यूपीए सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) इस महीने भंग होने को है। इसका गठन राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम को लागू करने के लिए किया गया था। एनएसी के सदस्य और योजना आयोग के पूर्व सचिव एन सी सक्सेना ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा कि एनएसी का कार्यकाल 31 मार्च से आगे बढ़ने की संभावना नहीं है।
एनएसी ने अपनी अंतिम रिपोर्ट 28 फरवरी को राजीव गांधी राष्ट्रीय पेय जल योजना के कार्यान्वयन के बारे में भेजा था। एनएसी का संविधान कहता है कि इसका काम सरकार के राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम को लागू कराना है।
इसका सबसे महत्वपूर्ण काम, साझा कार्यक्रमों के तहत सरकार को नीति निर्धारण और विधायी कार्यवाही करने के लिए सहयोग प्रदान करना है।
शुरू में एनएसी की अध्यक्षता कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने की थी। बाद में उन्होंने चुनाव आयोग में लाभ के पद का मुद्दा गरमाने के बाद पद त्याग दिया था। सोनिया गांधी के पद छोड़ते ही सलाहकार परिषद की सिफारिशें हल्की पड़ने लगीं। साथ ही सदस्यों के त्यागपत्र देने का सिलसिला शुरू हो गया। सबसे पहले अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता जीन ड्रेजे ने त्यागपत्र दिया, बाद में मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित अरुणा रॉय का भी परिषद से मोहभंग हो गया।
वर्तमान में इस परिषद में सीएच हनुमंत राव, डी स्वामीनाथन, माधव चव्हाण, मृणाल मिरि, एके शिवकुमार, सेहबा हुसैन और एनसी सक्सेना शामिल हैं। जीन ड्रेजे, जो इस परिषद में करीब एक साल रहे, कहते हैं- जैसे ही सोनिया गांधी ने इसे छोड़ा, इसका महत्व कम होने लगा। आश्चर्य की बात यह है कि गांधी के पद छोड़ते ही न केवल परिषद का महत्व कम हो गया बल्कि कई अवसरों पर राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम की भी उपेक्षा की गई। क्या उसके बाद कभी इसकी कोई चर्चा हुई?
अरुणा रॉय कहती हैं, ‘एनएसी का गठन राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम को सूक्ष्मता से लागू कराने के उद्देश्य से किया गया था। पहले दो साल तक इसके उद्देश्यों की पूर्ति भी की गई। सूचना का अधिकार, राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कार्यक्रम, वन कानून और घरेलू हिंसा कानून जैसे नियम लागू किए गए। यह एनएसी के बगैर संभव नहीं था।
नेतृत्व खत्म होते ही इसकी धार कुंद हो गई।’
एनसी सक्सेना का कहते हैं कि इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि सोनिया गांधी के पद छोड़ते ही इसका प्रभाव खत्म हो गया। यह बेहतर होता अगर सोनिया गांधी के पद छोड़ने के बाद कोई और यह पद संभाल लेता। उनके पद छोड़ने के बाद कोई दूसरा चेयरमैन आया ही नहीं।
हालांकि इसकी बैठकें होती रहती हैं और इसमें उपस्थिति भी अच्छी रहती है। साथ ही इसमें इस बात की भी चर्चा होती है कि सरकार न्यूनतम साझा कार्यक्रम को लागू करने में असफल रही। सक्सेना ने कहा कि बजट से बड़ी उम्मीदें थीं लेकिन वह उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा।
मेघा पाटेकर ने खुद तैयार किए गए और अन्यर् कई एनजीओ के पुनर्वास प्रस्तावों को एनएसी के सामने रखा था। गांधी से इस पर अनुमति भी मिल गई थी, लेकिन अब तक उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
बहरहाल प्रथम नाम के एनजीओ के संस्थापक और एनएसी के सदस्य माधव चव्हाण का कहना है कि अब यह मुद्दा नहीं है कि परिषद बनी रहेगी या भंग हो जाएगी। जिस उद्देश्य को पूरा करने के लिए इसका गठन किया गया था, परिषद ने उन कार्यों को बखूबी अंजाम दिया है।
एनएसी का प्रमुख कार्य, सरकार की नीतियों के लिए प्राथमिकताएं तय करना था। अब इस समय सरकार कोई नीतिगत फैसला लेने में उतनी सक्षम नहीं है, इसलिए इस परिषद का अब कोई मतलब भी नहीं बनता।
अप्रैल 2006 से फरवरी 2008 के बीच परिषद की 28 बार बैठकें हुई हैं। यह सूचना परिषद की वेबसाइट पर उपलब्ध है। 2006 में 11 बैठकें, 2007 में 15 बैठकें और 2008 में 2 बैठकें हुई हैं। वहीं दूसरी ओर 28 फरवरी के बाद से एनएसी के सामने 65 काँसेप्ट पेपर प्रस्तुत किए गए।