डॉलर के मुकाबले रुपये में आई हालिया गिरावट भारतीय दवा निर्यातकों को हाल-फिलहाल कोई फायदा शायद ही देगी। कुछ लोग मानते हैं कि रुपया गिरने से निर्यात पर फौरन असर नहीं होगा क्योंकि निर्यात के लिए साल भर के करार किए जाते हैं और उनमें मुद्रा के उतार-चढ़ाव से बचने का इंतजाम पहले ही कर लिया जाता है। मगर कुछ का कहना है कि रुपये में फायदा होते देख छोटी कंपनियों ने दवाओं के दाम घटा दिए तो बाकी कंपनियों को भी कीमतों पर दोबारा बातचीत करनी पड़ सकती है। उधर निर्यातकों का कहना है कि दवा बनाने में इस्तेमाल होने वाली सामग्री (एपीआई) का आयात महंगा हो जाएगा, जिससे निर्यात से होने वाला मुनाफा बराबर हो जाएगा। पिछले हफ्ते रुपया डॉलर के मुकाबले लुढ़ककर 85.76 पर चला गया था।
इंडियन फार्मास्युटिकल अलायंस (आईपीए) के महानिदेशक सुदर्शन जैन ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि अमेरिकी थोक कारोबारियों के साथ सालाना सौदों में आम तौर पर इस तरह की उठापटक से बचने का इंतजाम कर लिया जाता है। आईपीए देश से हो रहे दवा निर्यात में तकरीबन 80 फीसदी योगदान करने वाली शोध केंद्रित देसी औषधि कंपनियों का संगठन है।
जैन ने कहा कि रुपये और डॉलर की मौजूदा दर का तत्काल कोई असर नहीं होना चाहिए। मगर उन्होंने कहा कि रुपया लंबे अरसे तक लुढ़कता रहा तो अगले साल होने वाले सौदों पर इसका असर पड़ेगा, जिसके बारे में कुछ भी कहना अभी मुश्किल है।
वर्ष 2023-24 में भारत ने अमेरिका को 8.73 अरब डॉलर की दवाएं निर्यात की थीं, जो देश से हुए कुल दवा निर्यात का 31 फीसदी था। उस साल भारत से कुल 27.9 अरब डॉलर का दवा निर्यात हुआ था, जो 2022-23 के मुकाबले 9.6 फीसदी ज्यादा था।
उद्योग विशेषज्ञों को लगता है कि भारतीय दवा कंपनियों के लिए अमेरिका अहम बाजार बना रहेगा क्योंकि वहां डॉक्टरों के 90 फीसदी से ज्यादा पर्चों में किफायती जेनेरिक दवाएं ही लिखी जाती हैं। वर्ष 2022 में अमेरिका के हर 10 डॉक्टरी पर्चों में से 4 में लिखी दवाएं भारतीय कंपनियों से ही मिली थीं। 2023-24 में 14 फीसदी दवा निर्यात अफ्रीका को और 20.05 फीसदी निर्यात यूरोप को किया गया था।
बायोकॉन ऐंड बायोकॉन बायोलॉजिक्स की चेयरपर्सन किरण मजूमदार शॉ ने बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा, ‘रुपये की कमजोरी से भारतीय दवा निर्यात को फायदा होगा। मुझे उम्मीद है कि कंपनियां रुपये में आई कमजोरी का इस्तेमाल अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए करेंगी देसी कंपनियों से ही होड़ करने के लिए नहीं। कई भारतीय कंपनियां बाजार हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए लागत से भी कम दाम पर दवाएं बेचती हैं, जो सही तरीका नहीं है।’
उन्होंने कहा, ‘चीनी दवा कंपनियों से टक्कर मिलती है मगर वह भी केवल एपीआई के मामले में है। तैयार दवा के मामले में भारत साफ तौर पर आगे है। अभी तक रुपये में गिरावट का असर नहीं दिखा है मगर यह धीरे-धीरे नजर आता है और मुझे भरोसा है कि कंपनियां भी चौकन्नी रहकर जरूरत के मुताबिक कदम उठाएंगी।’
शॉ की बातों से अन्य विश्लेषक भी सहमत हैं। सिस्टमैटिक्स इंस्टीट्यूशनल इक्विटीज के विश्लेषक विशाल मनचंदा ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि बड़ी दवा कंपनियां अमेरिका जैसे देशों में कम मूल्य वाली जेनेरिक दवाओं का निर्यात कम कर रही हैं जो बेहद नियमन वाला देश है। वे इस प्रक्रिया में कुछ कम महत्त्वपूर्ण उत्पादों को भी छोड़ रही हैं।
उनका कहना है, ‘बड़ी दवा कंपनियों द्वारा भारत से अमेरिका में जेनेरिक दवाओं के निर्यात के मूल्य के मामले में गिरावट आई है। साथ ही दवा निर्यात बाजार में हिस्सेदारी हासिल करने के लिए भारतीय कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्द्धा बढ़ गई है। वहीं छोटी कंपनियां बाजार हिस्सेदारी पाने के लिए कीमतें कम कर रही हैं।’
उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा, ‘मौजूदा स्थिति में जब रुपये में कमजोरी है और अगर छोटे खिलाड़ी कीमतों में कमी करते हैं तब वार्षिक अनुबंध के बीच में भी कीमतों को लेकर दोबारा बातचीत हो सकती है।’
सिस्टमैटिक्स विश्लेषण से अंदाजा मिलता है कि भारत से अमेरिका में होने वाले निर्यात में प्रतिस्पर्द्धा काफी बढ़ गई है। शीर्ष 10 निर्यातकों (उच्च मूल्य वाले मौके को छोड़कर) की बाजार हिस्सेदारी कैलेंडर वर्ष 2021 के 60 फीसदी से घटकर कैलेंडर वर्ष 2023 में करीब 50 फीसदी हो गई।
इस रिपोर्ट में कहा गया, ‘भारत से अमेरिका को होने वाले कुल निर्यात (उच्च मूल्य वाले मौके को छोड़कर) में महज 20 करोड़ डॉलर की बढ़ोतरी हुई और यह कैलेंडर वर्ष 2021 के 6.8 अरब डॉलर से बढ़कर कैलेंडर वर्ष 2023 में 7 अरब डॉलर हो गया। नई कंपनियां तेजी से बढ़ रही हैं लेकिन भारत में परंपरागत कंपनियों की बाजार हिस्सेदारी घट रही है।’