कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में लगातार हो रही कमी के मद्देनजर देश में तेल की कीमतें कम करने की मांग पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा ने ठुकरा दी है।
मोटर मालिकों ने देवड़ा से मांग की थी कि कच्चे तेल का ताप कम होने के बाद इससे मिलने वाली राहत इसके उपभोक्ताओं तक पहुंचायी जाए। गौरतलब है कि 11 जुलाई को अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें 147 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गयी थी। लेकिन तब से इसमें लगातार गिरावट आ रही है।
अभी कच्चे तेल का भाव 112 से 115 डॉलर प्रति बैरल के बीच मंडरा रहा है। तेल का सस्ता होना निश्चित तौर पर केंद्र सरकार के लिए राहत की बात है जो पिछले कई महीनों से दोहरे अंकों की महंगाई दर से जूझ रही है। पिछले हफ्ते ही महंगाई दर 11.63 फीसदी तक पहुंच गयी थी। तेल की कीमतों के आसमान छूने से फिलवक्त देश का निर्माण क्षेत्र मंदी से जूझ रहा है।
ऐसे में तेल की आग का मंद पड़ना राहत की खबर है। आम उपभोक्ताओं की सरकार से अपेक्षा है कि तेल पूल का खर्चा कम होने के बाद देश में भी तेल की कीमतें कम की जाए। लेकिन सरकार की अपनी मजबूरियां हैं। पिछले साल तेल सब्सिडी पर 8.7 अरब डॉलर की बड़ी राशि खर्च की गई थी। जबकि सबसे ज्यादा सब्सिडी डीजल और गैस पर दी गई। इस साल सब्सिडी के मद में खर्च होने वाली राशि में और बढ़ोतरी ही हुई है।
जाहिर है, इसके चलते बजट घाटे का बोझ लगातार सरकार को परेशान कर रहा है। इन सारी वजहों से देवड़ा और उनका मंत्रालय तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में कमी के बावजूद देश में कीमतें कम करने को तैयार नहीं है। जानकारों का मानना है कि तेल की कीमतें बहुत जल्द ही सामान्य हो जाएगी। विशेषज्ञों को उम्मीद है कि सामान्य स्थिति में कच्चे तेल की कीमतें 90 डॉलर के आसपास ही रहेगी।
पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा तेल मूल्य कम करने पर तब जरूर विचार कर सकते हैं जब इसकी कीमत मौजूदा 112-115 डॉलर से गिरते-गिरते 90 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच जाए। देवड़ा कह सकते हैं कि तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में कमी के चलते इसकी घरेलू कीमतें कम करने के लिए सहयोगी दलों की तरफ से उन पर भारी दबाव पड़ रहा है। ऐसे में तेल की कीमतें कम कर उपभोक्ताओं को राहत देने का निश्चय किया गया।
तेल के अंतरराष्ट्रीय मूल्य में रेकॉर्ड बढ़ोतरी की वजह पूछे जाने पर द लास्ट ऑयल शॉक नामक पुस्तक के लेखक डेविड स्ट्रेहन ने बताया कि 2005 की शुरुआत से ही कच्चे तेल का उत्पादन 8.6 करोड़ बैरल प्रतिदिन पर अटका पड़ा था। जबकि इसकी मांग में काफी तेजी से वृद्धि हो रही है। जाहिर है अंतरराष्ट्रीय तेल कंपनियों द्वारा अपने तेल उत्पादन में बढ़ोतरी न करना कीमतों में रेकॉर्ड वृद्धि की मुख्य वजह है।
तेल कीमतों में गुनात्मक वृद्धि होने से पिछले साल इन कंपनियों में रेकॉर्ड मुनाफा कमाया है। यही नहीं अकेले ही दुनिया के 40 फीसदी कच्चे तेल का उत्पादन करने वाला संगठन ओपेक तेल का उत्पादन न बढ़ाने की जिद किए बैठा है। स्ट्रेहन ओपेक के उस वक्तव्य से अपनी असहमति जताते हैं कि मध्य जुलाई तक तेल की लगातार बढ़ती कीमतों के पीछे तेल बाजार की बुनियादी चीजों का हाथ नहीं था।
ओपेक ने कहा कि तब सट्टेबाजों और हेजिंग करने वालों ने तेल बाजार को अपनी गिरफ्त में ले लिया था और इन लोगों ने अपने फायदे के लिए तेल की कीमतों को खूब चढ़ाया। हालांकि अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा आयोग लगातार कहता रहा है कि कच्चे तेल की कीमतों में आए बूम के पीछे हेजिंग फंडों का कोई खास हाथ नहीं है।
स्ट्रेहन के मुताबिक, तेल की मांग इसलिए भी तेजी से बढ़ रही है क्योंकि एशिया के कई देश अपने यहां तेल पर भारी सब्सिडी दे रहे हैं। उनके अनुसार, हमारे देश के पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा इस तथ्य के बावजूद कि देश का तेल सब्सिडी सकल घरेलू उत्पाद के 0.7 फीसदी तक पहुंच चुका है, इस तर्क को सिरे से नकार दें। हालांकि यह तर्क कितना वाजिब है, इसे समझने के लिए चीन का उदाहरण लिया जाए।
चीन अमेरिका के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता है। कीमतें बढ़ने के बावजूद 2008 की पहली छमाही में देश में रिफाइंड उत्पादों की खपत पिछले साल की तुलना में 14.6 फीसदी बढ़ी है और यह 1.06 करोड़ टन तक जा पहुंची है। जानकारों के अनुसार, चीन में तेल उत्पादों की खपत में इतनी जबरदस्त वृद्धि की मुख्य वजह उसकी अर्थव्यवस्था की विकास दर का 10.4 फीसदी पर रहना है।
चीन में गैस स्टेशनों के बाहर लगी उपभोक्ताओं की लंबी कतार गवाह है कि कीमतों में हुई जोरदारी वृद्धि से इसकी मांग पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा। फिलहाल चीन में तेल की अनुमानित खपत 65.4 लाख बैरल प्रतिदिन है। वैसे अमेरिका में एक दिन में 2.1 करोड़ बैरल तेल खप जा रहा है।
अनुमान लगाया जा रहा है कि जिस दर से चीन में तेल की खपत बढ़ रही है, उस हिसाब से 2020 तक चीन और अमेरिका की तेल खपत लगभग बराबर हो जाएगी। ऐसा नहीं कि कच्चे तेल पर सब्सिडी केवल एशियाई देश ही दे रहे हैं। ओपेक के महत्वपूर्ण सदस्य सऊदी अरब भी तेल की घरेलू कीमतें कम रखने के लिए तेल पर भारी सब्सिडी दे रहा है। ऐसे में तेल सब्सिडी को लेकर केवल एशियाई देशों को कटघरे में खड़ा करना गैर-वाजिब तर्क है।