लैंगिक अंतर दूर करने के लिए व्यापक नीति तैयार की जानी चाहिए जिसमें राजकोषीय, प्रशासनिक, एवं नियामकीय उपायों के साथ लोगों में उपयुक्त संदेश प्रसारित का समावेश हो। बता रही हैं पूनम गुप्ता
वैश्विक स्तर पर श्रम बल में महिलाओं की औसत भागीदारी दर 50 प्रतिशत है, जबकि पुरुषों के मामले में यह अनुपात 80 प्रतिशत है। भारत में श्रम बल पुरुषों की भागीदारी का अनुपात वैश्विक स्तर के लगभग समान है परंतु, महिलाओं के मामले में यह बहुत ही कम यानी 30 प्रतिशत से भी कम है।
रोजगार में दीर्घकाल से चले आ रहे लैंगिक अंतर (जेंडर गैप या महिला-पुरुष अंतर) के विभिन्न बिंदुओं को स्पष्ट करने के लिए हाल में ही डॉ. क्लॉडिया गोल्डिन को अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया है। उनके शोध में कहा गया है कि कुछ शर्तें पूरी होने पर ही श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ती हैं।
उपयुक्त रोजगारों की उपलब्धता (उदाहरण के लिए सेवा क्षेत्र में), महिलाओं का अधिक शिक्षित होना, संतानोत्पत्ति के समय को लेकर निर्णय लेने का अधिकार, सामाजिक लांछना, भेदभाव पूर्ण कानून एवं अन्य संस्थागत पाबंदियों की समाप्ति, अनुकरण करने योग्य महिलाओं की मौजूदगी और परिवार के लालन-पालन के उत्तरायित्व की समाप्ति आदि ऐसी स्थितियां हैं, जो श्रम बलों में महिलाओं की भागीदारी का अनुपात निर्धारित करती हैं।
महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि केवल आर्थिक वृद्धि से लैंगिक अंतर कम नहीं हो पाया है। डॉ. गोल्डिन का शोध अमेरिका के आंकड़ों का इस्तेमाल करता है परंतु, उनका निष्कर्ष भारत एवं अन्य देशों के संदर्भों में पूरी तरह लागू होता है।
भारत में अर्थव्यवस्था तेजी से सेवा क्षेत्र आधारित हो रही है और शिक्षा में भी लैंगिक अंतर कम हुआ है मगर इसके बावजूद रोजगार में महिलाओं की भागीदारी दर पुरुषों की तुलना में पहले की तरह ही कम है।
इसका निहितार्थ यह है कि हमें उन संस्थागत एवं सामाजिक कारणों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो रोजगार में लैंगिक अंतर बढ़ाते हैं। इसके साथ ही महिलाओं के लिए रोजगार में प्रवेश अधिक सरल, सुरक्षित, लाभकारी एवं पेशेवर तौर पर फलदायक बनाने की दिशा में भी प्रयत्न होना चाहिए। यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि महिलाओं के परिवार एवं समाज उनके रोजगार में उतरने के निर्णय को अपना समर्थन दें।
परंतु इस मार्ग में कई चुनौतियां हैं। इसका रास्ता निकालने के लिए हमें व्यापक लैंगिक नीति तैयार करने की आवश्यकता है, जिसमें राजकोषीय उपाय, प्रशासनिक उपाय, नियामकीय उपाय, लोक संवाद और मानसिकता में बदलाव सभी प्रमुखता से शामिल किए जाते हैं। यह रणनीति निम्नलिखित प्रस्तावित उपायों के इर्द-गिर्द तैयार की जा सकती है।
पहली बात, भारतीय महिलाएं इसलिए औपचारिक श्रम बल का हिस्सा नहीं बन पाती हैं क्योंकि उनका सारा दिन बच्चों एवं परिवार की देखभाल में बीत जाता है। अगर युवा, बीमार एवं बुजुर्ग के लिए एक देखभाल अर्थव्यवस्था विकसित की जाए तो यह क्रांतिकारी बदलाव ला सकती है। इससे न केवल पुरुष एवं महिला दोनों के लिए रोजगार के प्रत्यक्ष अवसर पैदा होंगे बल्कि महिलाएं भी औपचारिक श्रम बल में भाग लेने के लिए उपलब्ध रहेंगी।
दूसरी बात, पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं से मिले साक्ष्य बताते हैं कि महिलाओं को आत्म-निर्भर एवं रोजगार के लिए तैयार रहने के लिए आवाजाही (मोबिलिटी) के साधनों की आवश्यकता होती है।
महिलाओं को अपने वाहन (साइकिल, बाइक, स्कूटर या कार कुछ भी) खरीदने एवं उन्हें चलाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए एवं इसके लिए उचित समर्थन भी दिया जाना चाहिए। वाहन खरीदने के लिए महिलाओं को कर छूट, आसान ऋण की सुविधा, सस्ती ब्याज दर और ड्राइविंग लाइसेंस एवं बीमा के लिए कम शुल्क की पेशकश की जानी चाहिए।
तीसरी बात, भुगतान आधारित रोजगार में महिलाओं की कम हिस्सेदारी की एक मुख्य वजह सुरक्षा का अभाव है। हमारे शहर एवं कार्यस्थल अवश्य सुरक्षित बनाए जाने चाहिए। सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक स्थलों पर अधिक संख्या में महिलाओं की उपस्थिति जरूरी है। सुरक्षा कर्मी, पुलिस बल और परिवहन चालक (बसों, वाहन, टैक्सी, मेट्रो एवं रेलगाड़ियों में) आदि पदों के लिए अधिक संख्या में महिलाओं की नियुक्ति की जरूरत होगी।
