फेडरल रिजर्व ( Federal Reserve) प्रमुख जेरोम पॉवेल की तरफ से मॉनेटरी पॉलिसी को लेकर रुख में सख्ती बरकरार रखने के स्पष्ट संकेत दिए जाने की वजह से सोमवार को शुरुआती कारोबार में भारतीय रुपया अपने रिकॉर्ड लो यानी 80.14 तक चला गया। जैक्सन होल की मीटिंग में फेडरल रिजर्व के प्रमुख जेरोम पॉवेल ने शुक्रवार को साफ-साफ कहा कि महंगाई को कंट्रोल करने के लिए अभी इंट्रेस्ट रेट में बढ़ोतरी का सिलसिला जारी रहेगा। इससे पहले 19 जुलाई को भारतीय रुपया 80.06 के निचले स्तर तक गया था। हालांकि उसके बाद रुपये में गिरावट एक तरह से थम गई थी। जानकारों के अनुसार मॉनेटरी पॉलिसी को लेकर अगर अमेरिकी फेडरल रिजर्व के रुख में नरमी नहीं आती है तो अगले एक-दो महीने में रुपया 82 के स्तर तक नीचे जा सकता है। मॉनेटरी पॉलिसी को लेकर फेड की बैठक अब सितंबर (अगले महीने) में होगी ।
रुपये में जारी इस गिरावट की वजह से घरेलू अर्थव्यवस्था को कई चुनौतियों का सामना करना पड रहा है। आम लोगों की परेशानी भी इस वजह से काफी बढ़ी है। आज बात करते हैं कि रुपये में जारी कमजोरी की वजह क्या है और लोगों को इससे कैसे परेशानी हो रही है। अर्थव्यवस्था पर इसके पडने वाले असर को भी समझेंगे। साथ ही इसके सकारात्मक पहलू पर भी बात करेंगे।
एक्सचेंज रेट (विनिमय दर) के मायने
एक्सचेंज रेट की जैसे ही बात होती है एक बात सबसे पहले सामने आती है कि जब डॉलर के मुकाबले रुपये का मूल्य बढ़ता है, तो आयात सस्ता हो जाता है और जब रुपये का मूल्य डॉलर के मुकाबले कमजोर होता है, तो आयात महंगा हो जाता है। साथ ही जब रुपये का अवमूल्यन होता है तो हमारा निर्यात विश्व बाजार में अधिक प्रतिस्पर्धी हो जाता है और जब हमारी मुद्रा की कीमत बढती है तो हमारा निर्यात कम प्रतिस्पर्धी हो जाता है।
उदाहरण के लिए, मान लें कि किसी उत्पाद की कीमत 10 डॉलर है। एक भारतीय ग्राहक के लिए जब भारतीय मुद्रा डॉलर के मुकाबले 70 रुपये पर चल रही थी तो सामान आयात करने की कुल लागत 700 रुपये होती थी। मौजूदा स्थिति के साथ इसकी तुलना करें, जब रुपया 80 के स्तर पर है तो भारतीय ग्राहक के लिए इसकी लागत होगी 800 रुपये।
वहीं भारतीय निर्यातक को 10 डॉलर की कीमत वाले उत्पाद के लिए 700 रुपये मिलते थे, जब डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा की कीमत 70 रुपये थी। जबकि अभी निर्यातक को 800 रुपये मिलेंगे।
हर बार जब भारत सरकार या कंपनियां/फर्म या अन्य संगठन सामान आयात करते हैं, तो उन्हें अमेरिकी डॉलर खरीदने और भारतीय रुपये बेचने की जरूरत होती है। हमारा आयात जितना अधिक होता है, अमेरिकी डॉलर की मांग उतनी ही अधिक होती है, जिसके परिणामस्वरूप रुपये के मुकाबले डॉलर की कीमत बढ़ जाती है।
रुपये में गिरावट की वजह
अमेरिकी डॉलर में जारी तेजी, यूक्रेन संकट के मद्देनजर कच्चे तेल की कीमतों में बढोतरी और विदेशी संस्थागत निवेशकों ( FIIs) की लगातार बिकवाली रुपये में तात्कालिक गिरावट के लिए मुख्यतया जिम्मेदार है।
-अमेरिकी डॉलर में जारी तेजी
