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पीलीभीत की बांसुरी के गुम हो रहे सुर

पीलीभीत को इस उद्योग के कारण ही 'बांसुरी नगरी' का खिताब मिला है। यहां बनने वाली बांसुरियां देश के विभिन्न इलाकों में ही नहीं विदेश में भी जाती हैं।

Last Updated- July 27, 2025 | 11:10 PM IST

नन्हे बच्चों से लेकर प्रख्यात बांसुरी वादक पंडित हरि प्रसाद चौरसिया तक के ओठों पर बांसुरी सजाने वाला पीलीभीत का मशहूर उद्योग अब अपने सुर खोता जा रहा है। कभी मेलों-त्योहारों में बांसुरी बच्चों की पहली पसंद होती थी मगर स्मार्टफोन और टेलीविजन के बढ़ते चलन ने उस पर तगड़ी मार लगाई है। इसलिए देश में बन रही बांसुरियों में 80-90 फीसदी योगदान करने वाले उत्तर प्रदेश के पीलीभीत शहर में इसे बनाने वाले कम होते जा रहे हैं। पीलीभीत को इस उद्योग के कारण ही ‘बांसुरी नगरी’ का खिताब मिला है। यहां बनने वाली बांसुरियां देश के विभिन्न इलाकों में ही नहीं विदेश में भी जाती हैं। मगर इनका कारोबार लगातार कम होता जा रहा है और तमाम सरकारी कोशिशों के बावजूद बांसुरी की मांग और बिक्री घटती जा रही है।

खत्म होते मेले और गुम होती बांसुरी

बांसुरी बनाने वाले कहते हैं कि विभिन्न राज्यों और जिलों में लगने वाले मेलों में इस वाद्य यंत्र की सबसे ज्यादा बिक्री होती थी। पीलीभीत में पांच पीढ़ी से बांसुरी बना रहे जुनैद नबी कहते हैं कि मेले लगना अब कम होते जा रहे हैं, इसलिए बांसुरी की बिक्री भी खत्म होती जा रही है। नबी का दावा है कि पीलीभीत में बांसुरी उद्योग की शुरुआती उन्हीं के परिवार के नक्कड़ नबी ने की थी, जो अच्छी बांसुरी बनाने के लिए असम के सिलचर से बांस लाए थे।

शहर में ही बांसुरी बनाने वाली शादाब कहते हैं कि मेले के नाम पर सूरजकुंड, प्रगति मैदान व्यापार मेला जैसे कुछ बड़े मेले ही बचे हैं। पहले वहां स्टॉल मुफ्त थे मगर अब मोटी रकम देनी पड़ती है, जो बांसुरी निर्माताओं के लिए भारी पड़ जाती है। कई साल से बांसुरी बना रहे शमशाद नबी चीनी खिलौनों की बहुतायत को बांसुरी के लिए काल बताते हैं। उनका कहना है कि चीन से आने वाले सस्ते या आधुनिक खिलौनों को देखकर बच्चे बांसुरी को हाथ ही नहीं लगाते हैं, जिस कारण इसकी मांग दिन-ब-दिन घटती जा रही है।

लागत ने बिगाड़े बांसुरी के सुर

पीलीभीत के बांसुरी उद्यमी बढ़ती लागत से भी परेशान हैं, जिसने उनका मुनाफा घटाया है और कारोबार मंदा कर दिया है। सरगम फ्लूट के मालिक रेहान बताते हैं कि बांसुरी बनाने के लिए कच्चा माल बांस होता है, जो सिलचर से आता है। पांच-छह साल पहले तक बांस के गट्ठर रेल से आते थे मगर अब पीलीभीत से छोटी लाइन बंद होने के कारण उनकी ढुलाई ट्रकों से हो रही है। रेल से जितना माल मंगाने में 20-25 हजार रुपये लगते थे, ट्रक से उसे मंगाने में 1 लाख रुपये से ऊपर खर्च आ जाता है।

भारत फ्लूट के मालिक अब्दुल महबूद कहते हैं कि बांस मंगाना अब तीन गुना महंगा हो गया है। चूंकि पीलीभीत में बांसुरी बनाने का काम घरों में होता है, जहां बहुत पैसा नहीं होता इसलिए महंगा कच्चा माल मंगाना उनकी हैसियत से बाहर हो गया है।