वर्तमान में भारतीय पुलिस बल में केवल 10 प्रतिशत महिलाएं हैं। यह अनुपात बढ़ाकर 30 प्रतिशत तक करने के लिए प्रयास किया जाना चाहिए और बाद में इसे पुरुषों के बराबर किए जाने का लक्ष्य निर्धारित किया जाना चाहिए। राजनीतिक एवं सामाजिक रूप से स्वीकार्य उपाय के रूप में केवल महिलाओं के लिए नए पद सृजित कर पुलिस बल का आकार बढ़ाया जा सकता है।
महिलाओं को शहरी एवं कस्बाई क्षेत्रों में सस्ते एवं सुरक्षित आवासीय सुविधा भी चाहिए। किराये के घर में अकेली रहने वाली महिलाओं के साथ लिंग आधारित भेदभाव अनिवार्य रूप से समाप्त होना चाहिए। सार्वजनिक जागरूकता अभियान और वर्तमान नियमन के बेहतर क्रियान्वयन से कामकाजी महिलाओं के लिए सुरक्षित एवं उपयुक्त आवास सुनिश्चित करने की प्रक्रिया पूरी की जा सकती है।
चौथी बात, हमें आर्थिक रूप से श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित करना चाहिए। सभी कामकाजी महिलाओं (अकेली, परिवार की प्रमुख या दोहरी आय वाली परिवारों की) के लिए करों में छूट के प्रावधान से मदद मिल सकती है। इससे पारिवारिक स्तर पर भी महिलाओं को समर्थन जुटाने में सहायता मिलेगी।
पांचवीं बात, हमें 40 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं के श्रम बल में प्रवेश को बढ़ावा देने के लिए अवश्य नए उपाय करने होंगे। डॉ. गोल्डिन के कार्य यह स्पष्ट करते हैं कि महिलाएं बच्चों के लालन-पालन के उत्तरदायित्व से मुक्त होने के बाद कार्य बल में दोबारा शामिल होती हैं। ऐसी महिलाएं स्वास्थ्य, सौंदर्य, शिक्षा, डिजाइनिंग, शोध एवं आतिथ्य जैसे सभी प्रकार के सेवा उन्मुखी क्षेत्रों में भागीदारी बन सकती हैं। वे नई पीढी के हुनरमंद कर्मियों को प्रशिक्षित करने की जिम्मेदारी भी उठा सकती हैं।
छठी बात, हमें शुरू से ही लड़के एवं लड़कियों में लैंगिक अंतर को लेकर किसी तरह का पूर्वग्रह नहीं पालने की सीख देनी चाहिए। खेल, ऐच्छिक कार्यों एवं स्कूल के बाद की गतिविधियों के माध्यम से यह कार्य किया जा सकता है। लड़कों को घरेलू कार्य एवं गतिविधियां सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और वर्तमान समय में इसकी जरूरत भी है। इसी तरह, लड़कियों को तकनीकी शिक्षा, वित्तीय साक्षरता, ड्राइविंग एवं आत्मरक्षा का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
सातवीं बात, हमें सार्वजनिक जीवन के सभी क्षेत्रों में नेतृत्व स्तर पर पुरुष एवं महिलाओं में असमानता को दूर करने की जरूरत है। नेतृत्व स्तर पर समानता हो तो महिलाओं के आगे बढ़ने का मार्ग और प्रशस्त हो जाएगा। मगर अफसोस की बात है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 76 वर्षों बाद भी नेतृत्व करने की भूमिका में महिलाओं की भागीदारी अपेक्षित स्तर पर नहीं रही है।
भारत में अब तक हुए 18 मुख्य आर्थिक सलाहकारों में एक भी महिला नहीं
उदाहरण के लिए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के अब तक 25 गवर्नरों में एक भी महिला नहीं रही है। 64 डिप्टी गवर्नरों में केवल तीन महिलाएं इस पद पर पहुंचने में सफल रही हैं। भारत में अब तक हुए 18 मुख्य आर्थिक सलाहकारों में एक भी महिला नहीं रही है।
देश के शीर्ष न्यायालय में अब तक एक भी महिला मुख्य न्यायाधीश नहीं हुई हैं। ऐसा नहीं है कि देश में काबिल महिलाओं की कमी है, बल्कि यह धारणा और महिलाओं को आगे बढ़ाने में गंभीरता के अभाव से जुड़ी समस्या है।
इन उपायों के अलावा हमें महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का ढांचा बदलकर इसका नाम मातृ एवं बाल विकास मंत्रालय रखना चाहिए और लिंग समानता के लिए अलग से एक मंत्रालय की स्थापना की जानी चाहिए। इस मंत्रालय का मुख्य मकसद महिलाओं के नेतृत्व में विकास होना चाहिए।
इन उपायों को अगर शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व का समर्थन मिले और लोगों के बीच उपयुक्त संदेश दिया जाए तो श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी को कम करने वाले सामाजिक एवं आर्थिक कारक दूर होते जाएंगे। लिंग समानता आर्थिक एवं मानवाधिकार दोनों से जुड़ा विषय है। अगर भारत को 2047 तक विकसित अर्थव्यवस्था बनने का सपना साकार करना है तो महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए ये उपाय करने होंगे।
(लेखिका एनसीएईआर की महानिदेशक हैं)