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साहसिक कदमों से भरा चेयरमैन टाटा का सफर

माना जा रहा था कि रतन टाटा समूह के चेयरमैन तक नहीं पहुंच पाएंगे लेकिन उन्होंने अप्रत्याशित और अमिट अध्याय की पटकथा लिखी

Last Updated- October 10, 2024 | 10:34 PM IST
FILE PHOTO: Tata Group Chairman Emeritus Ratan Tata attends a panel discussion during the annual general meeting of Indian Merchants' Chamber in Mumbai

तकदीर ने टाटा समूह को ऐसी स्थिति में रखा था जहां कुछ ही लोगों को यह उम्मीद थी कि वह कामयाब हो सकेंगे। बहरहाल वह कामयाब ही नहीं हुए बल्कि उन्होंने भारी-भरकम टाटा समूह को भारत केंद्रित समूह से दुनिया के सबसे अहम नामों में से एक बनाने में निर्णायक भूमिका भी निभाई।

उन्होंने समूह को पुराने जमाने के कारोबार से एक आधुनिक समूह बनाया जिसका सॉफ्टवेयर कारोबार उसकी सबसे अहम पहचान बना। एयर इंडिया जो कभी टाटा समूह से अलग हुआ था वह दोबारा टाटा समूह के पाले में आया। समान महत्त्व की एक बात यह भी है कि टाटा ने समूह के चरित्र में बदलाव किया और उसे एक संघीय ढांचे से बदलकर एक समेकित परिचालन वाला बनाया जिसका नेतृत्व समूह की होल्डिंग कंपनी टाटा संस के पास है जो टाटा ट्रस्ट के नियंत्रण में रहती है।

आश्चर्य नहीं कि टाटा समूह के नेतृत्वकर्ता के रूप में उनकी यात्रा 1991 में आरंभ हुई। यही वह वर्ष था जब भारत ने आर्थिक सुधारों और उदारीकरण को अपनाया था। एक आर्थिक शक्ति के रूप में भारत का उदय हुआ और दुनिया भर में भारत की प्रबंधन और तकनीकी क्षेत्र की प्रतिभाओं का विस्तार हुआ। इस पूरे किस्से में असंख्य बिंदुओं को मिलाने वाले सूत्र के रूप में टाटा की निजी यात्रा को भी देखा जा सकता है।

गीता पीरामल ने 1990 के दशक में पहली बार प्रकाशित पुस्तक ‘बिज़नेस महाराजाज’ में लिखा, ‘टाटा होना कठिन है। यह उपनाम नाकाम होने की इजाजत नहीं देता।’ फिर भी जब टाटा ने पद संभाला तो बुद्धिमानों का यही मानना था कि उन्हें नाकामी हाथ लगेगी।

वह 1962 में समूह से जुड़े थे। उनके पास कॉर्नेल विश्वविद्यालय से वास्तुकला में स्नातक की पढ़ाई की थी। वर्ष1971 में नैशनल रेडियो ऐंड इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी में अपेक्षाकृत कम गौरवशाली कार्यकाल के पहले उन्होंने विभिन्न भूमिकाओं में काम किया। उन्हें 10 वर्ष बाद टाटा इंडस्ट्रीज का चेयरमैन बनाया गया जहां उन्होंने पहली बार अपनी प्रतिभा की झलक दिखाई और कंपनी को एक रणनीतिक थिंक टैंक और उच्च प्रौद्योगिकी वाले कारोबारों के प्रवर्तक के रूप में बदला।

उस समय जबकि टाटा स्टील में रूसी मोदी, टाटा केमिकल्स में दरबारी सेठ और इंडियन होटल्स में अजित केरकर जैसे दिग्गज काम संभाल रहे थे और जेआरडी टाटा जैसी शख्सियत को रिपोर्ट कर रहे थे, उस दौर में बहुत कम ऐसे लोग थे जिन्होंने टाटा इंडस्ट्रीज पर ध्यान दिया। स्वाभाविक सी बात है कि जब टाटा, समूह के मुखिया बने तब बहुत कम लोगों को उम्मीद थी कि उन्हें कामयाबी मिलेगी। बल्कि उनके तो समूह का प्रमुख बनने तक की उम्मीद नहीं की जा रही थी।

