अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने हाल ही में इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट (IHD) के साथ मिल कर एक रिपोर्ट जारी की जिसके बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है। यह रिपोर्ट 2000 के बाद देश में रोजगार की स्थिति से संबंधित है।
रिपोर्ट में सार्वजनिक रूप से उपलब्ध सरकारी आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है लेकिन एक कदम आगे जाकर विभिन्न तरीकों से किए गए सर्वेक्षणों के परिणामों की तुलना भी की गई है और इसके नतीजे बहुत निराशाजनक हैं।
अगर रिपोर्ट लिखने वालों की व्याख्या को संक्षेप में पेश करें तो: देश की श्रम शक्ति में कोई भी ढांचागत बदलाव गहरी समस्याओं से ग्रस्त रहा है। निश्चित तौर पर कुछ मामलों में मसलन कृषि पर निर्भरता के मामलों में संकेत यही हैं कि देश पीछे जा रहा है।
ढांचागत बदलाव से क्या तात्पर्य है? आर्थिक सिद्धांत और आर्थिक इतिहास दोनों यही बताते हैं कि गरीब देशों में कृषि के लिए आरक्षित श्रम की मात्रा काफी अधिक होती है। ये ऐसे लोग होते हैं जो इस क्षेत्र का आधुनिकीकरण नहीं होने के कारण अनुत्पादक हैं।
जब औपचारिक क्षेत्र के लिए रोजगार के अवसर खुलते हैं, खासकर व्यापक विनिर्माण क्षेत्र में तो कृषि क्षेत्र के इन श्रमिकों का कुछ हिस्सा यहां आता है। इससे विनिर्माण का उत्पादन बढ़ता है जबकि कृषि के उत्पादन में कोई खास कमी नहीं आती है क्योंकि ये श्रमिक वहां अनुत्पादक थे। कुल मिलाकर वेतन और आय में इजाफा होता है और समय के साथ देश अमीर होने लगता है।
आईएलओ-आईएचडी की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में ढांचागत बदलाव की गति धीमी रही है। वह देश में इस प्रक्रिया के बारे में दो प्रासंगिक तथ्यों की बात करती है। पहला, किसी भी कारण कृषि से बाहर जाने वाले श्रमिक प्रमुख तौर पर विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में जाते हैं। विनिर्माण क्षेत्र के रोजगार की हिस्सेदारी 12 से 14 फीसदी रहा। दूसरा, इसमें भी 2019 के बाद बदलाव आ गया क्योंकि कृषि क्षेत्र के रोजगार में काफी इजाफा हुआ।
कृषि क्षेत्र के अतिरिक्त श्रमिकों का सेवा क्षेत्र में शामिल होना कोई सहजता से हजम होने वाली बात नहीं है। सेवा क्षेत्र की प्रकृति में बहुत विविधता है। सड़क पर खाने पीने का स्टॉल लगाने वाले व्यक्ति से लेकर सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की दिग्गज कंपनियां तक इसमें शामिल होती हैं। परंतु कृषि ही वह क्षेत्र है जो श्रमिकों के खपत की क्षमता दिखाता है, न कि सेवा क्षेत्र।
विनिर्माण का मसला अलग है: व्यापक समझ यही है कि ग्रामीण भारत से शहरों में काम करने के लिए आने वाले श्रमिक विनिर्माण क्षेत्र में काम करने आते हैं। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर सस्टेनेबल एंप्लॉयमेंट के प्रमुख और अर्थशास्त्री अमित बसोले ने कृषि श्रमिकों के खपत के भारत के आंकड़ों की अन्य देशों से तुलना की।
उनके मुताबिक कम से कम 2019 तक प्रति व्यक्ति जीडीपी वृद्धि को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कृषि क्षेत्र से श्रमिकों के बाहर निकलने की स्थिति है लेकिन यही बात अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों के बारे में नहीं कही जा सकती है।
