लैपटॉप आयात पर जो प्रतिबंध लगाया गया है वह चिंताजनक है क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के आयात पर प्रतिबंध 1991 के पहले के लाइसेंस -कोटा राज की नाकामियों को मुखर ढंग से हमारे सामने रखता है।
भारत में राज्य यानी सरकार की ‘दखलंदाजी’ फिर से बढ़ रही है। पिछले सप्ताह पर्सनल कंप्यूटर, लैपटॉप, टैबलेट आदि के आयात पर प्रतिबंध की घोषणा करके उसने एक बार फिर ऐसा किया है।
इससे पहले सरकार ने अपने कदम पीछे खींचते हुए उदार धनप्रेषण योजना (एलआरएस) के तहत स्रोत पर कर कटौती (टीडीएस) को 5 फीसदी से चार गुना बढ़ाकर 20 फीसदी कर दिया था।
वाजपेयी सरकार ने भारतीय नागरिकों को इस योजना के तहत यह सुविधा दी थी कि वे एक खास सीमा तक विदेशी मुद्रा धनराशि विदेश में व्यय कर सकें या वहां निवेश कर सकें। अब इसमें क्रेडिट कार्ड के व्यय को भी शामिल कर दिया गया और विरोध होने पर अलग-अलग सीमा श्रेणी तथा लागू होने की तारीख तय की गईं।
हमने सन 1991 के बाद से तीन दशक अतीत के ऐसे ही बुरे विचारों को भुलाते हुए बिताए हैं। ऐसे कई और अवसर आए। उदाहरण के लिए गैर बासमती चावल के निर्यात पर अचानक प्रतिबंध लगाना जिसके चलते वैश्विक बाजारों में भारत की विश्वसनीयता को लेकर चिंता उत्पन्न हो गई।
कृषि जिंसों के मामले में दिए जाने वाले तर्कों को चुनौती देना मुश्किल काम है क्योंकि यह खाद्य सुरक्षा से जुड़ा मामला है इसलिए इस बात को यहीं छोड़ देते हैं। इस बीच हम कुछ अन्य उदाहरण चुन सकते हैं। मसलन, सोलर पैनल के आयात (ज्यादातर चीन से होने वाला) पर रोक। उसके बाद कहा गया कि यह प्रतिबंध सार्वजनिक उपक्रमों पर लागू नहीं होता।
क्या इसका अर्थ यह था कि सरकारी उपक्रम आसानी से इसका आयात कर सकते हैं और निजी उपयोगकर्ता को उनसे भारत में इन्हें खरीदना होगा? आप देखेंगे कि हर स्तर पर सरकार की भूमिका है। भारत पाकिस्तान और नेपाल से कुछ नहीं खरीदता था और भूटान की बात करें तो वहां से आयात नगण्य है।
ऐसे में हर किसी को मालूम था कि यह प्रतिबंध चीनी वस्तुओं पर लगाया गया है। उसी वर्ष गलवान घाटी वाली घटना घटी थी और इस बात से सभी उत्साहित थे। 2022 में सोलर पैनल को भी सूची में शामिल कर दिया गया। 2023 में सरकारी कंपनियों को इस प्रतिबंध से छूट दे दी गई। इस बीच चीन के साथ हमारा व्यापार घाटा बढ़ता गया।
ताजा मामले की बात करें तो हमें बताया गया कि लैपटॉप-टैबलेट के आयात को सीमित करने का लक्ष्य है घरेलू निर्माण को बढ़ावा देना। परंतु अगले ही दिन कहा जाने लगा कि ऐसा राष्ट्रीय सुरक्षा के नजरिये से किया गया। एक राज्य के होने का अर्थ ही क्या है अगर उसमें यह सांविधिक या नैतिक अधिकार ही नहीं हो कि वह अपने नागरिकों को बता सके कि उनके लिए क्या अच्छा होगा तथा किन चीजों से उनका जीवन बेहतर होगा तथा देश अधिक सुरक्षित होगा? एक बार जब राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला इसमें शामिल हो गया तो बात खत्म।
