अशोक कुमार को हिंदी सिनेमा का पहला सुपरस्टार कहा जाता है। यह तमगा उन्हें साल 1943 में आई किस्मत फिल्म से मिला, जिसने कथित तौर पर 1.1 करोड़ रुपये की कमाई की थी और हिंदी की पहली ब्लॉकबस्टर फिल्म बनी थी। फिल्मी दुनिया में आने से पहले अशोक कुमार बॉम्बे टॉकीज में लैब तकनीशियन थे और वह अभिनेता होने के बावजूद मासिक वेतन पर काम कर रहे थे।
फिल्म निर्माता एवं निर्देशक करण जौहर ने 5 जुलाई को फेय डिसूजा के यूट्यूब चैनल पर कहा कि हिंदी सिनेमा में अभी 10 बड़े अभिनेता हैं और वे जो मांग रहे हैं उन्हें मिल रहा है। जौहर ने कहा, ‘आज के अभिनेता चांद-तारे-आसमान कुछ भी मांग रहे हैं और उन्हें वह मिल भी रहा है। ये फिल्मी सितारे 35 करोड़ रुपये तक मांगते हैं और फिल्मों की ओपनिंग 3.5 करोड़ रुपये की होती है। ये कैसा गणित है?’
जौहर का यह बयान इसलिए भी चर्चा में रहा क्योंकि उनका धर्मा प्रोडक्शन सबसे बड़े प्रोडक्शन हाउस में से एक है और यह बयान ऐसे समय में आया है जब कई बड़े सितारों की फिल्में बड़ा कारोबार नहीं कर पाई। बड़े खर्च पर बनाई गई उन फिल्मों में सबसे बड़ा खर्च फिल्मी सितारे की फीस थी।
हिंदी फिल्म उद्योग के सूत्रों ने कहा कि जौहर इतने बड़े हैं इसलिए ऐसी बातें इतनी बेबाकी से कह देते हैं। कई फिल्म निर्माता भी इससे इत्तफाक रखते हैं मगर बोलने से झिझकते हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सितारों पर निर्भरता हिंदी फिल्मों के कारोबारी मॉडल को अस्थिर कर रही है?
फिल्म और अन्य रचनात्मक कलाओं के लिए मुंबई के प्रसिद्ध स्कूल व्हिसलिंग वुड्स इंटरनैशनल के उपाध्यक्ष चैतन्य चिंचलिकर का कहना है, ‘कारोबारी मॉडल में कुछ भी गलत नहीं है। समस्या यह है कि लोग प्रतिभा को कितना महत्त्व देते हैं। अगर किसी अभिनेता या निर्देशक को फिल्म में उनके द्वारा जोड़े गए मूल्य से अधिक रकम मिलती है तो मॉडल टूटता है।’
उन्होंने कहा, ‘जो सितारे कम से कम 100 करोड़ रुपये की ओपनिंग की गारंटी नहीं दे सकते हैं, उन्हें 35 करोड़ रुपये नहीं मिलने चाहिए। मेरा सवाल है कि उन्हें 35 करोड़ रुपये किस बात के मिलने चाहिए?’
