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अतीत के आईने में प्रगति मैदान की विरासत, जानें पूरा इतिहास

प्रगति मैदान में 123 एकड़ में निर्मित नए कॉम्प्लेक्स के हर कोने को नए तरह से संवारा गया

Last Updated- July 30, 2023 | 11:36 PM IST

इन दिनों शहरों में खूब बदलाव होता दिख रहा है। कहीं नए ढांचे तैयार हो रहे तो कहीं पुराने ढांचे की मरम्मत कर उन्हें अत्याधुनिक बनाया जा रहा है। पुराने ढांचे भले ही नए रंग रोगन में अत्याधुनिक सुविधाओं के साथ अपनी रोशनी बिखेरते दिख रहे हों मगर अक्सर उनके सफर की अपनी कहानी होती है, जिन्हें आमतौर पर सहेजने और संरक्षित करने पर कोई ध्यान नहीं देता। हालांकि उनमें से कई निजी और सार्वजनिक रिकॉर्ड में संग्रहालय और विरासत के तौर पर अब भी मौजूद हैं।

नई दिल्ली के प्रगति मैदान की कहानी भी बिल्कुल ऐसी ही है। बीते सप्ताह यह मैदान काफी चमक-दमक के साथ एक नए अवतार में पेश किया गया। अब जब आप इसके नए स्वरूप को देखेंगे तब इसकी पुरानी मूल संरचना से काफी बदला हुआ पाएंगे। 123 एकड़ में मौजूद इस कॉम्प्लेक्स के हर कोने को नए तरह से संवारा गया है।

यह नया अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनी एवं सम्मेलन केंद्र (आईईसीसी) भारत मंडपम, विश्व के शीर्ष दस प्रदर्शनी परिसरों में से एक है। यहां सात हजार लोगों के बैठने की व्यवस्था है जो ऑस्ट्रेलिया के सिडनी के ओपेरा हाउस से भी ज्यादा है। यह  अत्याधुनिक तकनीकों से भी लैस है। इसे देखकर ऐसा लगा कि भारत वास्तव में सितंबर में  आयोजित होने वाली जी20 शिखर सम्मेलन की बैठक से पहले गर्व के साथ इसे पेश करने की तैयारी में है।

कैसा है इतिहास

अगर अतीत में जाकर देखें तब पुराने प्रगति मैदान को फिर से देखा जा सकता है जहां दुनिया के कई देशों से लोग भारत में अपनी प्रौद्योगिकी, वैज्ञानिक और बौद्धिक उपलब्धियों का प्रदर्शन करने के लिए आते थे। यह वही स्थान था जहां भारतीय उद्योग जगत ने भी अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। सभी उम्र के दिल्लीवासी भी एक दिन की सैर के लिए इस जगह को चुनते थे।

पहले हर किसी की जुबां पर बस एक ही नाम होता था। व्यापार मेला लगा है? चलो प्रगति मैदान। पुस्तक मेला? चलो प्रगति मैदान। कोई फिल्म या नाटक देखना है या फिर किसी संगीत कार्यक्रम में शिरकत करना है? चलो प्रगति मैदान। (याद है पहले का वो मुक्ताकाश में हंसध्वनि और फलकनुमा थियेटर? या फिर वह शाकुंतलम हॉल जहां पुरानी फिल्में, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अन्य सिनेमा हॉल की तुलना में काफी कम कीमत में दिखाई जाती थीं।) बच्चों का बाहर घूमने का मन है? चलो प्रगति मैदान (अब वह अप्पू घर भी याद कर लें जो भारत का डिज्नीलैंड था और जिसका नाम साल 1982 के एशियाई खेलों का शुभंकर प्रतीक हाथी के बच्चे के नाम पर रखा गया था।)

प्रगति मैदान से करीब सात किलोमीटर दूर रहने वाले आदित्य, जो दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज में जाते थे और अब गुरुग्राम की एक कंपनी में हैं, वह कहते हैं, ‘शाकुंतलम थियेटर में शाम के वक्त फिल्में देखने का अपना ही मजा होता था। अच्छी फिल्में, सस्ते टिकट और कम भीड़।’ हाल ही में गुरुग्राम के दर्शकों से खचाखच भरे मल्टीप्लेक्स में ‘ओपनहाइमर’ फिल्म देखने वाले आदित्य ने कहा, ‘अब भारत में शायद ही कोई ऐसी जगह बची हो जो कलात्मक हो मगर व्यावसायिक न हो।’

राज रेवाल 50 साल पहले बने प्रगति मैदान को ऐसे याद करते हैं जैसे यह कल की ही घटना हो। रेवाल ही वह वास्तुकार हैं जिन्होंने प्रगति मैदान और इसके प्रदर्शनी स्थल, प्रतिष्ठित हॉल ऑफ नेशंस जैसी संरचना का डिजाइन तैयार किया था जो भारत की पहली बिना खंभे वाली इमारत थी और जिसे फिर दुनिया के किसी और देश ने तैयार करने के प्रयास नहीं किए।

