यूरोपीय संघ (EU) का कार्बन बॉर्डर टैक्स (carbon border tax) न केवल भेदभाव पूर्ण है बल्कि त्रुटिपूर्ण सोच पर आधारित है। इसका उद्देश्य कार्बन उत्सर्जन कम करने का बोझ विकासशील देशों पर डालना है। बता रहे हैं रथिन रॉय
अंतरराष्ट्रीय लोक वित्त एक बार फिर चर्चा के केंद्र में आ गया है। अंतरराष्ट्रीय लोक वित्त के अंतर्गत वित्तीय साधनों का उपयोग कर लोक नीति एवं सार्वजनिक हितों से संबंधित लक्ष्य प्राप्त किए जाते हैं। पहले स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण खंडों पर व्यय बढ़ाने और ऋण राहत एवं सार्वजनिक हितों से जुड़े प्रावधान करने के लिए बहुपक्षीय अनुदान एवं रियायती ऋणों पर चर्चा होती थी।
मगर अब वर्तमान समय में संदर्भ बदल गए हैं। चर्चा भले ही बढ़-चढ़ कर हो रही है मगर जलवायु संरक्षण और विकास कार्यों में निवेश के लिए अनुदान एवं रियायती दरों पर ऋण से जुड़े प्रावधान आवश्यकता से बेहद कम हैं। मगर दुनिया के संपन्न देश जिस तेजी और तैयारी के साथ जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए वैश्विक कर एवं शुल्कों का प्रस्ताव दे रहे हैं वे नए और कुछ हद तक हैरान करने वाले भी लग रहे हैं।
दो प्रस्तावों- कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (सीबीएएम) और जहाजों के परिचालन से कार्बन उत्सर्जन पर प्रस्तावित कर- पर बात काफी आगे बढ़ चुकी है। सीबीएम यूरोपीय संघ में कुछ खास जिंसों के निर्यात पर लगाए जाने वाला कर है जिसका उद्देश्य इन वस्तुओं से होने वाले कार्बन उत्सर्जन और अगर ईयू में इनका उत्पादन होता तो उस स्थिति में होने वाले उत्सर्जन में लागत के अंतर को दूर करना है।
सरल शब्दों में कहें तो यह एक शुल्क बाधा है और इसका ढांचा निर्यातकों को कम कार्बन इस्तेमाल करने वाली विधियों को अपनाने के लिए प्रेरित करना है। अब यहां प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि फिर इन जिंसों के आयात पर ही प्रतिबंध क्यों नहीं लगा दिया जाए? ऐसा इसलिए नहीं हो सकता कि तब ईयू को इनके आयात के बिना गुजारा करना होगा मगर यह संभव है। इसका एक मतलब यह भी है कि निकट अवधि में इस शुल्क से ईयू को अधिक राजस्व मिलेगा या निर्यातकों को लागत कम करने के लिए मुनाफा मार्जिन या कामगारों का वेतन कम करना होगा।
यह अवधारणा कई आधारों पर त्रुटिपूर्ण है। इस प्रस्ताव के पीछे का अर्थशास्त्र भी कारगर नहीं लग रहा है क्योंकि किसी बाहरी प्रभाव पर शुल्क तभी इससे दूर (बाहरी प्रभाव को) करता है जब यह उस बिंदु पर लगता है जहां यह प्रभाव में आता है। मगर इस मामले में शुल्क बिक्री स्थान (पाइंट ऑफ सेल) पर लगाया जा रहा है। उत्सर्जन के तुलनात्मक आंकड़े का सत्यापन भी विवादों के घेरे में आ सकता है।
सीबीएएम मोटे तौर पर कच्चे माल पर लगाया जाता है, न कि तैयार उत्पादों पर। इन उत्पादों का निर्यात अफ्रीका एवं यूरोप के अगल-बगल के देशों से होता है। ये देश पहले कभी भी या अब प्रदूषण फैलाने वालों में शामिल नहीं रहे हैं।
जहाजों की आवाजाही से होने वाला उत्सर्जन पर प्रस्तावित कर इस तर्क पर आधारित है कि जहाजरानी सेवाओं से होने वाले कार्बन उत्सर्जन का कोई हिसाब-किताब नहीं रहता है। कर लगाने से दो तरीकों से उत्सर्जन कम हो सकता है।
पहला तरीका तो यह है कि इससे जहाजों की आवाजाही कम हो जाएगी और दूसरा तरीका यह होगा कि कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली तकनीक से लैस जहाजों के इस्तेमाल को बढ़ावा मिलेगा।
इस कर का तात्कालिक प्रभाव वस्तुओं के निर्यात के लिए जहाजों की आवाजाही की मांग में उतार-चढ़ाव पर निर्भर करेगा। अगर मांग में बदलाव नहीं दिखा तो उत्सर्जन पर निकट अवधि में कोई सकारात्मक असर नहीं होगा। मगर जिन वस्तुओं का निर्यात होगा वे महंगी हो जाएंगी और इस कर का प्रभाव निर्यात की जाने वाली वस्तुओं के उपभोक्ताओं पर होगा।