यह सवाल तब उठ रहा है जब बगैर किसी बड़े सितारों की फिल्में ज्यादा कमाई कर रही हैं, खासकर विधु विनोद चोपड़ा के निर्देशन में बनी फिल्म 12वीं फेल।
जैसे-जैसे आधुनिक युग में फिल्मों के बजट बढ़े हैं, उनकी कीमत में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। एक अभिनेता ने एक फिल्म से ही 130 करोड़ रुपये कमाए। यह साल 2021 में उनकी आखिरी हिट फिल्म थी। तब से उनकी कई फिल्में फ्लॉप रहीं मगर उन्हें अभी भी भारी भरकम रकम फीस के तौर पर दी जा रही है।
इसके विपरीत एक अभिनेता ऐसे भी हैं जो कभी फीस नहीं लेते हैं। फिल्म की पूरी लागत (वेतन, मार्केटिंग एवं प्रमोशन आदि खर्च) निकलने के बाद मुनाफे का हिस्सा लेते हैं। वह मुनाफे का तीन-चौथाई जैसा बड़ा हिस्सा लेते हैं मगर वह जोखिम भी उठाते हैं। अगर फिल्म घाटे में रह जाती है तो उन्हें कुछ नहीं मिलता है। एक अन्य बड़े अभिनेता अब अपनी सभी फिल्में खुद बनाते हैं।
अभी सिर्फ 3 या 4 ही अभिनेता जोखिम लेते हैं। अधिकतर अभिनेता तुरंत रकम चाहते हैं। 90 के दशक में जो रकम लाखों में होती थी वह अब इससे कई गुना अधिक हो गई है।
दो साल पहले तक इतनी फीस चल जाती थी। साल 2020 की शुरुआत में जब वैश्विक महामारी कोविड-19 ने दुनिया भर में निराशा का भाव ला दिया था तब नेटफ्लिक्स और एमेजॉन प्राइम वीडियो जैसे स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म ने कंटेंट पर पूरा खर्च किया। उन्होंने बड़ी रकम देकर कई फिल्मों के अधिकार हासिल किए और कम से कम उतनी ही रकम में नए मूल कंटेंट तैयार किए।
चूंकि उस दौरान लोग अपने घरों में ही थे इसलिए लोगों ने उसे पसंद किया और स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म उसको भुनाना भी चाहते थे। अब दर्शकों की भूख कम हो गई है और लोग पसंदीदा कंटेंट ही देखना पसंद कर रहे हैं। आज फ्लॉप होने वाली कुछ फिल्में अगर वैश्विक महामारी के दौरान आतीं तो शायद अच्छा प्रदर्शन करतीं। मगर अब स्थिति वैसी नहीं रही।
स्वाभाविक रूप से स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म ने भी अपने खर्च पर नकेल कसना शुरू किया है। उद्योग के सूत्रों का कहना है कि अब वे किसी फिल्म के लिए 35 से 40 करोड़ रुपये से अधिक खर्च करना नहीं चाहते हैं , जबकि ऐसी फिल्मों के लिए वैश्विक महामारी के दौरान वे 70 करोड़ रुपये तक खर्च करते थे।
अब तक किताबों को सिनेमा और वेब सीरीज में तब्दील करने के लिए 110 सौदे करने वाले लैबरिंथ लिटररी एजेंसी के संस्थापक अनीश चांडी कहते हैं, ‘वैश्विक महामारी खत्म होने के बाद सितारों की उतनी धमक नहीं रही। अब हर कोई यह जान गया है कि जितनी रकम की वे मांग करते हैं, वह सही नहीं है। पैसा कमाने के लिए स्थिति भी अच्छी होनी चाहिए। कारोबार ऐसे नहीं चलता है।’
आईपीएस अधिकारी पर बनी 12वीं फेल बगैर किसी बड़े सितारे के बड़ी हिट साबित हुई। इस मॉडल को कैसे नकारा जा सकता है? इस साल अप्रैल तक विधु विनोद चोपड़ा फिल्म्स में कारोबार प्रमुख रहे दिप्तकीर्ति चौधरी का कहना है, ‘यह कारगर हो सकता है मगर बहुत मुश्किल है।’ वह कहते हैं, ‘समाधान आमदनी में नहीं बल्कि लागत में है। विधु विनोद चोपड़ा एक रचनात्मक निर्देशक है मगर वह एक कुशल निर्माता भी हैं।’
चौधरी के मुताबिक, ‘निर्माता के तौर पर चोपड़ा अपना पैसा वहीं लगाते हैं जहां उन्हें लगता है कि इससे फिल्म में कुछ अलग होगा। वह इस मामले में भी कंजूसी करते हैं कि कहां शूटिंग करनी है और कितना खर्च करना है। यहां तक कि उनकी बड़ी बजट की फिल्मों में भी अन्य बड़े सितारों की फिल्मों के विपरीत कम बजट ही रहता है।’
चोपड़ा को इस पर पूरा भरोसा था कि 12वीं फेल बड़े पर्दे पर छा जाएगी। दस्तूर के खिलाफ जाकर उन्होंने किसी स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म के साथ करार किए बिना ही इसे बड़े पर्दे पर रिलीज किया।
अब बेंगलूरु के कासाग्रैंड बिल्डर के मुख्य मार्केटिंग अधिकारी बन चुके चौधरी कहते हैं, ‘यह चोपड़ा का अपनी फिल्म पर भरोसा था। उन्हें यह विश्वास था कि उनकी फिल्म किसी बड़े अभिनेता के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन करेगी।’ मगर चांडी का कहना है कि 12वीं फेल जैसी और फिल्में आएंगी। मुंज्या पहले से ही इस साल की हिट फिल्मों में से एक है।