहीं बन सकी।

हामी ने कहा, ‘हम विधान सभा चुनाव लड़ने के बारे में रणनीति बनाने के लिए मिले थे, लेकिन काफी विचार-विमर्श के बाद अलग पार्टी के साथ चुनावों में उतरने का विचार टाल दिया गया। राजनीति से जुड़े लोगों के विचार बदलने के लिए हमें समय चाहिए। हमें राजनेताओं को यह बताना होगा कि राजनीति में धार्मिक विद्वान क्या भूमिका निभा सकते हैं और यह काम जल्दबाजी में नहीं हो सकता। इसके लिए समय चाहिए।’

उन्होंने कहा कि भविष्य में एक राजनीतिक मोर्चा जरूर अस्तित्व में आएगा, जो विभिन्न समुदायों की भागीदारी सुनिश्चि करेगा। श्रीनगर में 28 अक्टूबर 2023 को सूफी इस्लामिक बोर्ड के साथ मिलकर इंडियन माइनरिटी फाउंडेशन ने सद्भावना सह सूफी कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया था। इस कॉन्फ्रेंस की अध्यक्षता जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने की थी। इसमें मोहम्मद तैय्यब कामिली, गुलाम रसूल हामी, अब्दुल रशीद दाऊदी जैसे तमाम इस्लामिक विद्वानों ने शिरकत की थी।

खैर, कश्मीर की हवा में राजनीतिक खुशबू घुलने लगी है। गुल का जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि कश्मीर का राजनीतिक इतिहास करवट ले रहा है।

First Published - September 16, 2024 | 10:59 PM IST

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