भारत में आयात प्रतिबंधित वस्तुओं का मूल्य गत वित्त वर्ष में 8.8 अरब डॉलर तक पहुंच गया। इसमें से 5.1 अरब डॉलर से अधिक यानी 58 फीसदी वस्तुएं चीन से आती थीं। कैसे कोई भारतीय, खासकर ऐसे लोग जिन्होंने मुक्त व्यापार, खुले बाजार और बीते दशकों में सुधार की हिमायत की हो, वह राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों के खिलाफ बात कर सकता है? वह भी एक ऐसे युग में जब पश्चिमी दुनिया हुआवेई तथा अन्य चीनी टेक/कम्युनिकेशन प्लेटफॉर्म्स के खिलाफ कदम उठा रही है।
उन पश्चिमी देशों में भी सभी भारत के मित्र ही हैं। बात जब राष्ट्रीय सुरक्षा की होती है तो भारतीय अपनी सरकार पर भरोसा करते हैं और खामोश रहते हैं। परंतु यह चुनौती केवल इतनी भर नहीं है कि चीन आपके मकान मालिक या किरायेदार के लैपटॉप में चुपके से कुछ डाल सकता है। सोशल मीडिया पर आए दिन देश के शीर्ष वैज्ञानिक संस्थानों, खासकर रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन की प्रयोगशालाओं में महत्त्वपूर्ण लोगों के दौरों की तस्वीरें आती रहती हैं।
ध्यान से देखने पर वहां चीन में बने सीसीटीवी नजर आ ही जाते हैं। हिकविजन उनमें सबसे प्रमुख ब्रांड है। हम जैसे लोग जो तकनीक के बारे में ज्यादा नहीं जानते उनके सामने भी यह बात स्पष्ट है कि ये कैमरे ऐसे नेटवर्क से जुड़े हैं जो इन अहम और संवेदनशील जगहों की सूचनाएं एकत्रित और भंडारित करते हैं। जरूरी नहीं कि सरकारी या वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों में सबकुछ संवेदनशील या गोपनीय ही होता हो लेकिन ऐसे तो हमारे लैपटॉप, पर्सनल कंप्यूटर या टैबलेट में दर्ज हमारे परिजनों की तस्वीरें और वीडियो भी संवेदनशील नहीं होते।
जब व्यापार को रणनीति का जरिया बनाना हो तो राष्ट्रीय सुरक्षा कारगर उपाय साबित होती है। भारत का अब तक का अनुभव यही रहा है कि जब आयात पर प्रतिबंध लगाने के पीछे सोच घरेलू विनिर्माताओं के माध्यम से भरपाई करने की होती है तब हर बार हमें निराशा हाथ लगती है।
दशकों तक हमने वाहनों का आयात नहीं होने दिया और हम कार के नाम पर ऐंबेसडर और फिएट तक और स्कूटर के मामले में बजाज, लैंब्रेटा तक सीमित रहे। खुलापन आने के बाद दुनिया भर की कंपनियां आईं और प्रतिस्पर्धा शुरू हुई। अब भारत दुनिया के शीर्ष वाहन निर्यातकों में शामिल है। वहीं भारतीयों को ऐसे वाहन मिले जिनके बारे में वे शायद सोच भी नहीं सकते थे।
कंप्यूटरों के आयात पर रोक संबंधी ताजा फैसला खास चिंता का विषय है क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के आयात पर रोक सन 1991 के पहले के लाइसेंस-कोटा राज की नाकामी को प्रबल ढंग से सामने रखती है। इंदिरा-राजीव के समय यानी लाइसेंस-कोटा राज में किसी विदेशी को यह अनुमति नहीं थी कि वह भारत आए और यहां इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएं बनाए। आयात पर प्रतिबंध था और विनिर्माण भारत की सरकारी कंपनियों द्वारा ही किया जाता था।
