जैसे-जैसे आर्थिक चिंताओं और भू-राजनीतिक तनावों में इजाफा हो रहा है वैसे-वैसे हमें जलवायु, राजनीति और अन्य मोर्चों पर मुश्किल हालात के लिए तैयार रहना चाहिए। बता रहे हैं शंकर आचार्य
लगातार तीसरे वर्ष वैश्विक आर्थिक वृद्धि पिछले वर्ष से कमजोर रहेगी। कम से कम अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के अक्टूबर और आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) के नवंबर के आंकड़े तो यही बताते हैं। आईएमएफ के मुताबिक वैश्विक वृद्धि जो 2023 में क्रय शक्ति समता के संदर्भ में तीन फीसदी (बाजार विनिमय दर पर 2.5 फीसदी) थी, उसके 2024 में और कम होने की उम्मीद है।
यह अनुमान तब है जब यूरोप में कुछ सुधार होगा और अमेरिका में मंदी की आशंका दूर हुई है। एक समूह के रूप में विकसित देशों में 2024 में वृद्धि 1.4 फीसदी रहने की उम्मीद है जबकि उभरते और विकासशील देशों में यह चार फीसदी रह सकती है। इन बाजारों में यह दर चीन में बहुचर्चित मंदी के बावजूद है।
यह बात ध्यान देने लायक है कि 18 लाख करोड़ डॉलर की चीन की अर्थव्यवस्था में पांच फीसदी वृद्धि विश्व अर्थव्यवस्था में 900 अरब डॉलर का योगदान करती है। इसके विपरीत 27 लाख करोड़ डॉलर के आकार वाला अमेरिका अगर 1.5 फीसदी बढ़ता है तो इससे करीब 400 अरब डॉलर का योगदान होता है। वहीं 3.7 लाख करोड़ डॉलर की भारतीय अर्थव्यवस्था 6.5 फीसदी वृद्धि के साथ करीब 240 अरब डॉलर का योगदान करने वाली है।
एशिया में उभरते और विकासशील देशों की बात करें तो उनके पांच फीसदी की दर से बढ़ने की उम्मीद है, लैटिन अमेरिका में इनके 2.3 फीसदी और सब सहारा अफ्रीका के देशों के चार फीसदी की दर से बढ़ने की उम्मीद है।
सकारात्मक बात करें तो वस्तु एवं सेवा क्षेत्र की वृद्धि के 2023 के एक फीसदी से सुधरने की उम्मीद है। दोनों अंतरराष्ट्रीय संगठनों के मुताबिक 2024 में यह चार फीसदी हो सकती है।
भारत के बारे में आईएमएफ का कहना है कि वित्त वर्ष 2025 में यह 6.3 फीसदी की स्थिर वृद्धि हासिल करेगा जबकि ओईसीडी का अनुमान है कि वृद्धि दर 6 फीसदी रह सकती है। गत सप्ताह रिजर्व बैंक ने अपने ताजा आकलन में अनुमान जताया कि वित्त वर्ष 2024 में वृद्धि दर अनुमानित सात फीसदी से घटकर 6.4 फीसदी रह जाएगी।
वर्तमान वैश्विक संदर्भ में दोनों ही दरें सराहनीय हैं। सांख्यिकी पर आधिकारिक स्थायी समिति के अध्यक्ष और सरकार के पूर्व सांख्यिकीविद प्रणव सेन का एक उल्लेखनीय कथन यह है कि महामारी के बाद आधिकारिक जीडीपी वृद्धि आंकड़ों में सकारात्मक पूर्वग्रह देखने को मिल सकता है, क्योंकि उसकी आकलन प्रविधि में संगठित क्षेत्र के उपलब्ध आंकड़ों का इस्तेमाल करके डेटा की कमी वाले असंगठित गैर कृषि क्षेत्र के विकास के रुझान का आकलन किया जाता है, जहां कई संकेतक महामारी के बाद गंभीर नकारात्मक प्रभाव के कारण धीमे सुधार का संकेत देते हैं।
इस तर्क को अलग रखें तो भी उच्च राजकोषीय घाटे और सरकारी ऋण, बढ़ी हुई ब्याज दरों तथा कमजोर व्यापार और रोजगार नीतियों को देखते हुए उम्मीद है। मुझे लगता है कि वित्त वर्ष 25 में जीडीपी वृद्धि दर छह फीसदी रह सकती है।
आर्थिक आंकड़ों से इतर भू-राजनीतिक परिदृश्य भी काफी स्याह नजर आ रहा है। यूक्रेन में जंग जारी है और म्यांमार, सीरिया, कॉन्गो, सूडान, सोमालिया, नाइजीरिया और कई अन्य अफ्रीकी देशों में गृहयुद्ध की स्थिति बनी हुई है। बीते दो महीनों में हमास के भीषण आतंकी हमले के बाद इजरायल ने गाजा में भारी सैन्य कार्रवाई की है और अमेरिका ने उसका समर्थन किया है। इसमें 18,000 से अधिक नागरिक मारे जा चुके हैं। इनमें 40 फीसदी से अधिक बच्चे हैं। इसके अलावा हजारों लोग घायल भी हुए।
