चुनाव के बाद चाहे जो भी सरकार बने, उसे कुछ अहम समस्याएं हल करने के लिए काम करना होगा। जनगणना के बाद परिसीमन, महिला कानून और रोजगार की समस्या प्रमुख हैं। बता रहे हैं आर जगन्नाथन
चार जून को लोक सभा चुनाव (Lok Sabha Elections) नतीजों में चाहे जिसकी जीत हो, अगली सरकार के सामने बड़ी चुनौतियां रहने वाली हैं। इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि पूरी तरह गठबंधन सरकार बनेगी या एक दल के बहुमत वाली सरकार, इन चुनौतियों से बिना आपसी सहमति के निजात नहीं मिलेगी। बड़ी राजनीतिक-आर्थिक चुनौतियों से केवल संसदीय बहुमत से निजात नहीं पाई जा सकती है।
नई सरकार बनने के एक या दो वर्ष बाद तीन चुनौतियां सामने आएंगी। रोजगार (Employment) की चुनौती शाश्वत है ही। पहली चुनौती होगी 2021 की जनगणना जिसे कोविड के कारण लगातार टाला गया है।
कुछ तबकों को आशंका है कि जनगणना का इस्तेमाल संसदीय परिसीमन के लिए किया जाएगा और इसे भविष्य में राष्ट्रीय नागरिक पंजी (NRC) से जोड़ा जाएगा। इससे भविष्य में लोक सभा सीट और कर हिस्सेदारी को लेकर उत्तर-दक्षिण तनाव बढ़ सकता है।
इसके बाद महिला आरक्षण विधेयक की बारी आती है। उसके क्रियान्वयन के लिए लोक सभा सीट की संख्या में इजाफा करना जरूरी होगा। मोदी सरकार ने कानून पास करते समय इसके क्रियान्वयन को अगले कार्यकाल के लिए टाल कर सही किया। यानी इसे परिसीमन और लोक सभा सीट में इजाफे के बाद लागू किया जाएगा।
राजनीतिक दृष्टि से विस्फोटक होगी अगली जनगणना
अगली जनगणना राजनीतिक दृष्टि से विस्फोटक होगी और उससे सावधानीपूर्वक निपटना होगा। क्रियान्वयन तथा व्यापक असर दोनों ही मामलों में सावधान रहना होगा। यानी कम से कम सरकार को यह घोषणा पहले करनी होगी कि उसके परिणाम एनआरसी के क्रियान्वयन के लिए नहीं इस्तेमाल होंगे।
परंतु अगर अल्पसंख्यक इस पर आश्वस्त हों तो जनगणना के नतीजे यह तय करेंगे कि किस राज्य में लोक सभा की कितनी सीट होंगी। अगर अधिक आबादी वाले हिंदी भाषी क्षेत्रों की सीटों में समुचित इजाफा नहीं हुआ तो यह सही नहीं होगा। दूसरी ओर अगर लोक सभा सीट की संख्या को मौजूदा स्तर पर रोकने का प्रयास किया गया तो इसके लिए भी राजनीतिक लड़ाई लड़नी होगी।
उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु का उदाहरण उचित रहेगा। इन दोनों राज्यों की मौजूदा आबादी के मुताबिक 25.7 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में केवल 80 सीट हैं। यह भारत की 141 करोड़ की आबादी का 18 फीसदी और लोक सभा सीटों का 14.7 फीसदी है।
तमिलनाडु को देश की 5.1% आबादी के साथ 7.1% लोक सभा सीट
तमिलनाडु को देश की 5.1 फीसदी आबादी के साथ 7.1 फीसदी लोक सभा सीट मिली हैं। उत्तर प्रदेश की आबादी के प्रतिनिधित्व को इस तरह सीमित करना एक व्यक्ति एक वोट के विचार से मेल नहीं खाता।
इसके विरुद्ध एक तर्क जो दक्षिण भारत के राजनेताओं द्वारा बार-बार दोहराया गया है वह कहता है कि जिन राज्यों ने आबादी पर बेहतर नियंत्रण पाया उन्हें राजनीतिक रूप से दंडित नहीं किया जाना चाहिए।
परंतु क्या यह तर्क सही है। 1960 और 1970 के दशक में जब भारत के लिए अपनी आबादी का पेट भरना भी मुश्किल था तब कोई भी अच्छी जनसंख्या नीति प्रजनन दर कम करके 2.1 फीसदी की प्रतिस्थापन दर पर लाने का प्रयास करती। जब भारत की कुल प्रजनन दर पहले ही 2.1 से कम है और तमिलनाडु की 1.8 या उससे कम है तो हम प्रजनन दर में गिरावट को अच्छे प्रदर्शन का मानक कैसे मानें?