अमेरिका में ब्याज दरों में तेजी, सख्त मौद्रिक नीति और यूक्रेन संकट के मद्देनजर पिछले कुछ महीनों में अमेरिकी डॉलर विश्व की अन्य मुद्राओं की तुलना में लगातार मजबूत हुआ है, और रुपया भी इससे अछूता नहीं है। विश्व की अन्य प्रमुख मुद्राओं की तुलना में अमेरिकी डॉलर के प्रदर्शन को दर्शाने वाला सूचकांक, यूएस डॉलर इंडेक्स ( US Dollar Index) कैलेंडर ईयर 2022 में अभी तक 14 फीसदी मजबूत हुआ है और फिलहाल 20 वर्षों के अपने उच्चतम स्तर पर है। जिस तरह से अमेरिका में महंगाई रिकॉर्ड स्तर पर (जुलाई 2022 : 8.5 फीसदी / 40 वर्षों के उच्चतम स्तर पर) बनी हुई है, इस बात की संभावना बढ़ी है कि वहां का केंद्रीय बैंक और तेजी से ब्याज दरों में बढोतरी कर सकता है, जिससे अमेरिकी डॉलर को और मजबूती मिल सकती है। जून में तो अमेरिका में महंगाई 9.1 फीसदी के स्तर पर थी। फलत: रुपया सहित विश्व की अन्य मुद्राओं पर आने वाले समय में दबाव और आएगा। हालांकि संतोष की बात यह है कि, विश्व की कुछ अन्य प्रमुख मुद्राओं की तुलना में भारतीय रुपये में कमजोरी अभी भी कम है।
-कच्चे तेल की कीमतों में उछाल
यूक्रेन संकट की वजह से कच्चे तेल की कीमतों में आए उछाल से भारत का इंपोर्ट बिल काफी बढ़ा है। हालांकि रिकॉर्ड स्तर से कीमतों में अच्छी खासी नरमी आई है। तब भी कच्चे तेल की कीमतों में पिछले एक साल में तकरीबन 36 फीसदी का इजाफा हुआ है। गौरतलब है कि भारत कच्चे तेल (पेट्रोलियम) की अपनी कुल जरूरतों का तकरीबन 85 फीसदी आयात करता है। फलस्वरूप व्यापार घाटे (निर्यात से ज्यादा आयात) सहित चालू खाते के घाटे ( Current Account Deficit) में बढोतरी हुई है। एक्सपोर्ट की तुलना में अधिक इंपोर्ट के कारण चालू वित्त वर्ष के पहले चार महीने में व्यापार घाटा (Trade Deficit) तीन गुना बढ़कर 30 अरब डॉलर पर पहुंच गया है। जो एक साल पहले अप्रैल-जुलाई में 10.63 अरब डॉलर था। बढ़ते व्यापार घाटे को देखते हुए मौजूदा वित्त वर्ष यानी 2022-23 में चालू खाते का घाटा बढ़कर जीडीपी के 3.5-3.7 फीसदी तक जा सकता है। जो वित्त वर्ष 2021-22 में जीडीपी का महज 1.2 फीसदी था।
-विदेशी निवेशकों की बिकवाली
रुपये में कमजोरी की एक बड़ी वजह अमेरिका सहित विश्व के अन्य विकसित देशों में ब्याज दरों में बढोतरी और वैश्विक अर्थव्यवस्था में जारी अनिश्चितता की वजह से विदेशी संस्थागत निवेशकों की तरफ से की गई बिकवाली है। हालांकि जुलाई में लगातार 9 महीने के आउटफ्लो (निकासी) के बाद इनफ्लो (आमद) देखा गया। अगस्त में भी अभी तक नेट 6.92 बिलियन डॉलर का विदेशी संस्थागत निवेश हुआ है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि भारत में इस साल डॉलर के इनफ्लो में कमी आई है। मौजूदा कैलेंडर ईयर 2022 में अब तक विदेशी संस्थागत निवेशकों ने 22.57 बिलियन/अरब डॉलर की निकासी की है, जबकि 2021 में नेट इनफ्लो 7 बिलियन डॉलर, 2020 में 14 बिलियन डॉलर और 2019 में 19 बिलियन डॉलर था। बढते करंट अकाउंट डेफिसिट के चलते बैलेंस ऑफ पेमेंट (Balance of Payments) पर दबाव बढा है। सामान्यतया चालू खाते के घाटे /बैलेंस ऑफ पेमेंट के घाटे की भरपाई विदेशी निवेश से होता है। लेकिन विदेशी संस्थागत निवेशकों की तरफ से जारी बिकवाली के चलते देश के विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल इस घाटे की भरपाई में हो रहा है। परिणामस्वरूप, देश का कुल विदेशी मुद्रा भंडार (फॉरेक्स रिजर्व) 19 अगस्त को खत्म हुए सप्ताह के दौरान घटकर 564.053 बिलियन/अरब डॉलर रह गया है, जो पिछले साल 3 सितंबर को खत्म हुए सप्ताह के दौरान बढ़कर अब तक के सबसे उच्चतम स्तर यानी 642.453 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया था। मतलब साफ है, अगर चालू खाते का घाटा ज्यादा होगा तो विदेशी निवेश के अभाव में भारत को मजबूरन इस घाटे को पूरा करने के लिए अपने विदेशी मुद्रा भंडार से डॉलर निकालना होगा। हालिया गिरावट के बावजूद विदेशी मुद्रा भंडार के मामले में भारत दुनिया में पांचवें नंबर पर है।
अर्थव्यवस्था और आम लोगों पर असर
-आयातित महंगाई
रुपये में कमजोरी ने पहले से ही बढी महंगाई को और बढा दिया है। आरबीआई के कैलकुलेशन के मुताबिक रुपये में हर 5 फीसदी की गिरावट महंगाई में 10 से 15 बेसिस प्वाइंट की बढ़ोतरी करती है। जब रुपये में कमजोरी आती है तो हर वह चीज जो आयात की जाती है मसलन … पेट्रोलियम पदार्थ, उर्वरक, खाद्य तेल, कोयला, सोना, रसायन, …..वगैरह की कीमतों में इजाफा होता है। क्योंकि इसके एवज में हमें ज्यादा रुपया चुकाना पड़ता है। कहें तो हमे आयातित महंगाई का सामना करना पडता है। इतना ही नहीं, इन इंपोर्टेड चीजों का कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल करके बनने वाली वस्तुओं की लागत भी बढ़ जाती है, मसलन ..कंप्यूटर्स, स्मार्टफोन और कारें …. वगैरह । पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढोतरी की वजह से वस्तुओं और सेवाओं का ढुलाई खर्च भी बढ़ जाता है और रोजमर्रा की चीजें महंगी हो जाती है।
-निर्यात
रुपये में गिरावट को आम तौर पर एक्सपोर्ट/निर्यात करने वालों के लिए अच्छी खबर माना जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि रुपये में गिरावट होने पर विदेशी बाजार में भारतीय वस्तुओं और सेवाओं की कीमत कम हो जाती है, जिससे उनकी मांग बढ़ने की उम्मीद रहती है। साथ ही डॉलर में मिलने वाले पेमेंट को रुपये में एक्सचेंज करने पर मिलने वाली रकम बढ़ जाती है । लेकिन अगर निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में आयातित कच्चे माल का इस्तेमाल हुआ है, मसलन जेम्स एंड ज्वैलरी, पेट्रोलियम उत्पादों, ऑर्गेनिक केमिकल्स, ऑटोमोबाइल उत्पादों, इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मास्युटिकल्स ….वगैरह.. या आयात किए जाने वाले देश की मुद्रा भारतीय रुपये के मुकाबले कमजोर हुई है तो रुपये में गिरावट का फायदा नहीं होता है। हां कुछ सेक्टर मसलन सर्विस से संबंधित आईटी व लेबर इंटेंसिव टेक्सटाइल सेक्टर को फायदा होता है । इसके अलावा ऐसे उत्पाद जिनमें आयातित कच्चे माल का इस्तेमाल न हुआ हो या और हम ऐसे किसी देश को आयात कर रहे हों जहां की मुद्रा (Currency) में कमजोरी भारतीय मुद्रा की तुलना में कम हो, तो रुपये में कमजोरी का फायदा होता है। इंडस्ट्री के आकलन के मुताबिक, कम से कम 50 फीसदी निर्यातित वस्तुओं के निर्माण में आयातित कच्चे माल का इस्तेमाल होता है। वैश्विक स्तर पर मांग में कमी, बढती महंगाई और मुद्रा बाजार में भारी उतार चढाव की वजह से निर्यातकों के लिए मौजूदा समय ऐसे भी चुनौतीपूर्ण है।
