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राष्ट्र की बात: डीडीए का एकाधिकार और बाजार का बदला

गुरुग्राम और नोएडा से मिली चुनौती ने डीडीए के अहंकारपूर्ण एकाधिकार को खत्म कर दिया है।

Last Updated- December 18, 2023 | 12:31 AM IST
DDA

देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के विकास को समझने के लिए दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) का उदाहरण बहुत जानकारीपरक है। यह हमें बताता है कि क्या बदलाव हुआ है और क्या नहीं। यह बदलाव अच्छे के लिए है या बुरे के लिए।

सन 1957 में अपनी स्थापना के बाद से काफी समय तक डीडीए सर्वशक्तिमान रहा। उस दौरान दिल्ली में जमीन एवं उसके विकास पर उसका एकाधिकार था। बहुत कम समय में यह दिल्ली के लिए सोवियत शैली की एक विकास एजेंसी के रूप में विकसित हो गया।

आगे बताऊंगा कि आखिर क्यों मैं कई बार इसे दिल्ली विनाश प्राधिकरण कह कर पुकारता हूं। फिलहाल तो मैं इस बात से प्रसन्न हूं कि डीडीए ने अपने बनाए मकान बेचने के लिए चमकदार विज्ञापन जारी किए हैं। मैं इस बात से भी खुश हूं कि उसे ग्राहक तलाशने के लिए जूझना पड़ रहा है। इससे पता चलता है कि सत्ता तंत्र का पूरा समर्थन प्राप्त इस संस्था का अंत बाजार के हाथों किस प्रकार हो रहा है।

डीडीए कोई दो-चार मकान बेचने का प्रयास नहीं कर रहा है। शहरी मामलों के राज्य मंत्री कौशल किशोर ने गत वर्ष राज्य सभा को बताया था कि ऐसे मकानों की संख्या 40,000 से अधिक है। अनुमान है कि इन अनबिके मकानों की कीमत करीब 18,000 करोड़ रुपये है। यह स्थिति उन डीडीए फ्लैटों की है, जिनके लिए एक समय लोगों को दशकों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी।

आवेदकों को लॉटरी से फ्लैट आवंटित होते थे। यदि आपका कोई रिश्तेदार ऊंचे पद पर हो या आप किसी खास आरक्षित वर्ग से हों तो यकीनन फ्लैट पाने में मदद मिलती थी। यहां खास आरक्षित वर्ग में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश तक शामिल थे। एक ऐसे शहर में डीडीए फ्लैट विशेषाधिकार और भगवान नहीं तो भी सरकार का उपहार होते थे, जहां किसी को कुछ भी बनाने का अधिकार नहीं था। वही डीडीए अब खरीदार खोज रहा है।

संदर्भ के लिहाज से देखें तो डीडीए के बिना बिके फ्लैटों का मूल्य इस एकाधिकार संपन्न सरकारी विभाग के कुल ‘आरक्षित’ 9,028 करोड़ रुपये के दोगुने से अधिक है, परंतु क्या आप जानते हैं कि सरकार द्वारा संचालित कारोबार का सबसे पुराना सिद्धांत यही है कि अगर आप खुद को किसी गड्‌ढे में पाएं तो खुदाई जारी रखें।

डीडीए के पास 16,000 से अधिक अनबिके मकान हैं। इनमें से अधिकांश बाहरी दिल्ली के नरेला इलाके में हैं, जहां कोई नहीं रहता।

ये मकान बिके क्यों नहीं, किशोर ने इसके लिए मुख्य रिहायशी इलाकों से दूरी, अधिक कीमतें, मेट्रो संपर्क न होना और फ्लैटों का छोटा आकार जैसे अनेक कारण गिनाए थे। सवाल यह है कि आखिर इनके लिए जगह किसने चुनी, कीमतें तय करते समय बाजार का अध्ययन क्यों नहीं किया गया?

यदि आपको लगता है कि इन फ्लैटों को बेचने में नाकाम रहने पर वह नए फ्लैट नहीं बनाएगा तो आप शायद भारतीय राज्य को नहीं जानते। भारत एक ऐसा देश है जो सात दशकों तक समाजवाद के खांचे में पका है। विंस्टन चर्चिल ने क्रिस्टोफर कोलंबस को दुनिया का पहला समाजवादी ठहराते हुए कहा था- उन्हें पता नहीं था, वह कहां थे। यह भी पता नहीं था कि वह कहां जा रहे थे, लेकिन उन्होंने करदाताओं के खर्च पर अपनी यात्रा जारी रखी।

शायद यही वजह है कि 2022-23 में डीडीए ने 23,955 नए फ्लैट बना दिए, जबकि पहले के 16,000 फ्लैट्स ही नहीं बिके थे। इसके पीछे उसकी रणनीति अधिक ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए विविधता लाने का प्रयास है। उसका विचार मूल्य श्रृंखला में ऊपर जाने का भी है। यही वजह है कि नई दिल्ली के मध्यवर्गीय इलाके द्वारका में 14 पेंटहाउस बनाए गए हैं, जिनमें से प्रत्येक की कीमत पांच करोड़ रुपये है।

कल्पना करें कि आपकी सरकार अभी भी ब्रांडेड कोला पेय, ब्रेड, स्कूटर, टेलीविजन और कंप्यूटर आदि बना रही होती तो क्या आप उन्हें खरीदते? शायद नहीं। हम ऐसा ही सफर तय करते हुए आगे बढ़े हैं। जब जॉर्ज फर्नांडिस ने कोक पर प्रतिबंध लगा दिया था तब हमने ‘डबल 7 (77)’ कोला बनाया था। हमने मॉडर्न ब्रेड बनाई थी, जिसे बाद में हिंदुस्तान यूनिलीवर को बेच दिया गया।