वैश्विक अर्थव्यवस्था पर इसका तात्कालिक असर भले ही सीमित हो, लेकिन हालात यकीनन बिगड़ रहे हैं। जलवायु परिवर्तन और ताप वृद्धि की बढ़ती समस्या के बीच गत माह संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और वैश्विक मौसम विभाग की ओर से प्रकाशित रिपोर्ट 2024 और उसके बाद निश्चित रूप से अंधकारमय भविष्य की बात कहती है। जरा इन बातों पर विचार कीजिए:
अक्टूबर तक के आंकड़ों के मुताबिक 2023 आधिकारिक तौर पर सबसे गर्म वर्ष होगा जो 1850 से 1900 तक के औद्योगिक युग के पहले के आधार से 1.4 डिग्री सेल्सियस अधिक होगा। करीब 30 फीसदी से अधिक दिनों तक सतह का औसत तापमान औद्योगिक युग के पहले के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहा। बीते नौ वर्ष भी आधिकारिक रूप से सबसे गर्म रहे हैं।
ग्रीनहाउस गैसों का स्तर भी रिकॉर्ड ऊंचाई पर है। समुद्री सतह का तापमान और समुद्री जल स्तर बढ़ रहा है। अंटार्कटिक में बर्फ रिकॉर्ड निचले स्तर पर है। वर्ष 2013 से 2022 के बीच समुद्री सतह में इजाफे की दर 1993 से 2002 तक की अवधि से दोगुनी रही।
बिना शर्त राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान यानी एनडीसी के पूरे और सतत क्रियान्वयन से दुनिया तापवृद्धि को 2.9 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की राह पर आ जाएगी। अतिरिक्त क्रियान्वयन और सशर्त एनडीसी की देखभाल से तापवृद्धि को 2.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखा जा सकेगा।
इन सबसे ऊपर अगर विशुद्ध शून्य के सभी वचनों का मान रखा जाता है, तो तापवृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस तक रोका जा सकता है। परंतु इनमें विश्वसनीयता की कमी है, क्योंकि जी20 देशों में से कोई भी फिलहाल उत्सर्जन कटौती में इसका पालन नहीं कर रहा है।
तमाम सरकारों की बात करें तो अभी तापवृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के बजाय वे 2030 तक जीवाश्म ईंधन उत्पादन दोगुना करने की योजना पर काम कर रही हैं। धन, नियोजन और क्रियान्वयन क्षमता की कमी के कारण अनुकूलन में अभी वक्त लग रहा है।
हाल में संपन्न कॉप28 के चलते इनमें कोई परिवर्तन आने की संभावना नहीं है। संक्षेप में, ऐसा लगता है कि पेरिस में 2015 में हुए समझौते के अनुरूप तापवृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना मुश्किल होगा। यहां तक कि दो डिग्री भी बहुत दूर की कौड़ी है।
उन्नत तकनीकी हस्तक्षेप तथा गंभीर प्रयासों की मदद से तापवृद्धि को 2-2.5 फीसदी तक रोकना संभव हो सकता है। यह स्थिति 2.5-3 डिग्री वृद्धि से बेहतर होगा, लेकिन दुनिया की स्थिति वर्तमान से भी खराब होगी। वर्ष 2024 के नवंबर माह में ही अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव हैं।
अगर डॉनल्ड ट्रंप सत्ता में वापस आते हैं, तो भविष्य और धुंधला होगा, क्योंकि इस बार उनका पर्यावरण विरोधी, प्रवासी विरोधी, अंतरराष्ट्रीयकरण विरोधी और नस्लवादी रुख और मजबूत होगा। ऐसे में संभव है कि अमेरिकी सरकार के मौजूदा संतुलन पर हमला हो, अमेरिका नाटो से अलग हो जाए (खंड 5 से इनकार करके), विश्व बैंक, आईएमएफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों से वापसी करे, सभी कारोबारी वस्तुओं पर 10 फीसदी आयात शुल्क लग सकता है और जीवाश्म ईंधन के खनन और उत्पादन के लिए एक शिथिल व्यवस्था देखने को मिल सकती है।
ट्रंप जलवायु परिवर्तन पर यकीन नहीं करते। इस बीच हमने ताइवान और दक्षिण चीन सागर के संभावित विवाद की तो बात ही नहीं की।
(लेखक इक्रियर के मानद प्राध्यापक और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)