यह वर्ष 1970 की बात थी। इसके ठीक दो वर्ष बाद ही भारत की आजादी के 25 साल पूरे होने वाले थे। देश इस अहम पड़ाव को एक युवा देश के रूप में मनाना चाहता था और दुनिया भर में अपनी पहचान बनाने के लिए प्रतिबद्ध था। इसी इरादे से ‘एशिया 72’ का आयोजन किया जाना था जिसमें दुनिया भर के उद्योग यहां होने वाले अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेला में शिरकत करने वाले थे। इसके लिए एक बड़े स्थल की जरूरत थी और ऐसे में प्रगति मैदान बनाने का ख्याल आया।

पेरिस से फोन पर बात करते हुए 88 साल के रेवाल बताते हैं, ‘इसका डिजाइन बनाने के लिए एक वास्तुशिल्प प्रतियोगिता थी। मैं उस वक्त 35 साल का था और मैं इससे दो साल पहले पेरिस में लोहे वाले भवन का ढांचा तैयार करने का काम करता था।’ उन्होंने सोचा कि क्या इस तरह का प्रयोग दिल्ली जैसी गर्म जगह पर किया जा सकता है और फिर 86 मीटर चौड़ा और 100 फुट ऊंचा हॉल ऑफ नेशंस बनकर तैयार हुआ। वह कहते हैं कि यह भारत की आशा और शक्ति का प्रतीक था। पहले सभी ढांचे लोहे में ही तैयार किए जाते थे मगर उन्हें तुरंत पता चल गया कि जिस तरह के लोहे के ट्यूब की जरूरत होगी वह भारत में नहीं मिलेगी। चंडीगढ़ का डिजाइन बनाने वाले स्विस-फ्रांसीसी वास्तुकार ली कार्बुजिए कहा करते थे, ‘इसलिए मैंने कंक्रीट के बारे में सोचा क्योंकि भारत में कंक्रीट आसानी से उपलब्ध थे।’

रेवाल प्रतियोगिता जीत गए, लेकिन इस बात पर संदेह बरकरार था कि क्या डेढ़ साल में इस तरह की इमारत तैयार हो जाएगी। स्ट्रकचरल इंजीनियर और डिजाइनर महेंद्र राज इसमें शामिल हुए। इस बीच रेवाल ने अपनी फीस का कुछ हिस्सा दुनिया की यात्रा करने और इस तरह की अन्य संरचनाओं के बारे में पता लगाने पर खर्च किया। वह कहते हैं, ‘मैंने इटली में एक कंक्रीट से बंधा हुआ एक ढांचा देखा। हालांकि यह बहुत छोटा था मगर मुझे यकीन हो गया कि हम जो कर रहे हैं वह सही है।’ फिर पूर्वनिर्मित संरचनाओं की जानकारी रखने वाले मुख्य अभियंता जोसेफ दुरई राज ने एक प्रारूप तैयार किया और इस तरह इसका काम शुरू हो गया।

अपनी युवा टीम के साथ साइट पर प्रतिदिन लगभग 20 घंटे बिताने वाले रेवाल कहते हैं, ‘यह एक युद्ध के मैदान में होने जैसा था। श्रमिकों के करीब 300 से 400 परिवार भी साइट पर ही रहते थे क्योंकि उस वक्त यह तय किया गया था कि काम उसी जगह पर पूरा किया जाएगा।’ वह कहते हैं, ‘हमने एक खोखली लकड़ी का फ्रेम बनाया और उसमें कंक्रीट और स्टील की छड़ें डालीं जिसे शटरिंग या कॉफ्रेज कहा जाता है। इसमें काफी मेहनत लगती है। पश्चिमी देश तो ऐसा करने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे।’

उनका कहना है कि जो कुछ हुआ, वह ‘शानदार टीम के प्रयासों’ की वजह से हुआ और यह वास्तव में बेहतर श्रम बल की क्षमता का परिणाम था। वह कहते हैं, ‘हम अब आत्मनिर्भर शब्द का उपयोग कर रहे हैं। यह वास्तव में कुछ ऐसा ही था। इसे बारीक संभावित गणना के आधार वाली संरचना के तौर पर तैयार किया गया था लेकिन यह पूरी तरह हस्तनिर्मित था।’

