केंद्र सरकार की उधारी के बारे में बीते कुछ वर्ष में लगातार सवाल उठाए गए हैं। अब यह सिलसिला चरम पर है। जैसा कि इस समाचार पत्र ने भी प्रकाशित किया था, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने संसद के दोनों सदनों तथा 15वें वित्त आयोग को बताया था कि केंद्रीय बजट के आंकड़ों में केंद्र सरकार की बजट से इतर देनदारियों को शामिल नहीं किया गया। सीएजी ने कहा कि वह इन आंकड़ों को बजट अनुमान का हिस्सा बनाना चाहता है। हालांकि, सरकार का कहना है कि वह पहले ही 2019-20 के बजट में जरूरत से अधिक प्रावधान कर चुकी है क्योंकि मूलधन की अदायगी के प्रावधान और बजट से परे ली गई उधारी के ब्याज भुगतान का प्रावधान भी बजट के माध्यम से किया जा रहा है। सरकार का यह भी कहना है कि बजट से इतर ली गई उधारी को राजकोषीय घाटे के अनुमान में शामिल करने की कोई औपचारिक जरूरत नहीं है। इस मामले में सरकार काफी हद तक सही है लेकिन दूसरी ओर औपचारिक जरूरत की अपील करना इस संदर्भ में एक कमजोर दलील है। आखिरकार वित्त आयोग के पास यह अधिकार है कि वह सरकार द्वारा प्रयोग की जाने वाली औपचारिक परिभाषाओं को बदल सके। संभव है कि सरकार प्रक्रियागत मामले में सही हो लेकिन सीएजी के पास भी यह शिकायत करने का पर्याप्त वजह है कि राजकोषीय घाटे का आंकड़ा, वित्त वर्ष के दौरान सरकारी व्यय और सरकार के ऋण व्यवहार को भलीभांति परिलक्षित नहीं करता। उसका कहना है कि राजकोषीय घाटे का वास्तविक स्तर 6 फीसदी के आसपास है जबकि सरकार ने 2019-20 के बजट आंकड़ों में इसके 3.3 फीसदी रहने का दावा किया है। सरकार उचित ही यह शिकायत कर सकती है कि राजकोषीय घाटे का वक्तव्य मौजूदा स्वीकार्य परिभाषा के अनुरूप है। परंतु इस बात का विश्वसनीय दावा नहीं किया जा सकता है कि राजकोषीय घाटे का आंकड़ा ही राजकोषीय विवेक का आकलन करने की दृष्टि से उचित है। इस कठिनाई को दूर करने का सही तरीका होगा राजकोषीय घाटे के बजाय सरकारी क्षेत्र की उधारी की जरूरतों को आंकना। इसके अलावा सरकारी कर्ज के प्रवाह के चर को आंकना जो न केवल बजट व्यय और बजट से इतर की देनदारी को ही नहीं बल्कि सरकार की अन्य आकस्मिक देनदारियों को भी ध्यान में रखता है। इससे इस बात का पारदर्शी परिदृश्य सामने आएगा कि केंद्र सरकार भविष्य की पीढिय़ों पर किस हद तक कर्ज का बोझ डाल रही है। साथ ही यह भी पता चल सकेगा कि सरकारी उधारी के कारण कितना निजी निवेश में किस कदर कमी आ रही है। देश के सार्वजनिक वित्त के स्थायित्व की दृष्टि से यही दोनों सबसे अधिक मायने रखते हैं। फिलहाल तो यह आंकड़ा अवांछित रूप से बढ़ा हुआ होगा। सरकार ने सरकारी उपक्रमों मसलन भारतीय खाद्य निगम आदि का इस्तेमाल इस तरीके से करना शुरू किया है जैसा कि पहले सोचा भी नहीं गया था। उनकी सॉवरिन गारंटी का अर्थ यह है कि वे बाजार से कर्ज ले सकते हैं और खाद्य सब्सिडी जैसी सरकार की व्यय प्रतिबद्धताओं की भरपाई कर सकते हैं। इस प्रकार राजकोषीय घाटा सरकार की वास्तविक राजकोषीय स्थिति को छिपा लेता है। वित्त आयोग शायद इस व्यवहार को सामने रखेगा और इस बात पर नए सिरे से विचार करेगा कि सरकारी व्यय और उधारी का अंकगणित किस प्रकार पेश किया जा रहा है। ऐसा पुनर्आकलन न केवल सरकार को सरकारी निवेश और बचत की योजना में मदद करेगा बल्कि व्यापक निवेश समुदाय की दृष्टि से भी यह अहम होगा क्योंकि उसे राज्य के चयन की स्पष्ट समझ और सरकारी ऋण बाजार की भविष्य की स्थिति के बारे में उचित जानकारी की जरूरत है।
