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सोलहवें वित्त आयोग की राजनीतिक चुनौतियां, बुनियादी मुद्दों पर विचार आवश्यक

सोलहवां वित्त आयोग जल्द ही गठित किया जाएगा और भारत सरकार की ओर से उसका अ​धिकार क्षेत्र तय किया जाएगा।

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रथिन रॉय   
Last Updated- October 17, 2023 | 11:13 PM IST

केंद्र सरकार को वित्त आयोग (Finance Commission) का गठन करते समय ध्यान में रखना चाहिए कि सौहार्दपूर्ण अंतर-सरकारी राजकोषीय संबंधों के मामले में कुछ बुनियादी मुद्दों पर विचार करना आवश्यक है। बता रहे हैं रथिन रॉय

सोलहवां वित्त आयोग (16th Finance Commission) जल्द ही गठित किया जाएगा और भारत सरकार की ओर से उसका अ​धिकार क्षेत्र तय किया जाएगा। यहां ‘सोलहवां’ शब्द बताता है कि क्रमबद्ध ढंग से यह एक स्थिर प्रक्रिया रही है लेकिन हकीकत इसके विपरीत है। भारत में अंतर-सरकारी राजकोषीय संबंधों की बात करें तो फिलहाल वह संस्थागत और राजनीतिक प्रतिस्पर्धा तथा उभरते ढांचागत रुझानों से ग्रस्त है जो यथास्थिति को अव्यावहारिक बना देता है।

चौदहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट ने राज्यों को किए जाने वाले कोष के हस्तांतरण में उल्लेखनीय इजाफा किया है और अधिकांश अनुदानों को समाप्त कर दिया है। केंद्र सरकार ने इसे स्वीकार कर लिया और सहकारी संघवाद को बढ़ावा देने का प्रयास किया। समय बीतने के साथ ही इस सिलसिले को पलट दिया गया।

योजना आयोग को समाप्त किए जाने के बाद केंद्रीय वित्त मंत्रालय को पूंजी अनुदानों पर सर्वोच्च ​विवेकाधीन अधिकार मिल गया। केंद्र सरकार राज्यों के साथ अपने व्यवहार में कहीं अधिक आदेशात्मक और अधिनायकवादी हो गई हैं।

इस प्रक्रिया में राजनीतिक संबद्धता बहुत कम है और यह अफसरशाही से संचालित है। इसके अलावा इसके कदम कमजोर अधिनायकवादी व्यवस्था का भी संकेत देते हैं। इस संकेत पर हाल ही में उस समय बल पड़ा जब प्रधानमंत्री की कुछ पसंदीदा कल्याण योजनाओं में दिक्कतों को उजागर करने वाले सरकारी अंकेक्षण अधिकारियों के ​तबादले कर दिए गए। जबकि इन दिक्कतों के लिए जिम्मेदार अफसरशाह बच निकले। मजबूत राजनीतिक सत्ता वाला कोई भी प्रधानमंत्री इस प्रकार अफसरशाही का पक्ष नहीं लेगा।

कमजोर सत्तावादी प्रतिष्ठान दमनकारी शक्तियों का भी प्रयोग करते हैं जबकि उन्हें ऐसे दुरुपयोग के हानिकारक परिणामों के बारे में अधिक जानकारी नहीं होती। युवाओं, बुजुर्गों और बीमारों को बंदी बनाने या बौद्धिकों अथवा विचारकों को प्रताड़ित करने जैसे कदम उठाने पर कोई तात्कालिक असर नहीं देखने को मिलता है लेकिन अंतर-सरकारी संबंधों के मामले में इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।

पंद्रहवें वित्त आयोग का अ​धिकार क्षेत्र एक तरह से शर्मिंदगी का विषय था। इसे एक अफसरशाह द्वारा तैयार किया गया था जिसके पास राजनीतिक बारीकियों की पर्याप्त समझ नहीं थी। इसमें मुफ्त उपहारों और राज्यों द्वारा किए जाने ‘बेकार’ व्यय की बात की गई और पैसे को रक्षा जैसे केंद्रीय व्यय के लिए बचाने की बात की गई।

जनसंख्या के मुद्दे पर भी इसने एक नई बहस को जन्म दे दिया। अगर उस रिपोर्ट की वजह से बड़ा राजनीतिक तूफान नहीं आया तो इसका श्रेय आयोग और बेहतरीन अंग्रेजी में तैयार रिपोर्ट को ही दिया जाना चाहिए। इस बार हालात अलग हैं और काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है। विवाद के कई विषय हैं लेकिन इनमें से तीन खासतौर पर महत्त्वपूर्ण हैं।

पहली बात, केंद्र सरकार की वित्तीय स्थिति कमजोर है। उसका राजकोषीय घाटा अब तक के उच्चतम स्तर पर है। आर्थिक वृद्धि में धीमापन है और वह समावेशी नहीं है। कर राजस्व में इजाफा करने और सार्वजनिक परिसंपत्तियों को बेचने की कोशिशों में नाकामी हाथ लगी है।