हॉल ऑफ नेशंस के साथ प्रगति मैदान का उद्घाटन उन श्रमिकों ने किया जिन्होंने इसके लिए काम किया था और इनमें दो श्रमिक, एक पुरुष और एक महिला श्रमिक शामिल थीं। इसका उद्घाटन 3 नवंबर, 1972 को, एशिया’72 से पहले किया गया था। रेवाल कहते हैं, ‘एक सप्ताह पहले तक किसी ने नहीं सोचा था कि यह समय पर तैयार हो जाएगा, लेकिन देश में शादी वाले घर में होने वाले काम की तरह ही साबित हुआ।’

इसे दिल्ली के सामाजिक जीवन का केंद्र, शहरी क्षेत्र का विशेष स्थान बनने में ज्यादा समय नहीं लगा। प्रगति मैदान की स्थापना और एशिया’72 मेले की शुरुआत करके भारत और दुनिया के बीच व्यापार को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वालों में मोहम्मद यूनुस खान थे।

तुर्की, इंडोनेशिया, इराक और स्पेन में राजदूत रहे यूनुस खान ने भारतीय व्यापार मेला प्राधिकरण का नेतृत्व किया, जिसे अब भारत व्यापार संवर्धन संगठन (आईटीपीओ) के रूप में जाना जाता है और जो देश के बाहरी व्यापार को बढ़ावा देने के लिए सरकार की प्रगति मैदान, मुख्यालय वाली नोडल एजेंसी है। पिछले कुछ वर्षों में, इटली, जर्मनी, जापान, रूस, केन्या, ईरान, ओमान, ब्रुनेई  हर जगह से प्रतिनिधियों और व्यापारिक प्रतिनिधियों ने यहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है।

एशिया’72 के आयोजन के एक दशक बाद जब भारत ने एक और बड़ी इवेंट, एशियाई खेलों की मेजबानी की तब इसके संचालन और लॉजिस्टिक्स से जुड़े तालमेल के लिए नियंत्रण कक्ष, प्रगति मैदान में ही स्थापित किया गया था। एशियाई खेलों के सुचारु आयोजन सुनिश्चित करने के लिए गठित एक विशेष आयोजन समिति का नेतृत्व तत्कालीन सांसद राजीव गांधी कर रहे थे जिन्हें यह जिम्मेदारी मिली थी। यह राजीव गांधी का पहला हाई-प्रोफाइल सार्वजनिक कार्य था। अरुण नेहरू और अरुण सिंह की सहायता से उन्होंने प्रगति मैदान में बने एक कार्यालय से काम किया।

नाम न छापने की शर्त पर एक वास्तुकार ने प्रगति मैदान का ब्योरा देते हुए कहा, ‘भारत के समावेशी माहौल और लोगों का स्वागत करने के उत्साह को देखते हुए यह एक मेले के मैदान की की तरह था जो काफी लंबे समय तक अपनी आभा बरकरार रखने में कामयाब रहा और यहां विशेष तरह के पविलियन जैसे कि बंगाल, राजस्थान, ओडिशा के विशेष पविलियन थे।’

वह उन दिनों को याद करते हैं जब वह वास्तुकला के एक छात्र के रूप में यहां जाया करते थे और वह अपने सहपाठी के साथ यहां की इमारतों का अध्ययन किया करते किया करते थे। वह कहते हैं, ‘सभी लोगों की पसंदीदा इमारतें थीं जैसे कि राज रेवल का हॉफ ऑफ नेशंस, जोसफ ऐलन स्टीन की रचनात्मकता, नेहरू पविलियन, हॉल ऑफ इंडस्ट्रीज आदि।’ इन सभी इमारतों में पारंपरिक भारतीय वास्तुकला के साथ आधुनिक डिजाइन का मिश्रण था।

वर्ष 2017 में इन इमारतों को ध्वस्त कर दिया गया जिससे कई लोगों को बेहद आश्चर्य हुआ और लोग बेहद निराश भी हुए। हालांकि, हॉल ऑफ नेशंस के मॉडल, म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट (न्यूयॉर्क), सेंटर पोम्पिडो (पेरिस) और एम+ (हॉन्ग कॉन्ग) में संरक्षित किया गया है। रेवाल को उम्मीद है कि एक दिन हॉल ऑफ नेशंस कॉम्प्लेक्स का पुनर्निर्माण किया जाएगा जिसकी तारीफ एक समकालीन स्मारक के रूप में दुनिया के प्रमुख संग्रहालयों ने की है।

इसका पुनर्निर्माण बार्सिलोना पविलियन की तरह मुमकिन है जो 1929 में स्पेन में अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनी के लिए बनाई गई एक आधुनिक क्लासिक इमारत थी जिसे 1930 में ध्वस्त कर दिया गया था और फिर दोबारा इसका पुनर्निर्माण 1986 में किया गया। फिलहाल, प्रगति मैदान का इतिहास अभिलेखों, संग्रहालयों और लोगों की स्मृतियों में दर्ज है।

First Published - July 30, 2023 | 11:36 PM IST

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