अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल में चिंगारी पड़ने के काफी अरसे बाद सरकार ने जब तपन महसूस की तब तक इसकी आग भड़कते-भड़कते दावानल बन चुकी थी।
इस दावानल से बचने के लिए 4 जून को सरकार ने जो पेट्रोल-डीजल और गैस की कीमतें बढ़ाने का ‘थोड़ा सा पानी’ डाला, उससे वह आग तो बुझी नहीं , बल्कि वही पानी 17 हफ्तों से सुलगती महंगाई की आग के लिए टनों घी में बदल गया।
इस घी का आलम यह है कि पिछले 17 हफ्तों में महंगाई की आग ने जितना जोर पकड़ा था, लगभग उतना पेट्रोल-डीजल और गैस कीमतों की बढ़ोतरी का असर बताने वाले पहले सप्ताह के आंकड़ों में ही पकड़ लिया। पिछले सप्ताह जारी 31 मई को समाप्त सप्ताह के आंकड़ों के मुताबिक यह 8.75 फीसदी थी तो इस हफ्ते जारी 7 जून को समाप्त सप्ताह के आंकड़ों में यह 2.3 फीसदी का जबरदस्त उछाल मारकर 11.05 फीसदी पर पहुंच गई।
दुखद बात यह है कि इस उछाल के साथ 13 साल पहले के जिस पड़ाव पर यह पहुंची है, उस वक्त भी मनमोहन, चिदंबरम और मोंटेक की तिकड़ी ही तत्कालीन नरसिंहराव सरकार के आर्थिक सेनापति थी। अब इसे दुखद इत्तेफाक कहें या फिर इसी तिकड़ी की विफलता, मगर सरकार के लिए सचमुच माया मिली न राम वाले हालात बन चुके हैं।
वह ऐसे कि जिस जनता का दिल जीतने के लिए उसने पेट्रोल-डीजल-गैस की कीमतों को बढ़ाने में लंबे अरसे तक परहेज किया, वही जनता अब कच्चे तेल के दावानल के साथ-साथ बेकाबू होती महंगाई की आग से बचाने के लिए कातर निगाहों से सरकार की ओर देख रही है। जाहिर है, अर्थशास्त्र में शून्य नंबर पाने वाली किसी भी सरकार के लिए उस चुनावी इम्तिहान को पास करना लगभग नामुमकिन ही हो जाता है, जिसके नंबर जनता के ही हाथों में हैं।
यानी कच्चा तेल और बढ़ती महंगाई हर तबके के साथ-साथ खुद सरकार के लिए गले की फांस बन चुके हैं। अब मुश्किल यह है कि इस पर काबू पाने के लिए सरकार जो सख्त कदम उठाएगी, वह न सिर्फ देश को मंदी की ओर ले जाएंगे बल्कि चुनावी साल में भी उसके लिए ताबूत की आखिरी कील सरीखे बन सकते हैं। और अगर कोई सख्त कदम नहीं उठाया तो आगे भी उसकी मंजिल क्या है, यह शायद किसी से अब छिपा नहीं रह गया है।
संभावित कदम
पूरी संभावना है कि सरकार मांग और आपूर्ति में संतुलन के लिए कुछ सख्त कदम उठाएगी। बाजार में धन का प्रवाह रोकने के लिए रेपो रेट और सीआरआर में और वृद्धि संभव। बढ़ोतरी 29 जुलाई में होने वाली नीतिगत घोषणा से पहले भी हो सकती है।
क्या होती है मंदी
किसी भी देश के वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में गिरावट को मंदी कहा जाता है।
अगर किसी साल के तीन या चार तिमाही में वास्तविक विकास की दर लगातार नकारात्मक रहे
कुछेक महीने में हो रही महत्वपूर्ण गिरावट जो कि वास्तविक जीडीपी, वास्तविक आय, रोजगार, औद्योगिक उत्पादन और थोक-खुदरा बिक्री को प्रभावित करे, तो इसे भी मंदी कहा जाता है।
क्या होगा असर?
अगर आरबीआई नकद आरक्षित अनुपात और रेपो रेट में और वृद्धि करता है, तो बैंक ब्याज दर बढ़ाने पर मजबूर होंगे। जाहिर है, इस बढ़ोतरी से कार, मकान जैसी वस्तुओं पर कर्ज दरें और बढ़ सकती हैं। इससे संभव है कि मांग घटेगी, लेकिन इसकी वजह से अर्थिक रफ्तार सुस्त होने की आशंका है। वैसे भी, रियल एस्टेट से लेकर वाहन उद्योग तक संकट का सामना करना पड़ रहा है। यानी महंगाई रोकने की कवायद से आर्थिक मंदी ही अगली मंजिल होगी, इस बात की पूरी संभावना है।
हम जानते थे:चिदंबरम
यह आशंका उसी समय से थी, जब सरकार ने इस महीने ईंधन की कीमतें बढ़ाने का फैसला किया। जब कीमतों में बढ़ोतरी की गई थी, हमने कैबिनेट को आगाह कर दिया था कि मुद्रास्फीति की दर दोहरे अंकों में जा सकती है और ऐसा ही हुआ। इसकी कीमतों ने महंगाई की आग भड़काने में घी का काम किया है। बेशक यह कठिन घड़ी है और सरकार को भी परेशानियों का पता है। हमें मांग और मौद्रिक पक्ष को लेकर कड़े उपाय करने होंगे।
संपादकीय टीम: अश्विनी कुमार श्रीवास्तव, ऋषभ कृष्ण सक्सेना, नीलकमल सुंदरम, कुमार नरोत्तम