यही वजह है कि कई राज्य सरकारों ने अपने उपक्रम स्थापित किए जो कोरिया से किट मंगाकर भारत में टेलीविजन और टू इन वन बनाते थे। इन्हें कोई खरीदना नहीं चाहता था और लोग प्रतीक्षा करते थे कि कोई अनिवासी भारतीय परिचित आए तो उससे ये चीजें मंगाई जाएं। या फिर कोई अफसरशाह विदेश से स्थानांतरित होकर आए। उस समय हवाई अड्डों की बैगेज बेल्ट ऐसी चीजों से लदी रहती थी।
सन 1991 के बाद दो साल में यह सिलसिला बंद हो गया। अब लैपटॉप और टैबलेट के साथ हम पुन: वैसे हालात बनाना चाहते हैं। विदेशी मुद्रा पर प्रतिबंध तो इलेक्ट्रॉनिक्स से भी अधिक था। न तो विदेशी मुद्रा देश में आ सकती थी, न जा सकती थी। पूर्व बैंकर और अब लेखक तथा निवेशक जयतीर्थ ‘जेरी’ राव अक्सर इस तथ्य की बात करते हैं कि समाजवाद के नाम पर कांग्रेस ने हम भारतीयों को पहले 8 डॉलर और बाद में 20 डॉलर रखने तक सीमित रखा। यानी हम विदेश यात्रा पर इतनी ही विदेशी मुद्रा ले जा सकते थे। हर श्रेणी के लिए एक तय सीमा था।
कोटे और प्रमाणपत्र के लिए रिजर्व बैंक जाना होता था। उदाहरण के लिए एक रिपोर्टर के रूप में रिजर्व बैंक ने मुझे एक पश्चिमी देश में रोज 250 डॉलर की इजाजत दी थी। इसी राशि में होटल, खाना, आना-जाना सब शामिल था। पड़ोसी देशों के लिए यह राशि केवल 150 डॉलर थी। क्रेडिट कार्ड केवल भारत और नेपाल में काम करते थे।
जाहिर है हम विदेश में कार तक किराये पर नहीं ले पाते थे। पासपोर्ट के आखिरी पन्ने पर इस बात का पूरा ब्योरा दर्ज किया जाता था कि हम कितने पैसे, लैपटॉप, टेप रिकॉर्डर समेत क्या-क्या ले जा रहे हैं। वापसी पर इसका मिलान किया जाता था।
सन 1991 के सुधार के बाद यह सब बंद हो गया। भारतीय क्रेडिट कार्डों का विदेशों में स्वीकृत होना एक बड़ा सुधार था और इससे भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा बढ़ी। पूर्व अफसरशाह और सन 1991 के बाद के सुधारों में अहम भूमिका निभाने वाले एन के सिंह ने अपनी पुस्तक ‘द पॉलिटिक्स ऑफ चेंज’ में इस बारे में विस्तार से बात की है।
वाजपेयी सरकार ने फरवरी 2004 में एक अहम कदम में भारतीयों को विदेशों में एक खास सीमा तक डॉलर में निवेश या व्यय करने या उसे वापस स्वदेश भेजने की इजाजत दी थी जो अब बढ़कर 2.50 लाख डॉलर हो चुकी है।
विदेशी विनिमय या आयात नियंत्रण/प्रतिस्थापन सुधारपूर्व के भारत के कई बुरे विचारों में से एक था। लब्बोलुआब यह है कि आयात प्रतिस्थापन का अर्थ है व्यापार से दूरी। वैचारिक, राजनीतिक और दार्शनिक तौर पर भी यह बहुत पुरानी सोच है। चीन समेत तेजी हासिल करने वाले हर देश की तरक्की का श्रेय व्यापार को है।
ऐसे समय में जब भारत इतने सुधार कर रहा है, मसलन संवेदनशील क्षेत्रों समेत कई क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर प्रतिबंध समाप्त करना। इसमें रक्षा उत्पादन से खुदरा क्षेत्र तक शामिल हैं लेकिन इस बीच बुरे विचारों की वापसी हो रही है। विक्टर ह्यूगो के कथन से हम वाकिफ हैं। उनसे माफी मांगते हुए हम आज यह कहने का साहस कर सकते हैं कि जिस बुरे विचार का समय आ गया हो, उसे कोई नहीं रोक सकता।