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Editorial: डेटा पर बहस

भारत ने हर दशक में होने वाली जनगणना को टाल दिया है जबकि अतीत में ऐसा कभी नहीं हुआ।

Last Updated- July 13, 2023 | 10:42 PM IST
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आ​धिकारिक आंकड़ों की गुणवत्ता एक बार फिर बहस के केंद्र में है। इस बार असहमति की वजह व्यापक तौर पर यह है कि वि​भिन्न सर्वेक्षण देश में शहरीकरण की तेज गति को दर्ज कर पा रहे हैं या नहीं। अगर आबादी के एक खास हिस्से का कम या अ​धिक प्रतिनि​धित्व हो रहा है तो यह संभव है कि सर्वेक्षण के परिणाम शायद वास्तविक हालात को प्रस्तुत न कर पा रहे हों।

परिवार सर्वेक्षणों में दी जाने वाली प्रतिक्रियाओं की गुणवत्ता को लेकर भी चिंताएं हैं। परिवार सर्वेक्षणों में होने वाले खपत व्यय, स्वास्थ्य और रोजगार सर्वेक्षण न केवल अतीत के नीतिगत हस्तक्षेप के परिणाम को मापने का काम करते हैं बल्कि वे भविष्य के नीति निर्माण को भी प्रभावित करते हैं।

भारत जैसे बड़े देश में गुणवत्तापूर्ण आंकड़ों की साव​धिक उपलब्धता पर बहुत अ​धिक जोर नहीं दिया जा सकता है। आंकड़ों के अभाव में नीतिगत प्रतिष्ठान महज अंधेरे में तीर चलाता रहेगा जबकि खराब गुणवत्ता के आंकड़े गलत हस्तक्षेप की वजह बन सकते हैं जिससे अपे​क्षित के बजाय गलत परिणाम हासिल होंगे।

भारतीय अर्थव्यवस्था विकास के जिस चरण में है वहां वह ढांचागत बदलावों की साक्षी बन रही है। इसे डेटा संग्रह व्यवस्था में निरंतर सुधार के जरिये लगातार दर्ज करने की आवश्यकता है। ऐसे में गुणवत्ता और व्यवस्था में संभावित सुधार पर होने वाली बहस का स्वागत किया जाना चाहिए।

मुद्दों की बात करें तो हाल के वर्षों में गरीबी में कमी खासतौर पर महामारी के बाद के समय में इसमें कमी को लेकर लगातार चर्चा चल रही है। रोजगार और स्वास्थ्य के आंकड़ों पर तो इस संपादकीय पृष्ठ पर भी चर्चा हुई है। फिलहाल जो हालात हैं उनके मुताबिक बुनियादी तौर पर आधिकारिक आंकड़ों के साथ दो तरह की समस्याएं हैं। पहली उपलब्धता और दूसरी गुणवत्ता।

आंकड़ों की गुणवत्ता को लेकर जहां हमेशा बहस होती रही है, वहीं उनकी उपलब्धता भी एक बड़ा मसला बन गई है। उदाहरण के लिए भारत ने हर दशक में होने वाली जनगणना को टाल दिया है जबकि अतीत में ऐसा कभी नहीं हुआ। यह बात समझी जा सकती है कि 2020 में महामारी के कारण जनगणना संबंधी काम नहीं हो सका लेकिन आवाजाही पर लगी रोक समाप्त होने तथा आ​र्थिक गतिवि​धियों पर प्रतिबंध समाप्त होने के बाद भी जनगणना का काम नहीं किया गया।

खबरों के मुताबिक अब जनगणना 2024 के आम चुनावों के बाद की जाएगी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर कुछ देर से ही सही लेकिन जनगणना हो जाती तो शहरीकरण को लेकर चल रही मौजूदा बहस शायद अ​धिक सूचित हो पाती।

इससे पहले सरकार ने गुणवत्ता के कारणों से ही निर्णय लिया था कि उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण 2017-18 के आंकड़े नहीं जारी किए जाएंगे। अगर वे आंकड़े जारी किए जाते तो गरीबी के स्तर का आकलन करने में मदद मिलती। इसके अलावा उपभोक्ता मूल्य सूचकांक और राष्ट्रीय खातों में संशोधन भी संभव हो पाता। एक बड़ी नीतिगत वजह यह है कि एक ओर जहां भारतीय केंद्रीय बैंक को मुद्रास्फीति को ल​क्षित करने को कहा गया, वहीं मुद्रास्फीति के आंकड़े शायद वास्तविक ​स्थिति न पेश कर रहे हों।

नए सर्वेक्षण के आंकड़े सामने आने में वक्त होगा और जरूरी संशोधन भी उसके बाद ही संभव होंगे। सरकार की पहली प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि जरूरी सां​ख्यिकीय कार्यों को समय रहते पूरा कर ले और आंकड़ों को सार्वजनिक करे। गुणवत्ता सुधार और डेटा संग्रह के दायरे की बात करें तो सरकार स्वतंत्र विशेषज्ञों की एक समिति गठित कर सकती है।

राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग भी ऐसा कर सकता है। बहरहाल, यह सुनिश्चित करना अहम है कि आंकड़ों का संग्रहण और उनके वितरण का काम किसी भी स्तर पर राजनीति का ​शिकार न होने पाए क्योंकि ऐसा होने पर व्यवस्था की वैधता पर प्रश्नचिह्न लगता है।

देश में तकनीक को अपनाने के स्तर और उसमें सुधार को देखते हुए आंकड़ों की गुणवत्ता और उन्हें जारी करने के समय में काफी सुधार​ किया जा सकता है जिससे बाद में कम से कम संशोधन करने पड़ें। विश्वसनीय आंकड़ों की उपलब्धता से सही क्षेत्रों में सीधे निवेश किया जा सकेगा। दुर्भाग्यवश इस दिशा में ज्यादा कुछ नहीं किया जा रहा है।  

First Published - July 13, 2023 | 10:42 PM IST

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