उन्होंने कहा कि कृषि क्षेत्र में श्रमिकों का अनुपात अपेक्षित से करीब 8.8 फीसदी अधिक है जबकि विनिर्माण के क्षेत्र में भारत में रोजगार हिस्सेदारी अनुमान से 9 फीसदी अधिक है। दूसरे शब्दों में कहें तो देश में अतिरिक्त श्रमिक गैर कृषि क्षेत्र में अनौपचारिक रोजगार का रुख कर रहे हैं, खासतौर पर विनिर्माण के क्षेत्र में।
परंतु इसकी गति भी अपेक्षाकृत तेज नहीं है। आईएलओ-आईएचडी की रिपोर्ट में इस स्थिति के पलटने की चिंता इन आंकड़ों पर आधारित है जिनमें कहा गया है कि कृषि क्षेत्र में रोजगार की हिस्सेदारी 2019 के 42.4 फीसदी से बढ़कर 2021 में 46.4 फीसदी हो गई और उसके बाद 2022 में यह गिरकर 45.4 फीसदी हो गया।
यह पूरी तरह महामारी के असर के कारण हुआ या नहीं यह देखना होगा। देश की श्रम योग्य आयु वाली आबादी कहां और किस तरह रोजगारशुदा है यह बात क्षेत्रवार हिस्सेदारी के लिए प्रासंगिक नहीं है। ढांचागत बदलाव की यह कमी व्यापक उपायों मसलन उत्पादकता और वेतन में भी नजर आई।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2012 और 2022 के बीच वेतनभोगी कर्मचारियों तथा स्वरोजगारशुदा कामगारों की वास्तविक मासिक आय में कमी आई। यह गिरावट ऐसा औपचारिक क्षेत्र दिखाती है जिसमें अतिरिक्त श्रमिकों की मांग नहीं है। यह ऐसे विकास मॉडल का प्रभाव है जो ऐसा औपचारिक क्षेत्र तैयार नहीं कर पाया जो कृषि क्षेत्र के अधिक श्रमिकों को अपनी ओर आकर्षित करता हो। ऐसे विकास मॉडल की अपनी सीमाएं होती हैं।
अगर विनिर्माण और व्यापक तौर पर समूचा औपचारिक क्षेत्र अधिक श्रमिकों को आकर्षित कर अपने साथ नहीं जोड़ सकता है तो औसत उत्पादकता में इजाफा नहीं होगा। इसमें इजाफा नहीं होता है तो वेतन और मांग भी नहीं बढ़ती।
परंतु निवेश के केंद्र के रूप में भारत का आकर्षण और हाल के वर्षों में उसका पूरा विकास मॉडल मांग पर आधारित रहा है। मुक्त व्यापार के प्रति अनिच्छा को देखते हुए यह आवश्यक है कि हम कम से कम घरेलू मांग में तेज वृद्धि लाने का प्रयास करें ताकि विनिर्माण में निवेश हो सके और मांग की पूर्ति हो सके। मांग में वृद्धि तब तक नहीं आएगी जब तक श्रम शक्ति में ढांचागत बदलाव नहीं आएगा।
जो सफलतापूर्वक विकसित हुए वे निर्यात बाजार आदि से मिली गति के कारण इससे निजात पाने में कामयाब रहे। अन्य संभावित उपाय भी हैं जो उठाए जा सकते हैं। रथिन राय ने इस अखबार में लिखा था कि नियामकीय और संस्थागत ढांचागत अवरोध समेकित मांग को प्रभावित करते हैं।
यानी भारत के करीब 30 करोड़ उपभोक्ताओं द्वारा उपभोग की जाने वाली वस्तुएं। ये ऐसे लोग हैं जो जीवन निर्वाह के स्तर से थोड़ा ही ऊपर हैं। ये ढांचागत बदलाव इन चीजों को जरूरत से ऊंची लागत पर रखते हैं और कम मेहनताने के साथ सीमित लोगों की पहुंच में होती हैं।
हाल के वर्षों में अंग्रेजी के ‘के’ अक्षर की आकृति वाले सुधार, ग्रामीण निराशा जैसी बातों का काफी जिक्र सुनने को मिलता है। इसके पीछे के आंकड़ों को कई तरह से पढ़ा जा सकता है। परंतु मेहनताने और रोजगार के आंकड़े सबसे कम अस्पष्ट हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश की आर्थिक वृद्धि का आकार बहुत संकीर्ण रहा है। इसका टिकाऊपन सीमित है और अधिकांश लोगों की जिंदगी बदलने में यह उतना योगदान नहीं कर पाती।
किसी न किसी वजह से मेहनताना, वृद्धि और रोजगार के मुद्दे चुनावों के केंद्र में नहीं हैं। राजनेताओं को अदूरदर्शी आर्थिक नीतियां बनाने देना दुर्भाग्यपूर्ण है। मध्य आय वाले जाल में उलझने के बजाय भारत निम्न मध्य आय के जाल में उलझ सकता है जो खराब स्थिति है। इन मुद्दों को अगली सरकार के एजेंडे में प्रमुखता से शामिल किया जान चाहिए।