आईपीईएफ और आरसेप तथा भारत की स्थिति | बहुपक्षीय कारोबारी और रक्षा से जुड़े समूहों की सदस्यता उपयोगी साबित हो सकती है। | | अजय मोहंती / August 04, 2022 | | | | |
आईपीईएफ और आरसेप के उदाहरण से भारत की स्थिति पर अपनी राय रख रहे हैं जैमिनी भगवती
भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के क्वाड समूह की शिखर बैठक टोक्यो में गत 24 मई को आयोजित की गई थी। इससे पहले अमेरिका ने हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचे (आईपीईएफ) के रूप में एक समूह बनाने का सुझाव रखा था और अमेरिकी राष्ट्रपति ने टोक्यो में ही 23 मई को 14 सदस्यीय आईपीईएफ के गठन की घोषणा की थी।
आईपीईएफ में खासतौर पर क्वाड समूह के चार देशों के अलावा दक्षिण कोरिया, न्यूजीलैंड, फिजी तथा दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के समूह (आसियान) के 10 सदस्य देशों में से सात शामिल हैं। आईपीईएफ के घोषित लक्ष्य हैं व्यापार, स्वच्छ ऊर्जा, अधोसंरचना को बढ़ावा देना तथा आपूर्ति श्रृंखलाओं को मजबूत बनाना। चीन पर अत्यधिक आर्थिक निर्भरता के कारण आसियान के तीन सदस्य देशों लाओस, कंबोडिया और म्यांमार ने आईपीईएफ से दूर रहने का निर्णय लिया है।
इसके विपरीत क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) में सभी 10 आसियान देशों के अलावा जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और चीन शामिल हैं। अमेरिका इस समूह का हिस्सा नहीं है।
नवंबर 2020 में 15 सदस्य देशों ने आरसेप नामक बहुपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। विभिन्न सदस्य देशों के बीच क्षेत्रीय तथा अन्य मतभेदों के बावजूद आरसेप के रूप का घोषित लक्ष्य है एशिया प्रशांत क्षेत्र में व्यापार को बढ़ावा देना। हमने ऊपर जिन मतभेदों का जिक्र किया उनके उदाहरण के रूप में जापान और ऑस्ट्रेलिया के चीन के साथ विवादों को गिन सकते हैं। भारत ने आरसेप की चर्चा के कई दौर में हिस्सेदारी की लेकिन अंतत: उसने इस समूह से बाहर रहने का निर्णय लिया।
क्वाड समूह के मूल में सुरक्षा का मसला है। आईपीईएफ की स्थापना के साथ अमेरिका का इरादा यह लगता है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के आर्थिक दबदबे को कम किया जाए। एशिया और ओसेनिया में समय के साथ चीन का प्रभाव बहुत अधिक बढ़ा है। ऐसा आसियान देशों तथा जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड के साथ उसके कारोबारी और निवेश संबंधी रिश्तों की बदौलत हुआ है।
प्रमुख आसियान देश चीन के साथ गहन आर्थिक रिश्ते रखने पर जोर देंगे जबकि इसके साथ ही वे अमेरिका के साथ भी रिश्ते कायम रखेंगे। उन्होंने अतीत में ऐसा ही किया है। चूंकि आसियान के सदस्य देशों की प्रति व्यक्ति औसत आय काफी अच्छी है इसलिए आसियान समूह की खुद को लेकर धारणा आईपीईएफ की दक्षिण-पूर्व एशिया को लेकर केंद्रीयता को प्रभावित करेगा।