कुल सरकारी पूंजीगत व्यय स्थिर रहा है। ऐसे में सरकार राजस्व जुटाने या परिसंपत्तियों की बिक्री में कामयाब नहीं रही और ऐसे में ऋण का स्तर भी इतने ऊंचे स्तर पर जा रहा है जहां वृहद आर्थिक स्थिरता भी भरपाई करने में सक्षम नहीं होगी। इस हालत से निपटने के लिए भारत सरकार व्यवस्थित ढंग से राज्यों को कोष में उनके उचित हिस्से से वंचित कर रही है।

सकल कर राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी निरंतर कम हो रही है क्योंकि सरकार उपकरों और अधिभार का सहारा ले रही है। कर दर बढ़ाने या नए कर लगाने की जगह इनका इस्तेमाल किया जा रहा है क्योंकि इन्हें राज्यों के साथ साझा नहीं किया जाता। केंद्रीय शक्ति के इस गलत इस्तेमाल ने अंतर-सरकारी राजकोषीय संबंधों में तनाव पैदा किया है।

दूसरी और शायद सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह उस राजनीतिक सहमति पर सवाल उठाता है जो भारत की राजकोषीय सुदृढ़ता की पहचान रहा है। उस फॉर्मूले के मुताबिक किस राज्य को कर राजस्व में कितना हिस्सा मिलेगा इसका सबसे अधिक भार (45 और 55 फीसदी के बीच) सन 1950 के बाद से ही राज्य की प्रति व्यक्ति आय के उलट होता है। जो राज्य जितना गरीब होता है उसे उतनी अधिक हिस्सेदारी मिलती है।

यह बात उल्लेखनीय है कि 70 वर्षों में अमीर राज्यों ने कभी इस पर आपत्ति नहीं की। परंतु आज प्रति व्यक्ति आय में बहुत अधिक अंतर आ गया है। उत्तर प्रदेश नेपाल से भी गरीब है और वहां गरीबी और मानव विकास सूचकांक तो अत्यधिक मुश्किलों से जूझ रहे अफ्रीकी देशों के समान हैं। परंतु तेलंगाना और कर्नाटक तेजी से प्रगति कर रहे हैं।

तमिलनाडु और केरल की प्रति व्यक्ति आय इंडोनेशिया के समतुल्य है और इन राज्यों में अत्यधिक गरीबी न के बराबर है। वहां मानव विकास सूचकांक भी मध्यम से उच्च स्तर पर हैं। परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें इस सफलता के लिए दंडित किया जा रहा है क्योंकि आबादी के हिसाब से परिसीमन की तलवार उनके सर पर लटक रही है।

स्वास्थ्य और शिक्षा में आगे निवेश पर प्रस्तावित रोक के जरिये उन्हें भी राष्ट्रीय औसत के करीब ले आने का प्रयास है। केंद्र का सत्ताधारी दल जिसकी इन राज्यों में सीमित पहुंच है, वह भी इनके लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है।

अच्छे प्रदर्शन वाले राज्यों से धन को कम प्रदर्शन वाले राज्यों को हस्तांतरित करने वाले किसी भी फॉर्मूले को स्वकीार करना विवादास्पद होगा। यह इस बात पर निर्भर है कि पिछड़े राज्यों के प्रदर्शन में सुधार हो, न्यूनतम वैचारिक एकता हो और क्रूर बहुसंख्यक इच्छा को थोपने से बचा जाए। फिलहाल इनमें से कुछ भी होता नहीं दिखता और यह चिंता का विषय है।

तीसरी बात, वस्तु एवं सेवा कर की नाकामी से जुड़ी है। क्षतिपूर्ति उपकर को ऋण में बदलने का केंद्र का खराब रिकॉर्ड और एकीकृत जीएसटी के प्रश्न को हल करने में उसकी निरंतर विफलता तथा ‘अच्छे और साधारण (गुड ऐंड सिंपल)’ कर को प्रतिगामी, अप्रत्याशित और जटिल कर में बदल देने के कारण काफी असंतोष पैदा हुआ है। राज्यों ने ऐसे जीएसटी के लिए सहमत होने के क्रम में अपनी उल्लेखनीय स्वायत्तता दांव पर लगाई जो अब नाकाम नजर आ रहा है।

सौहार्दपूर्ण अंतर-सरकारी राजस्व संबंधों के लिए ये मुद्दे बहुत जरूरी हैं और केंद्र सरकार के लिए बेहतर यही होगा कि वह अपना दंभ त्यागकर राजनीतिक पूंजी का इस्तेमाल करे और सोलहवें वित्त आयोग तथा उसके अ​धिकार क्षेत्र को संवेदनशील ढंग से तैयार करे।

(लेखक ओडीआई, लंदन के प्रबंध निदेशक हैं)

First Published : October 17, 2023 | 11:13 PM IST