अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की टैरिफ नीति ने दुनिया भर के शेयर बाजारों पर विपरीत असर डाला और वैश्विक राजनीतिक राजधानियों को भी हतप्रभ करने वाले झटके दिए। टीकाकारों ने अमेरिका में मुद्रास्फीतिजनित मंदी और वैश्विक आर्थिक वृद्धि के ढह जाने की चेतावनी दी। उसके बाद ट्रंप ने चीन को छोड़कर बाकी देशों पर लगे जवाबी शुल्क को तीन महीने के लिए स्थगित कर दिया। चीन पर इसे बढ़ा कर 125 फीसदी कर दिया गया।
बहरहाल, 10 फीसदी का बुनियादी टैरिफ सभी देशों पर लागू रहेगा। इसी प्रकार एल्युमीनियम और स्टील आयात तथा वाहन क्षेत्र पर 25 फीसदी का टैरिफ लागू रहेगा। जवाबी शुल्क को स्थगित करने के बाद बनी राहत की स्थिति को समझा जा सकता है। परंतु इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती है कि 10 फीसदी का बुनियादी टैरिफ भी अमेरिका के पहले के 2.8 फीसदी के औसत टैरिफ से बहुत अधिक है।
भविष्य की बात करें तो एक प्रश्न का उत्तर अहम है। आर्थिक नीति के मामले में क्या अधिक महत्त्वपूर्ण है-करिश्माई राजनेता की भावना या अकादमिक सिद्धांत? क्या ट्रंप विनिर्माण को अमेरिका वापस ले जाने में कामयाब रहेंगे और अमेरिका के व्यापार घाटे को कम कर सकेंगे? या फिर वह अपने पीछे आर्थिक पतन की विरासत छोड़ जाएंगे?
इन सवालों को हल करने की प्रक्रिया में यह समझना उपयोगी होगा कि सार्वजनिक बहस में चल रही कुछ बातों का परीक्षण किया जाए।
(1) ट्रंप केवल एक असभ्य राजनेता हैं जो दूसरों को धमकाने में यकीन रखते हैं। वह आवेश में निर्णय लेते हैं न कि तार्किक ढंग से। उन्हें अर्थव्यवस्था की समझ नहीं है। असभ्यता और धमकाना अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए नई बात नहीं है। यह धारणा भी गलत है कि ट्रंप को कुछ पता नहीं है। आप बगैर कुछ जाने समझे अरबपति और अमेरिका के राष्ट्रपति नहीं बन सकते। पहली बार तो वह राजनीति में बिना किसी अनुभव के बिना ही राष्ट्रपति बन गए थे।
अर्थशास्त्री ऑर्थर लैफर और स्टीफन मूर, जो दोनों अवसरों पर ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के प्रयासों में उनके सलाहकार रहे, ने मिलकर एक किताब लिखी है- ‘द ट्रंप इकनॉमिक मिरेकल ऐंड द प्लान टु अनलीश प्रॉस्पैरिटी अगेन (2024)।’ वे लिखते हैं, ‘ट्रंप वैसे व्यक्ति नहीं हैं जैसा अनुचित चित्रण मीडिया ने उनका किया है। वह यकीनन खलनायक नहीं हैं। वह बौद्धिक दृष्टि से खोखले व्यक्ति भी नहीं है जैसा कि 2015 में पहली बार राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की उनकी घोषणा के बाद से ही उनके विरोधी उन्हें घोषित करते आ रहे हैं।’ एक अन्य जगह पर वे लिखते हैं, ‘ट्रंप के पास अर्थव्यवस्था की जमीनी समझ है।’ यह जानना अच्छा है कि कुछ अत्यधिक समझदार माने जाने वाले लोग ट्रंप के बारे में अलग विचार रखते हैं।
ट्रंप के पास एक प्रभावशाली आर्थिक टीम है। उनके वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट एक जाने माने फंड प्रबंधक हैं। उन्हें वृहद अर्थव्यवस्था पर उनकी पकड़ के लिए जाना जाता है। वह सोरोस की उस टीम के सदस्य थे जिसने 1992 में पाउंड के विरुद्ध दांव लगाया था। पीटर नवारो, जो व्यापार के मुद्दे पर ट्रंप को सलाह देते हैं वह हार्वर्ड से पीएचडी हैं और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर हैं। आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन स्टीफन मिरान भी हार्वर्ड से पीएचडी हैं और उनके पास वित्तीय बाजारों का अनुभव है। यानी ट्रंप को सलाह देने वालों की कमी नहीं।
(2) ट्रंप टैरिफ मुक्त व्यापार के उन सिद्धांतों के खिलाफ है जिनकी बदौलत वृद्धि और समृद्धि आई। खासकर दूसरे विश्व युद्ध के बाद के दौर में। ट्रंप मानते हैं कि मुक्त व्यापार एक मिथ है और कई अर्थशास्त्री इससे सहमत होंगे। अमेरिका और ब्रिटेन समेत 19वीं सदी की प्रमुख आर्थिक शक्तियों ने मुक्त व्यापार की बदौलत नहीं बल्कि संरक्षणवाद की दीवार के पीछे वृद्धि हासिल की। जब उन्हें दूसरे देशों के बाजारों की पहुंच की जरूरत थी तब उन्होंने मुक्त बाजार के विचार को आगे बढ़ाया। दूसरे विश्व युद्ध के बाद की दुनिया वैसी नहीं है जहां कंपनियां समान कारोबारी माहौल में प्रतिस्पर्धा कर सकें।
