विकसित अर्थव्यवस्थाओं की नब्ज समझे जाने वाले ऑटोमोबाइल उद्योग में छाई मंदी ने इस्पात और रबर उद्योग दोनों पर गहरा असर डाला है।
हालांकि इन दोनों मे किसे मंदी ने ज्यादा प्रभावित किया है, जानने की कोशिश करें तो रबर उद्योग का नाम सबसे आगे रहता है।उल्लेखनीय है कि पूरी दुनिया में रबर की जितनी खपत होती है, उसका अकेले 60 प्रतिशत टायर तैयार करने में इस्तेमाल हो जाता है।
अभी जब ऑटोमोबाइल उद्योग का वैश्विक उत्पादन सिरे से नीचे गिरा है, तब टायर की मांग काफी सिकुड़ गई है। यदि रबर की कीमतें मौजूदा स्तर पर ही बनी रही तो आपूर्ति के मामले में बेहतर प्रबंधन की जरूरत पड़ेगी।
अक्टूबर के मध्य में थाईलैंड, इंडोनेशिया और मलयेशिया के रबर उत्पादकों की प्रतिनिधि संस्था अंतरराष्ट्रीय रबर संघ (आईआरसीओ), जो दुनिया का कुल 70 फीसदी रबर उत्पादित करती है, ने 2009 के लिए उत्पादन में 3 फीसदी कटौती का निर्णय लिया।
मालूम हो कि इन तीन देशों ने पिछले साल 70 लाख टन रबर पैदा किया। इसमें से 55.5 लाख टन रबर निर्यात कर दिया गया। अमेरिका, चीन और भारत में कार की बिक्री में 30 फीसदी की कमी हुई है।
ऐसे में टायर की मांग में खासी कमी हुई। भारतीय टायर निर्माताओं के लिए तो पुराने टायर बदलने का काम वरदान सरीखा साबित हुआ है।
इरको सदस्यों द्वारा 2009 में 3 फीसदी उत्पादन घटाने के निर्णय से नहीं लग रहा कि रबर की कीमतों में तेजी आएगी। टोयोटा, होंडा और जापान की दूसरी वाहन कंपनियों द्वारा उत्पादन घटाने और नए मॉडल लॉन्च करने की योजना स्थगित करने से टायर कंपनियों के उत्पादन में गिरावट होने जा रही है।
टायर उद्योग में रबर की खपत अगले साल 13.5 लाख टन से घटकर 12.8 लाख टन तक सिमटने के आसार हैं। वास्तव में, 2009 में जापान का टायर उत्पादन 2004 के बाद सबसे कम होगा। अमेरिका में जनरल मोटर्स, फोर्ड और क्रिसलर जैसी कंपनियां बड़ी बेसब्री से सरकार से बेलआउट पैकेज की मांग कर रही हैं।
दूसरी ओर, कूपर टायर ने तो अपना एक प्लांट भी बंद कर दिया है। भारत में भी इस संकट का खूब असर दिख रहा है। देश की शीर्ष टायर कंपनी एमआरएफ ने भी इस संकट के चलते अपने सभी प्लांटों में उत्पादन घटा लिया है।
द ऑटोमोटिव टायर मैन्यूफैक्चरर्स एसोसियशन का कहना है कि टायर उठाव में हुई कमी के चलते सभी कंपनियों को अपना उत्पादन पुर्नव्यवस्थित करना पड़ रहा है।
हालांकि केसोराम के निदेशक एस के पारिक ने बताया, ”मांग की मौजूदा स्थिति चाहे जो भी हो, यदि हमें कर छूट का लाभ उठाना है तो हम उत्तराखंड में 840 करोड़ रुपये की लागत से स्थापित होने वाली विस्तार परियोजनाएं टाल नहीं सकते।”
पारिक के अनुसार, रबर उद्योग की मुश्किलें इसलिए बढ़ गई है कि रबर उत्पादकों के मुख्य क्लाइंट टायर उद्योग की हालत पतली है। अनुमान है कि भारत में मौजूदा सीजन की समाप्ति तक रबर का उत्पादन 8.75 लाख टन रहेगा। उल्लेखनीय है कि भारत रबर का आयतक और निर्यातक दोनों है।
रबर बोर्ड का अंदाजा है कि 2008-09 के दौरान रबर का निर्यात 50 हजार और आयात 80 हजार टन रहेगा। जानकारों को कोई हैरत नहीं कि देश में रबर की कीमत 140 रुपये प्रति किलोग्राम से घटकर 60 रुपये तक आ गई। क्योंकि टोक्यो रबर वायदा सूचकांक में भी रबर के भाव 60 फीसदी तक लुढ़के हैं।
मालूम हो कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में रबर की कीमत जुलाई में 3.25 डॉलर प्रति किलोग्राम के उच्चतम स्तर तक चली गई थी। पिछले 56 साल में रबर का यह सर्वाधिक मूल्य रहा। इरको के लिए चुनौती है कि रबर की आपूर्ति मांग के अनुपात में लाए। जानकारों के अनुसार, ऐसा करना बहुत मुश्किल है।
तब तो यह और भी मुश्किल होगा जब अमेरिका और जापान में मंदी का दौर चल रहा हो और भारत और चीन का बाजार पहले की तुलना में सुस्त रफ्तार से दौड़ रहा हो। दुनिया के सबसे बड़े रबर उत्पादक थाईलैंड ने मौजूदा परिदृश्य को देखते हुए रबर के पौधे लगाने की अपनी योजना टाल दी है।
इससे पहले उसकी योजना थी कि देश के उत्तरी और उत्तरी पूर्वी इलाकों में रबर के पौधे लगाए जाएंगे। इसके जरिए मौजूदा 30 लाख टन के उत्पादन को बढ़ाकर 2009 में 32.5 लाख टन और 2010 में 33 लाख टन किया जाना था।
इरको के तीनों सदस्य देशों ने इंडोनेशिया में हुई पिछली बैठक में तय किया कि 2009 में उत्पादन में न केवल 9.15 लाख टन की कटौती की जाएगी, 2007 में हुए कुल निर्यात के एक तिहाई के बराबर, बल्कि कोई भी सौदा 1.35 डॉलर प्रति किलोग्राम से कम पर नहीं किया जाएगा।
इस मामले में संगठन का सिद्धांत ओपेक के सिद्धांतों से मेल खा रहा है। हालांकि प्राकृतिक रबर का निर्यात मूल्य तय करते वक्त इस बात का खासा ख्याल रखा गया है कि कृत्रिम रबर किस कीमत पर बिक रहा है।
इरको की जनवरी में होने वाली अगली बैठक रबर उत्पादकों के लिए खासा महत्वपूर्ण माना जा रहा है, जिसमें कई फैसले लिए जाने हैं।