अब बांस भी महंगा हो गया है। जुनैद ने कहा कि सिलचर से पहले 10 से 15 फुट लंबे बांस आते थे, जिन्हें मनचाहे आकार में काटकर बांसुरी बना ली जाती थी और बरबादी कम होती थी। लेकिन अब बांस बेचने वाले लंबे बांस के बजाय टुकड़े भेजते हैं, जिनमें बरबादी अधिक होती है। बांस के 1,000 टुकड़ों में 400 टुकड़े ही अच्छी बांसुरी बनाने लायक बचते हैं। रेहान ने कहा कि 10 साल पहले बांस की एक बोरी 700-800 रुपये में मिल जाती थी मगर अब वही बोरी 2,500 रुपये से 3,000 रुपये में मिल रही है।

छिटक रहे छोटे निर्माता

लागत बढ़ने और मांग घटने से पीलीभीत में बांसुरी बनाने वाले बहुत कम रह गए हैं। जुनैद ने बताया कि 8-10 साल पहले शहर में 500-600 परिवार बांसुरी बनाते थे मगर 150 से 200 परिवार ही इस काम में लगे हैं। बांसुरी निर्माता शादाब नबी कहते हैं कि कुटीर उद्योग की तरह बांसुरी बनाने वाले छोटे कारीगर ही होते हैं। पिछले 5-6 साल में लागत दो-तीन गुना बढ़ने से मुनाफा घटा है और इन छोटे कारीगरों के लिए पूंजी जुटाना मुश्किल हो गया है। इसलिए ये काम छोड़ रहे हैं।

रेहान के मुताबिक 4-5 रुपये में बिकने वाली बांसुरी पर पहले 1 रुपये से ज्यादा मुनाफा था मगर 40-50 पैसे ही बच रहे हैं। करीब 300 रुपये वाली प्रोफेशनल बांसुरी पर पहले 60 से 80 रुपये मिल जाते थे मगर अब 25-30 रुपये ही हाथ आ रहे हैं। इसीलिए कारीगर बांसुरी से मुंह मोड़ रहे हैं।

अब मथुरा-वृंदावन का सहारा

बुरे दौर से गुजर रहे पीलीभीत के बांसुरी उद्योग को सबसे ज्यादा सहारा मथुरा-वृंदावन से मिल रहा है। जुनैद बताते हैं कि मेलों में बांसुरी बेशक कम जा रही हैं मगर मथुरा-वृंदावन से इसकी मांग अभी बरकरार है। भगवान कृष्ण से जुड़े होने की वजह से पूजा में बांसुरी इस्तेमाल की जाती है। वहां से जन्माष्टमी के समय ही पीलीभीत को करीब 12-15 लाख बांसुरी के ऑर्डर मिल जाते हैं। साल के बाकी दिनों में भी दोनों जगह से ऑर्डर आते रहते हैं। जुनैद कहते हैं, ‘जन्माष्टमी के समय मथुरा-वृंदावन से बांसुरी के बड़े ऑर्डर मिलते हैं। इस साल मुझे करीब 2.5 लाख बांसुरी बनाने के ऑर्डर मिल गए हैं। इनकी कीमत 4 से 8 रुपये रहती है।’ बांसुरी कारोबारी शाहवेज ने कहा कि इस साल मथुरा से जन्माष्टमी के लिए 1.5 लाख बांसुरी के ऑर्डर मिले हैं। कारीगरों का कहना है कि पीलीभीत का बांसुरी उद्योग इन्हीं ऑर्डरों के दम पर बचा हुआ है।

बांसुरी निर्माताओं के मुताबिक पीलीभीत में सालाना 50-60 लाख बांसुरी बनती हैं। मथुरा-वृंदावन के अलावा महाराष्ट्र, दिल्ली व अन्य राज्यों में भी पीलीभीत की बांसुरी बिकने जाती है। संगीतकार व संगीत संस्थान समेत पेशेवर कलाकार भी पीलीभीत की बांसुरी खरीदते हैं।

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9 इंच से 21 फुट तक की बांसुरी

