आम चुनाव शुरू होने के पहले देश की सबसे प्रसिद्ध हाई-टेक मिलेनियम सिटी के रहवासी कल्याण संघों (RWA) में भी तीखी बहस छिड़ गई। ये वे इलाके हैं जो सबसे कम तकनीकी गुणवत्ता वाली नागरिक अधोसंरचना पर किसी तरह प्रबंधन कर रहे हैं। तर्क यह है कि गुरुग्राम की निरंतर खस्ता होती हालत को देखते हुए मतदान किया जाए अथवा नहीं।
एक नागरिक के रूप में अपना कर्तव्य निभाया जाए अथवा निर्वाचित अधिकारियों को उनका काम करने दिया जाए। इसमें शक नहीं है कि न्यूनतम नागरिक सुविधाओं के साथ संचालन शुरू करने वाले इस शहर की स्थिति और खराब हो गई है। शहर का कचरा कहीं नहीं जा रहा है, सड़कें ऐसी हैं कि गांव की गलियां भी फॉर्मूला 1 ट्रैक जैसी नजर आएं, सीवर ओवरफ्लो हो रहे हैं, जल स्तर बढ़ने के बावजूद पानी की कमी बनी हुई है।
परंतु इसका असली दोष है गुरुग्राम (Gurugram) का अपने सांसद के साथ कमजोर रिश्ते का। यानी वहां के लोक सभा सदस्य के साथ शहर के रिश्ते का। यह एक संस्थागत नाकामी है जो विवाद उत्पन्न कर रही है।
गुरुग्राम नगर निगम को कभी उसकी क्षमताओं के लिए नहीं जाना गया और उसके चुनाव भी बीते डेढ़ साल से टलते जा रहे हैं। चूंकि शहर का प्रभार किसी के पास नहीं है इसलिए आरडब्ल्यूए ने एमसीजी हाउस पर धरनों का आयोजन किया ताकि अफसरशाहों को अपनी समस्याओं को हल करने के लिए मना सकें।
इन प्रदर्शनों में जमकर नारेबाजी हुई और प्लेकार्ड लहराए गए। इन्हें सकारात्मक प्रतिक्रिया भी मिलती है लेकिन ये कोई उल्लेखनीय अंतर पैदा करने लायक नहीं हैं। निश्चित तौर पर देखा जाए तो संसदीय चुनावों में स्थानीय मुद्दों का इतना अधिक प्रभावी होना यही बताता है कि सात चरणों और 44 दिन तक विस्तारित मौजूदा चुनाव में नए मुद्दों का अभाव है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में ये दूसरे सबसे लंबे चुनाव हैं। ऐसा लगता है कि विकास के अच्छे दिन गति खो चुके हैं और पुनर्वितरण न्याय में गरीबी हटाओ की थीम निहित है जिसके दिन पूरे हो चुके हैं।
विडंबना यह है गुरुग्राम के आरडब्लयूए की मौजूदा बहस हमें उन नारों की ओर ले जाती है जो 2004 के संसदीय चुनावों के समय मौजूद थे: बिजली, सड़क, पानी। तथ्य यह है कि उदारीकरण के बाद के दौर में तेज शहरीकरण ने मध्य वर्ग के शहरी मतदाताओं की मांग में परिवर्तन किया।
एक समय जहां वे गरीबी हटाओ का नारा देने वाले नेताओं को वोट देते थे वहीं अब उसकी जगह संपत्ति और आराम बढ़ाने तथा नागरिक सुविधाएं देने वालों के समर्थन ने ले लिया। उन्हें कम से कम अपेक्षाकृत बेहतर शहरी माहौल की दरकार है। परंतु आरडब्ल्यूए का वोट न देने का अभियान गलत हो सकता है।
देश के अधिकांश उभरते शहर खराब संचालन के उदाहरण हैं और इस बात का वहां के सांसद के निर्वाचन से कम लेनादेना होता है तथा नगर शासन और स्वायत्तता से अधिक।
अधिकांश नगर निकायों की स्थिति ठीक नहीं है। उनकी राजस्व बढ़ाने की क्षमता संपत्ति कर, जल कर और टोल टैक्स तक सीमित है जिसे नहीं चुकाने के रास्ते शहरी लोग निकाल ही लेते हैं। भले ही वे पश्चिमी देशों के स्तर की सुविधाओं की चाह रखते हों। परंतु ये संसाधन भी बहुत सीमित हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के एक अध्ययन के मुताबिक एक नगर निकाय के राजस्व में स्थानीय कर की हिस्सेदारी नाम मात्र की होती है। शेष राशि केंद्र और राज्यों से मिलती है। इन संसाधनों में से करीब 70 फीसदी वेतन, पेंशन और प्रशासनिक कामों में खर्च हो जाता है। जब आपके पास पैसा नहीं हो या भारी धनराशि जुटाने के साधन नहीं हों तो सेवाएं प्रदान करने की क्षमता भी नहीं बचती। इसमें भारी भ्रष्टाचार को भी शामिल कर लें, खासकर शहरी अधोसंरचना के लिए दिए जाने वाले अनुबंधों के बढ़ते निजीकरण के बीच यह बहुत आम है। जवाबदेही की भावना भी नहीं रहती।
इससे कम फंड और खराब अधोसंरचना का एक दुष्चक्र शुरू हो जाता है। परंतु जैसा कि इतिहास हमें बताता है खराब प्रबंधन वाले शहर राजनीतिक टाइम बम की तरह होते हैं। विश्व बैंक (World Bank) के अनुसार 2036 तक देश की 40 फीसदी आबादी शहरों में रहने लगेगी। ऐसे में शहरी अधोसंरचना पर दबाव कई गुना बढ़ जाएगा।
बैंक के मुताबिक देश के शहरी स्थानीय निकायों को अगले 15 सालों तक सालाना 15 अरब रुपये का निवेश करना होगा ताकि इस दबाव से निपटा जा सके। इतनी बड़ी धनराशि कहां से आएगी? जाहिर है म्युनिसिपल बॉन्ड की मदद से बाजार से धन राशि जुटाना इसका तरीका हो सकता है। मध्य वर्ग के निवेशक सुरक्षा और बेहतर प्रतिफल को ध्यान में रखते हुए इसके समर्थक हैं। परंतु जिन शहरों में इन्हें जारी किया जा चुका है वहां के नगर निकायों के कमजोर संचालन ढांचे को देखते हुए इन्हें खरीदने वाले कम ही होंगे।
इसे देखते हुए आरडब्ल्यूए अगर जल्दी नगर निकाय चुनाव कराने की कोशिश करें तो बेहतर होगा। जवाबदेही वहीं से शुरू होती है। निर्वाचित अधिकारियों द्वारा सेवा आपूर्ति का प्रवर्तन भ्रष्टाचार को दूर करने तथा क्षमता निर्माण के लिए बेहतर होगा। इससे निवेशकों को भी इस बात का प्रोत्साहन मिलेगा कि वे अपनी धनराशि म्युनिसिपल बॉन्ड बाजार में लगाएं। इस बीच जो लोग भारत के भविष्य के बारे में सोचते हैं उनके लिए बेहतर होगा कि वे चुनावों में मतदान करें।