कुछ चीजें जैसी समुद्र में भ्रमण कराने वाले जहाजों (क्रूज) आदि की मांग में खास कमी नहीं आएगी क्योंकि ऐसे जहाजों एवं महंगी नौकाओं का इस्तेमाल करने वाले धनी लोगों के लिए कीमतों में बढ़ोतरी कोई खास अंतर नहीं ला पाएगी। अन्य चीजें महंगी हो जाएगी और इसका भुगतान गरीब या अमीर दोनों तरह के उपभोक्ताओं को करना होगा। कुल मिलाकर, कर का असर एक समान नहीं होगा।
यह कर द्वीपीय देशों एवं ईंधन, कृषि वस्तुओं और आवश्यक खनिज जैसे सामान के आयातक देशों के साथ पक्षपात करेगा। यह उन देशों के साथ भी एक तरह से भेदभाव होगा जो निर्यात की लागत बढ़ाकर निर्यात आधारित आर्थिक वृद्धि से स्वयं को औद्योगीकरण के मार्ग पर ले जाना चाहते हैं।
इस कर के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने के लिए कुछ उपायों के प्रस्ताव जरूर दिए गए हैं। इनमें इन शुल्कों से जुटाई गई रकम का कुछ हिस्सा विकासशील देशों के बीच बांटना भी शामिल है। मगर जहाजों की आवाजाही पर कर और सीबीएएम का असर गरीब देशों पर होगा। एकमात्र ठोस प्रस्ताव यह है कि इन देशों को कम कार्बन उत्सर्जन तकनीक अपनाने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन दिया जाए।
अगर यह पूरी तरह अनुदान के जरिये किया जाता तो फिर इन शुल्कों की कोई जरूरत ही नहीं होती! किसी भी दृष्टि से अनुदान की पेशकश नहीं हो रही है और केवल ऋण देने की बात की जा रही है। इससे एक बार फिर हरित ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाने का बोझ निम्न आय वर्ग वाले देशों पर डाल दी जाएगी।
मैं पूरे उत्साह से इन दोनों शुल्कों की हिमायत करूंगा बशर्ते इनमें तीन महत्त्वपूर्ण संरचनात्मक तत्त्व जोड़ दिए जाएं। पहली बात, ये तत्त्व काफी पहले, उदाहरण के लिए, 1850 से लागू किया जाएं। दूसरी बात, शुल्क ऐतिहासिक एवं वर्तमान सैन्य उत्सर्जन पर लागू हो और तीसरी बात, इन वस्तुओं के निर्यात से प्राप्त राजस्व उन देशों को दे दिए जाएं जो कभी धनी देशों के उपनिवेश रहे थे। ये उपाय अमल में लाए जाने पर ही ठोस नतीजा निकल पाएगा क्योंकि मौजूदा संकट ऐतिहासिक उत्सर्जन का नतीजा है, न कि मौजूदा समय की औद्योगिक गतिविधियों का।
ऐसा करने का यह मतलब होगा कि अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले देश सीबीएएम के लिए अधिक भुगतान करेंगे क्योंकि संपन्न देशों ने मुख्य रूप से एक दूसरे के साथ व्यापार किया था। इससे भारी भरकम राजस्व एकत्र होगा धनी देश मौजूदा उत्सर्जन की तुलना में कई गुना अधिक कार्बन उत्सर्जन कर चुके हैं।
उपनिवेशों से अत्यधिक संसाधनों का दोहन का समायोजन हो जाएगा और कार्बन उत्सर्जन कम करने की दिशा में भी मदद मिलेगी। यूरोप, जापान और अमेरिका को यह स्वीकार करना चाहिए कि विश्व युद्ध एवं अन्य युद्ध ने कार्बन उत्सर्जन को बढ़ाया है और इसके लिए उन्हें कोई शुल्क या मुआवजा भी नहीं देना पड़ा है। उन्हें सारा हिसाब चुकता करना चाहिए।
हम जानते हैं कि यह कभी नहीं होगा। संपन्न देश काफी पहले से हो रहे कार्बन उत्सर्जन की जिम्मेदारी नहीं लेंगे और न ही वे वर्तमान समय में इस समस्या से निपटने के लिए रियायती वित्त ही उपलब्ध कराएंगे। ये देश लगातार ऐसे मौके तलाश रहे हैं जब तेजी से उभरते एवं विकासशील देशों को कार्बन उत्सर्जन कम करने की दिशा में बढ़ने के लिए स्वयं ही वित्तीय संसाधनों का इंतजाम करना पड़े।
अंतरराष्ट्रीय कराधान में हालिया दिलचस्पी इस उद्देश्य की पूर्ति करता है। यही कारण है कि इस महीने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) में और धनी देशों के वित्त मंत्रियों एवं जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने की मांग करने वाले लोगों के बीच अंतरराष्ट्रीय कराधान चर्चा का प्रमुख विषय बन गया है।
(लेखक ओडीआई, लंदन में प्रबंध निदेशक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)