-घरेलू उद्योग की प्रतिस्पर्धात्मकता
कमजोर रुपया घरेलू उद्योग की प्रतिस्पर्धात्मकता (Competitiveness) को बढ़ाता है। जैसे-जैसे आयात का मूल्य बढ़ता है, यह वस्तुओं और सेवाओं की खुदरा कीमतों में फ़ीड (बढ़ोतरी) करता है, और उपभोक्ता घरेलू रूप से उत्पादित सस्ते सामानों की ओर झुकते हैं। कमजोर रुपया भारतीय उपभोक्ताओं के लिए आयात को और अधिक महंगा बना देगा, जिससे घरेलू उत्पाद अपेक्षाकृत सस्ते हो जाएंगे। यह बदले में कुछ घरेलू कंपनियों के पक्ष में काम कर सकता है जिन्हें सस्ते आयात से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है।
-विदेशी कर्ज और ब्याज का बोझ
रुपये में गिरावट का एक बहुत बड़ा और सीधा नुकसान यह होता है कि इससे विदेशी मुद्रा में लिए गए सारे कर्जे और उन पर दिए जाने वाले ब्याज में अचानक बढ़ोतरी हो जाती है। इनमें सरकार द्वारा लिए गए विदेशी लोन के अलावा सरकारी और प्राइवेट बैंकों और कंपनियों द्वारा लिए गए फॉरेन करेंसी लोन भी शामिल हैं। इन सभी कर्जों पर अदा किए जाने वाले ब्याज की रकम रुपये में गिरावट से अचानक बढ़ जाती है। अगर उस कंपनी या बैंक की ज्यादा कमाई रुपये में होती है तो उसके लिए विदेशी मुद्रा में कर्ज की किस्त और ब्याज चुकाना पहले से ज्यादा महंगा हो जाता है।
-लोन और जमा पर ब्याज
अगर रुपये में कमजोरी की वजह से महंगाई एक तय सीमा से ज्यादा बढती है तो आरबीआई को रेपो रेट में बढोतरी करना होता है, जैसा कि आरबीआई अभी कर रही है। जिससे बैंक लेंडिंग रेट बढा देते हैं। फलस्वरूप लोन महंगा हो जाता है। वहीं बैंक डिपॉजिट दरों में भी बढोतरी करते हैं जिससे जमाकर्ताओं को फायदा मिलता है। रेपो रेट में बढोतरी के बाद सरकार की छोटी बचत योजनाओं, मसलन पीपीएफ, सुकन्या …..वगैरह पर भी ब्याज बढने की संभावना बढ जाती है। आरबीआई ने मई से लेकर अब तक ब्याज दरों में 140 बेसिस प्वाइंट की बढ़ोतरी की है।
अन्य नुकसान व फायदे
रुपये में कमजोरी से अन्य परेशानियां भी होती है जैसे:
-अगर हम हॉलिडे ट्रिप का प्लान बना रहे हैं तो हमें ज्यादा रुपये खर्च करने होगें। मतलब अगर देश से बाहर छुट्टियां मनाना, विदेश जाना महंगा हो सकता है।
-विदेश में पढाई महंगी हो जाती है
वहीं रुपये में कमजोरी का एक फायदा यह है कि विदेश में रह रहे लोग अगर देश में अपने रिश्तेदार को पैसा भेजते हैं तो रिश्तेदार को ज्यादा रुपये मिलेंगे।
रुपये में गिरावट के असर को निवेशक कैसे कम करें
रुपये में गिरावट के असर को कम करने के लिए निवेशकों को इंटरनेशनल फंड खासकर यूएस फंड और स्टॉक मार्केट में निवेश करना चाहिए। इससे रुपये में गिरावट के दौर में निवेशकों को फायदा होता है। लेकिन यह निवेश सीमित होना चाहिए। वहीं निवेशकों को अपने पोर्टफोलियो में आईटी व फर्मा जैसे स्टॉक को तवज्जो देना चाहिए, या कहें ऐसे फंड में निवेश बढ़ाना चाहिए जहां आईटी और फार्मा सेक्टर में एक्सपोजर ज्यादा हो। रुपये में गिरावट के दौर में एक्सपोर्ट केंद्रित सेक्टर का प्रदर्शन सामान्यतया बेहतर होता है।