अगर आबादी को स्थिर रखने के लिए कुल प्रजनन दर का लक्ष्य राज्यों में प्रजनन की दर को 1.9 से 2.1 के बीच रखना है तो तमिलनाडु का प्रदर्शन कमजोर है, न कि बेहतर। जब आबादी की चुनौती की प्रकृति बदलती है तो प्रदर्शन के मानक भी बदलने चाहिए। ऐसे में यह दावा कि दक्षिण के राज्य जनांकीय आधार पर बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं, केवल तभी सही होगा जब कुछ दशक पहले की बात की जा रही हो। मौजूदा हालात में तो मानक बदलने ही होंगे।
परंतु तमिलनाडु का कोई राजनेता, यहां तक कि वहां भारतीय जनता पार्टी के राजनेता भी इस दलील को बिना राजनीतिक कीमत चुकाए नहीं स्वीकार सकेगा। ऐसे में इस परिस्थिति से बाहर निकलने का इकलौता रास्ता एक राजनीतिक समझौता है जहां सभी राज्यों को अधिक सीट मिलें लेकिन कम आबादी वाले राज्यों को उनके मौजूदा अनुपात से कम सीटें मिलें। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे अधिक आबादी वाले राज्यों को उचित से कम खबरें मिल रही हैं।
यही बात महिला आरक्षण कानून पर भी लागू होती है। अगर मौजूदा सांसदों में से एक तिहाई को महिलाओं के लिए जगह खाली करनी पड़ी तो सभी दलों, खासकर भाजपा (BJP) में भारी विरोध होगा। परंतु अगर सभी सीटों में 50 फीसदी का इजाफा किया जाता है, यानी मान लिया कि उन्हें 543 से बढ़ाकर 800 किया जाता है तो ये मुद्दे गायब हो जाएंगे।
कुल सीटों को बढ़ाकर 800 करने से उत्तर-दक्षिण तनाव कम होगा क्योंकि सभी राज्यों में सांसद बढ़ेंगे। कुछ में ज्यादा तो कुछ में कम। एक सांसद वाले छोटे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को छोड़ दिया जाए तो लगभग हर जगह सांसद बढ़ेंगे।
एक अन्य विकल्प है लोक सभा में सीट गंवाने वाले राज्यों को राज्य सभा में कुछ अतिरिक्त सीट प्रदान करना। परिसीमन और महिला आरक्षण की समस्या को ऐसे ही समझौतों से हल किया जा सकता है।
अंतिम और सबसे अहम चुनौती रोजगार की है। सच यह है कि तकनीक एक नई चुनौती के रूप में सामने आई है। दिक्कत रोजगार की नहीं बल्कि उनकी गुणवत्ता की है। तकनीक मध्यम स्तर को नुकसान पहुंचाता है जबकि फिलहाल इसी स्तर पर गुणवत्तापूर्ण रोजगार हैं।
तकनीक रोजगार बाजार पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के असर डालती है। शीर्ष स्तर पर उच्च कौशल वाले रोजगार की भारी मांग है। निचले स्तर पर चूंकि टेक कंपनियां अधिकांश कामों को सरल बनाती हैं इसलिए वहां कम कुशल या अकुशल लोगों के लिए काफी अवसर होते हैं।
इसके लिए जरूरी कौशल मामूली समय और पैसे से हासिल की जा सकती है। परंतु कम कुशल श्रमिकों की आपूर्ति बढ़ने से वेतन पर दबाव पैदा होता है। जबकि बैंक, विनिर्माण, दूरसंचार, टेक कोडिंग आदि ऐसे रोजगार हैं जो मजबूत मध्य वर्ग बनाते हैं। तकनीक आय को उच्च और निम्न वर्ग में बांटती है जबकि मध्य वर्ग खतरे में नजर आता है।
इस चुनौती का जवाब केवल कौशल बढ़ाना नहीं बल्कि क्षेत्र विशेष के मुताबिक कौशल हासिल करना है। इसका अर्थ है रोजगार पर बात करते हुए जिला या नगरपालिका जैसे क्षेत्रों को भी ध्यान में रखना होगा। इसके लिए केंद्र और राज्य ही नहीं बल्कि स्थानीय निकायों को भी अधिकार संपन्न होना चाहिए। मुंबई महानगर क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले रोजगारों और मराठवाड़ा या मिजोरम के रोजगार एक समान नहीं हो सकते।
चुनाव चाहे जो जीते, इन मुद्दों को केवल संसद में बहुमत की मदद से नहीं हल किया जा सकता है। इसके लिए सभी हितधारकों के बीच व्यापक चर्चा होनी चाहिए। मोदी बहुमत से चुनाव जीतकर आएं या कमजोर गठबंधन का नेतृत्व करें, यह एक बड़ा काम होगा जो करना होगा।
(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)