सरकारी कंपनियों ने स्कूटर्स भी बनाए, विजय स्कूटर तो उत्तर भारत का जाना-पहचाना ब्रांड था। इन स्कूटरों के लिए भी लोगों को एक-दो साल प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। जबकि बजाज (वेस्पा) स्कूटर के लिए 13 सालों तक की प्रतीक्षा सूची रहती थी। यहां भी आपको राहत मिल सकती थी, बशर्ते आपका कोई रिश्तेदार बड़े पद हो या आपको कोई खास आरक्षण हासिल हो। अच्छी खबर है कि निजी क्षेत्र ये सारे उत्पाद बनाने लगा और सरकार बाजार से हट गई। यह सुधारों के तीन दशक का परिणाम है।

दिल्ली में अगर सरकार अभी भी आवास निर्माण में लगी है, तो इसकी वजह जमीन का स्वामित्व और नियंत्रण है। दिल्ली और नई दिल्ली का विकास हो चुका है। इसने असमानता का संस्थानीकरण किया है। इसकी जड़ें नेहरू-इंदिरा युग के छद्म समाजवादी ढांचे में निहित हैं।

लुटियन की दिल्ली को अंग्रेजों ने कुछ गांवों, खासकर पुरानी दिल्ली के दक्षिण में स्थित गांवों पर बसाया था। इनमें रायसीना और मालचा प्रमुख गांव थे। गांव वालों को मुआवजे में कुछ नहीं दिया गया। ब्रिटिशों के बाद सत्ता संभालने वाले शासकों ने यह सिलसिला जारी रखा। उन्होंने रायसीना पहाड़ी के दक्षिण में जमीन अधिग्रहण और विस्तार जारी रखा।

कुछ गांवों पर पूरी तरह कब्जा कर लिया गया। ऐसा ही एक प्रमुख गांव है आज का मुनीरका। स्थानीय निवासियों को प्राय: छह आना प्रति वर्ग गज की दर पर मुआवजा प्रदान किया गया था। आज के युवाओं को बता दें कि एक रुपये में 16 आने होते थे और छह पैसे का एक आना होता था।

यह जानना जरूरी है कि इस जमीन का उसके बाद क्या हुआ। समाजवादी माई-बाप राज में समझदार लोगों को प्रोत्साहित किया गया कि वे सहकारी समितियां बनाएं और सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा उपयुक्त माने जाने वाले लोगों को बड़े पैमाने पर जमीन आवंटित की गई। इनमें सबसे पहला नंबर आया गृह मंत्रालय के चतुर अफसरशाहों का।

उनके लिए दिल्ली की सबसे बेहतरीन और महंगी आवासीय कॉलानियां बनाई गईं- शांति निकेतन, वसंत विहार वगैरह। आप नेहरू-गांधी युग के किसी भी शीर्ष (खासकर वामपंथी) अफसरशाह या सलाहकार का नाम लीजिए और मैं आपको दिखाता हूं कि वह अपने वारिसों के लिए इन कॉलोनियों में कैसी भव्य रिहाइश छोड़ गया है।

चतुर अफसरशाही अपने पीछे शक्तिशाली शत्रु छोड़ना नहीं चाहती। इस तरह अधिवक्ताओं और न्यायाधीशों के लिए और दक्षिण में नीति बाग में सहकारी समितियां सामने आईं। उसके बाद सबसे वरिष्ठ पत्रकारों के लिए गुलमोहर पार्क बसा।

यह सिलसिला चलता रहा। इस पदसोपान में नीचे आते हुए कॉलोनियां और दूर होती गईं, भूखंड का आकार छोटा होता गया। सरकार ने दिल्ली में हर प्रकार के निजी विकास को प्रतिबंधित कर दिया। यह साठ के दशक के आरंभ की बात है। तब भविष्य की पीढ़ियां यानी हमारे माता-पिता डीडीए की दया पर निर्भर रह गए। इसके साथ ही वर्षों लंबी प्रतीक्षा सूची, काला बाजारी, भ्रष्टाचार और निराशा का भाव भी समाप्त हुआ।

लंबे समय तक मध्य या उच्च वर्गीय पेशेवर ज्यादा से ज्यादा एचआईजी (उच्च आय वर्ग) फ्लैट का ख्वाब देख सकता था, जो पतली ईंट की दीवारों से बनता था और जहां कोई बीम या कॉलम नहीं होता था।

भारत के लोगों के लिए विनिर्माण की लागत को कम रखना जरूरी था। खासतौर पर तब जब आपने लुटियन दिल्ली के करीब 500/800/1000 या 2000 वर्ग गज के भूखंड खरीदे हों और जिससे अगली कई पीढ़ियों के लिए बेहतरीन परिसंपत्ति मूल्य सुनिश्चित हो गया हो।

इस बीच, निम्न मध्य या गरीब वर्ग अवैध कॉलोनियां बसाने और उनमें रहना जारी रखता रहा। मतदाता वहीं रहते हैं और सभी राजनीतिक दल उनके हित की बात करते हैं। यही वजह है कि मैं इन मोहल्लों को ‘नया क्रेमलिन’ और डीडीए को दिल्ली विनाश प्राधिकरण कहता हूं। नए मास्टर प्लान के बाद दिल्ली में कुछ बदलाव आया है, हालांकि वह आंशिक रूप से क्रियान्वित है। गुरुग्राम और नोएडा से मिली चुनौती ने डीडीए के अहंकारपूर्ण एकाधिकार को खत्म कर दिया है।

First Published - December 18, 2023 | 12:31 AM IST

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