जुनैद ने बताया कि पीलीभीत में बांसुरी की लंबाई 9 इंच से शुरू होती है और 42 इंच लंबाई तक की बांसुरी बनाई जा रही हैं। उनका दावा है कि उनके पिता 4 इंच की और उनकी चाची हिना परवीन साढ़े 21 फुट की बांसुरी भी बना चुके हैं। इतनी लंबी बांसुरी बनाने में ढाई-तीन महीने और 35-40 हजार रुपये लग गए थे। यह बांसुरी अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के लिए बनाई गई थी।

रेहान ने कहा कि उनके पिता और भाई ने 16 फुट लंबी बांसुरी बनाई थी, जो 2021 में पीलीभीत बांसुरी महोत्सव में रखी गई थी। इस बांसुरी को अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त बांसुरी वादक पंडित राजेंद्र प्रसन्ना ने बजाकर भी देखा था। मथुरा में बिकने वाली बांसुरी 9-10 इंच की होती है, इसे भगवान कृष्ण की पूजा की थाली में रखा जाता है। साथ ही ये बांसुरी बच्चों के खिलौने के रूप में भी बिकती है, जिसमें सामान्य आवाज निकलती है। सामान्य बांसुरी का दाम 4-5 रुपये से शुरू होकर 50 रुपये तक जाती है। प्रोफेशनल बांसुरी की कीमत 50 रुपये से शुरू होती है और यह 2,000 रुपये तक बिक जाती है। खास ऑर्डर पर बनाई जाने वाली बांसुरी की कीमत इससे भी ज्यादा मिल जाती है।

जुनैद ने बताया कि पीलीभीत में बनी बांसुरी अमेरिका, फ्रांस, संयुक्त अरब अमीरात, इजरायल, नेपाल, पाकिस्तान, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन आदि देशों को निर्यात की जाती है। लेकिन शहर से सीधा निर्यात कोरोना महामारी के समय से बंद हो चुका है। अब मुंबई, कोलकाता, दिल्ली आदि के निर्यातक यहां से बांसुरी विदेश भेजते हैं।

वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार वित्त वर्ष 2024-25 में 1,45,669 बांसुरी का निर्यात हुआ, जो वित्त वर्ष 2023-24 के 70,192 के आंकड़े से दोगुना है। भारतीय बांसुरी का सबसे बड़ा खरीदार इजरायल है। 2024-25 में यहां से इजरायल को 63,864 बांसुरी का निर्यात किया था।

सिलचर के बांस से ही क्यों बनती है बांसुरी

पीलीभीत में जो बांसुरी बन रही है, उसके लिए असम के सिलचर से बांस आता है। जुनैद ने बताया कि बांसुरी के लिए सिलचर का बांस सबसे बढ़िया होता है। इसकी गोलाई अच्छी होती है और यह सीधा भी होता है। बाकी जगहों के बांस में लचक होती है, जिससे बांसुरी टेढ़ी बन जाती है। बांसुरी निर्माताओं के मुताबिक सिलचर का बांस पतला और मजबूत होता है, जो बांसुरी बनाने के लिए उपयुक्त है। साथ ही वहां बांस की कई किस्में भी मिलती हैं। बांसुरी बिना गांठ के बांस की अच्छी बनती है और यह बांस असम के इसी इलाके में पैदा होता है।

सरकारी प्रयासों से पहचान बढ़ी, कारोबार नहीं

पीलीभीत के बांसुरी उद्योग को बढ़ावा देने के सरकारी प्रयासों का खास फायदा उद्यमियों को नहीं हो रहा। जुनैद ने कहा कि योगी आदित्यनाथ सरकार ने बांसुरी को एक जिला एक उत्पाद (ओडीओपी) योजना में शामिल किया है और बांसुरी को जीआई टैग भी मिल चुका है। सरकारी प्रयासों से पीलीभीत के बांसुरी उद्योग की पहचान और बढ़ी है, लेकिन बांसुरी की मांग में कमी ही आ रही है। बढ़ती लागत और घटती मांग के कारण लोग इस उद्योग में आना ही नहीं चाहते। उद्यमी शादाब ने कहा कि बांसुरी बनाने वालों को दिन में 500 रुपये ही मिल पाते हैं, जबकि दूसरे काम में इससे ज्यादा कमाए जा सकते हैं। इसलिए भी कारीगर पलायन कर रहे हैं।

First Published - July 27, 2025 | 11:10 PM IST

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