जी 20 एक ऐसा समूह है जो अक्सर चर्चा में रहता है। भारत भी इसका सदस्य देश है। जी 20 में जी 7 समूह के अलावा भारत, कुछ अन्य बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश तथा रूस और चीन शामिल हैं। यूक्रेन और रूस की जंग छठे महीने में प्रवेश कर गई है और अमेरिका एवं पश्चिम-यूरोप तथा रूस एवं चीन के बीच के मतभेद इतने अधिक हैं कि जी 20 के लिए किसी भी प्रकार की व्यवस्थित महत्ता हासिल करना बहुत मुश्किल है। भारत ब्रिक्स समूह का भी सदस्य है जिसमें उसके अलावा ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं। वह शांघाई सहयोग संगठन का भी सदस्य है जिसमें चीन, रूस, कजाकस्तान, किर्गिजिस्तान, ताजिकिस्तान, उजबेकिस्तान, भारत और पाकिस्तान शामिल हैं। ईरान और अफगानिस्तान उन देशों में शामिल हैं जो इस संगठन में सदस्यता के लिए प्रतीक्षारत हैं। ये समूह आधिकारिक, मंत्रीय और शासन प्रमुख के स्तर पर मुलाकात करते हैं। इसके अलावा रूस-भारत और चीन त्रिपक्षीय समूह के रूप में विदेश मंत्री के स्तर पर वार्ता करते हैं।
ऊपर जिन बहुपक्षीय समूहों का जिक्र किया गया भारत के अलावा उनमें रूस और चीन तो शामिल हैं लेकिन अमेरिका या पश्चिम का कोई अन्य विकसित देश उसमें शामिल नहीं है। अहम बात यह है कि भारत और रूस का व्यापार, अधिकांश आसियान देशों के साथ उसके व्यापार की तुलना में कम है। बहरहाल, भारत रक्षा और संवेदनशील तकनीक के मामले में रूस पर बहुत अधिक निर्भर है और यह बात जाहिर है। हाल के महीनों में भारत ने रूस पर अपनी तेल आयात निर्भरता बढ़ाई है। आईपीईएफ का संस्थापक सदस्य बनने के साथ ही भारत ने यह संकेत भी दे दिया है कि वह ऐसे समूह में भागीदारी का इच्छुक है जो चीन को रोकना चाहता हो।
भारत के दृष्टिकोण में ऐसा बदलाव कैसे आया? एक बात तो यह कि चीन के साथ मौजूदा सैन्य गतिरोध बरकरार है और करीब 50,000 चीनी सैनिक तथा इतने ही भारतीय जवान लद्दाख की हाड़ जमा देने वाली ठंड में एक दूसरे के सामने डटे हुए हैं। वहां जवानों के लिए जरूरी सामान पहुंचाने तथा अन्य सुविधाएं मुहैया कराने में जो कठिनाई होती है उसकी समानुभूति तो भारत के उच्च आय वर्ग के लोगों तक में देखने को नहीं मिलती है। मीडिया तथा पश्चिम या आसियान देशों के थिंक टैंक भी इस विषय पर शायद ही कभी कोई टिप्पणी करते हों। यह अनुमान के अनुरूप ही है क्योंकि अधिकांश देशों को यही लगता है कि लद्दाख में चीन-भारत सैन्य गतिरोध तथा दुनिया के दो सर्वाधिक आबादी वाले देशों के बीच सीमा विवाद को लेकर चीन की संवेदनशीलता के प्रति सावधानी बरती जाए। चीन के साथ कई मामलों में भारत की तुलना का सिलसिला सन 1950 के दशक से ही चला आ रहा है। मिसाल के तौर पर चीन में एकदलीय वाम शासन और भारत में बहुलतावादी लोकतांत्रिक व्यवस्था का होना जबकि भारत की अर्थव्यवस्था का आकार काफी छोटा है। इसके अलावा भारत ने दलाई लामा की मौजूदगी को लेकर सार्वजनिक स्वीकार्यता काफी बढ़ा दी है जो निश्चित रूप से चीन को रास नहीं आती।
अपने कारोबारी हितों को ध्यान में रखते हुए जापान ने व्यावहारिक रुख अपनाया है और वह आरसेप तथा आईपीईएफ दोनों का सदस्य बन गया है। भारत को भी आरसेप की सदस्यता लेनी चाहिए थी। बहुपक्षीय समूह चाहे व्यापार से संबंधित हों या सामरिक, वे लाभदायक साबित हो सकते हैं।
बहरहाल, विभिन्न देशों के समूह कभी भी किसी देश की अर्थव्यवस्था या रक्षा से संबंधित मजबूत नीतियों के क्रियान्वयन की जगह नहीं ले सकते। जमीनी कमियों ने अक्सर भारत को प्रभावित किया है और इसे बदले जाने की आवश्यकता है।
(लेखक भारत के पूर्व राजदूत एवं वर्तमान में सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस के फेलो हैं)
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