हमारे पास बस एक औद्योगिक नीति है जिसमें सब्सिडी और गैर टैरिफ गतिरोधों की मदद से घरेलू कंपनियों को मदद की जाती है। अमेरिका विश्वविद्यालयों में होने वाले शोध फंड करता है जो शानदार नवाचार करते हैं। इंटरनेट इसका उदाहरण है। मेरिकी कंपनियों को जनता की कीमत पर लाभ हासिल होता है। पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाएं भी खास कंपनियों और क्षेत्रों को लक्षित मदद के दम पर फलीं-फूलीं। चीन आज भी औद्योगिक नीति का अगुआ है। जैसा कि ट्रंप कहते हैं-मुक्त व्यापार, निष्पक्ष व्यापार नहीं है।
(3) अगर मुक्त व्यापार का मौजूदा स्वरूप अतीत में अमेरिका को समृद्ध बनाता रहा है तो उससे छेड़छाड़ क्यों करना? सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर या प्रति व्यक्ति आय में इजाफा जैसे आंकड़े भ्रामक हो सकते हैं। वे इस तथ्य को शामिल नहीं करते कि तथाकथित मुक्त व्यापार का वितरण असमान है। अमेरिका के लिए यह बात सही है।
ट्रंप के पहले कार्यकाल में मुक्त व्यापार पर हमला बोलने वाले रॉबर्ट लाइटहाइजर कहते हैं कि चीन के विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने के 16 साल पहले अमेरिका में वास्तविक माध्य आय 1984 के 53,337 डॉलर से बढ़कर वर्ष2000 में 63,292 डॉलर हो गई। इसके बाद यह वर्ष2000 के स्तर से नीचे आई और 2016 तक उसके आसपास बनी रही, यानी ट्रंप के पहली बार राष्ट्रपति बनने तक। यहां तक कि 2016 में भी यह केवल 63,683 डॉलर तक पहुंची यानी 16 साल में 400 डॉलर से भी कम बढ़त। अमेरिकी अर्थव्यवस्था का विकास हुआ लेकिन आम लोगों का नहीं।
2020 में जब ट्रंप पद से हटे तब परिवारों के वास्तविक आय का माध्य 6.8 फीसदी अधिक था। अर्थशास्त्री इस इजाफे का श्रेय ट्रंप की उल्लेखनीय पहलों को देते हैं, जिनमें चीन के आयात पर टैरिफ लगाने, नाफ्टा पर नए सिरे से वार्ता और 2017 में करों में कटौती आदि शामिल हैं। लाइटहाइजर कहते हैं कि ट्रंप की पहलों के चलते उनके पहले कार्यकाल में हजारों रोजगार देश में वापस आए। उनके मुताबिक ट्रंप की अपील अमेरिकी मध्य वर्ग पर कारगर रही और यह 2016 और 2024 में उनको मिली जीत से पता चलता है।
(4) ट्रंप ने जो टैरिफ घोषित किए हैं वे मोलतोल के हथकंडों में आते हैं और अमेरिकी साझेदारों द्वारा एक बार बातचीत के लिए राजी होने पर इन्हें वापस ले लिया जाएगा। ट्रंप ने संकेत दिया है कि वह अमेरिकी साझेदार देशों के साथ जवाबी टैरिफ पर बातचीत के लिए तैयार हैं। 90 दिन का स्थगन इसीलिए लागू किया गया है। बहरहाल, 10 फीसदी का बुनियादी टैरिफ एक अलग मामला है। ट्रंप सोचते हैं कि अमेरिका को न केवल आम अमेरिकियों के लिए रोजगार तैयार करने के लिए विनिर्माण की जरूरत है बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी यह आवश्यक है। वह दवा, पोत, स्टील, एल्युमीनियम, सेमीकंडक्टर आदि के लिए आयात पर निर्भर नहीं रह सकता। यही कारण है कि एल्युमिनियम, स्टील और वाहन पर बुनियादी टैरिफ लागू रहेगा।
अन्य उत्पादों मसलन औषधि आदि पर भी टैरिफ आगे लग सकता है। ट्रंप टैरिफ को राजस्व बढ़ाने के तरीके के रूप में देखते हैं ताकि वे अपने यहां कर कम कर सकें। सभी प्रकार के टैक्स एक तरह की अक्षमता प्रदर्शित करते हैं लेकिन कुछ अर्थशास्त्री यह भी मानते हैं कि टैरिफ, कंपनियों और लोगों पर कर लगाने की तुलना में कम नुकसानदेह हैं। ट्रंप टैरिफ को अन्य देशों को दंडित करने के रूप में देखते हैं जबकि इससे अमेरिकी करदाताओं को राहत मिलती है।
लब्बोलुआब यह है कि टैरिफ ट्रंप की आर्थिक सोच का अनिवार्य अंग है। वह समय-समय पर अपना रुख बदल सकते हैं लेकिन कोई इस भ्रम में न रहे कि वह अपने बुनियादी दर्शन को ही बदल देंगे।