उस पद के लिए उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी रूसी मोदी ने एक समाचार पत्र को साक्षात्कार दिया जिसके कारण उनकी संभावनाएं स्वत: समाप्त हो गईं। मोदी की बर्खास्तगी के बाद यह तय हो गया था कि रतन टाटा जेआरडी टाटा के ढीले-ढाले संघीय ढांचे को नहीं मानेंगे। इसके बजाय उन्होंने अन्य मजबूत नेताओं को साथ लाने का अपेक्षाकृत कठिन काम चुना। वहां से उन्होंने व्यवस्थित रूप से समूह की अन्य कंपनियों में टाटा समूह की हिस्सेदारी बढ़ाने का काम शुरू किया। 1996 में उन्होंने ब्रांड सबस्क्रिप्प्शन योजना पेश की जहां समूह की कंपनियां टाटा का नाम इस्तेमाल करने के लिए तयशुदा शुल्क चुकाने लगीं।

एक बार जब वह सुरक्षित महसूस करने लगे तो उन्होंने अपने सपनों को आगे बढ़ाया। उनके समकालीन कारोबारियों राहुल बजाज आदि ने जहां अपनी संप्रभुता की रक्षा की और अपनी हिस्सेदारी को बचाए रखा वहीं टाटा ने विदेशी कंपनियों के साथ साझेदारी को लेकर खुला दिल अपनाया। उन्होंने इससे एक कदम और आगे बढ़कर विदेशों में अधिग्रहण भी किए। टेटली, कोरस और जगुआर लैंड रोवर का अधिग्रहण टाटा द्वारा किए गए कुछ प्रमुख विदेशी अधिग्रहण हैं।

देश में उन्होंने जो किया वह भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। उनका सपना था कि वह आम भारतीयों के लिए एक कार बनाएं जिसमें ऐंबेसडर जैसा आराम और मारुति जैसी किफायत हो। इस प्रकार इंडिका कार सामने आई और उसने काफी समय तक अंतरराष्ट्रीय कंपनियों का मुकाबला भी किया। यद्यपि इससे कहीं अधिक महत्त्वाकांक्षी नैनो कार परियोजना एक चुनौती साबित हुई। टाटा ने भारतीयों के लिए करीब एक लाख रुपये की आदर्श कार तैयार करने की योजना बनाई थी लेकिन उस वादे को निभाने के बावजूद नैनो देश के आम लोगों को नहीं लुभा सकी क्योंकि वे सबसे सस्ती कार के मालिक के रूप में दिखना नहीं चाहते थे।

इसके बाद राडिया टेप कांड सामने आया। टाटा और नीरा राडिया 1990 के दशक में करीब आए थे जब समूह सिंगापुर इंटरनैशनल एयरलाइंस के साथ मिलकर हवाई सेवा शुरू करने की कोशिश में था। राडिया अपने तीन बेटों के साथ भारत आई थीं और वह सिंगापुर एयरलाइंस की सलाहकार थीं। कुछ टेप लीक हुए जिनमें राडिया संदिग्ध बातचीत करती नजर आईं। टाटा और राडिया की करीबी की जांच की गई, हालांकि टाटा ने बार-बार यह कहा कि राडिया को टाटा समूह के खिलाफ नकारात्मक प्रचार अभियानों का मुकाबला करने के लिए लाया गया था।

इन बातों के बावजूद 2012 में जब उन्होंने समूह की कमान साइरस मिस्त्री को सौंप दी तो यह स्पष्ट था कि वे एक शानदार विरासत पीछे छोड़कर जा रहे हैं। परंतु मिस्त्री की कार्यप्रणाली से असहमत होने के कारण 2016 में समूह के बोर्ड रूम में एक संघर्ष सामने आया जहां टाटा अंतरिम चेयरमैन के रूप में समूह में वापस आए। उसके बाद उन्होंने कहीं अधिक मजबूत उत्तराधिकार योजना शुरू की।

First Published - October 10, 2024 | 10:34 PM IST

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