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अभाव से उठकर प्रभाव बनाने वाले जसवंत आखिर में हुए अकेले

Last Updated- December 15, 2022 | 12:43 AM IST

देश के रक्षा, वित्त और विदेश मंत्री रहे जसवंत सिंह को लेकर आखिरी पोस्ट उनके 83वें जन्मदिन पर कुछ महीने पहले दिखी थी। वह 2014 में एक दुर्घटना का शिकार हुए थे और उनके सिर पर भयंकर चोट लगी थी जिसकी वजह से उनका ऑपरेशन करना पड़ा था। उस वक्त उनका इलाज कर रहे डॉक्टरों में से एक ने कहा था कि उन्हें मस्तिष्क का एक खास हिस्सा निकालना पड़ा है। उस वक्त के बाद से ही वह जनता की नजरों से दूर हो गए। उनकी पत्नी शीतल और उनके दो बेटे ही उनका खयाल रख रहे थे। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के संस्थापक सदस्यों में से एक जसवंत सिंह बेहद स्वतंत्र विचारों वाले व्यक्ति थे और अपनी राय जाहिर करते वक्त बेहद निर्भीक होते थे, भले ही इस बात से उनकी पार्टी के साथ असहमति क्यों न हो जाए। लेकिन उनकी पहचान एक सच्चे राष्ट्रवादी और लोकतांत्रिक व्यक्ति के तौर पर होती थी।
पाकिस्तान की सीमा से महज 300 किलोमीटर की दूरी पर मारवाड़ इलाके के जोधपुर से करीब 200 किलोमीटर की दूरी पर लूणी नदी के किनारे पर एक छोटा सा गांव जसोल है जहां से सिंह का ताल्लुक है। पाकिस्तान की सीमा से नजदीक होने की वजह से विभाजन, भारतीय मुसलमानों और विभाजित परिवारों की समस्याएं, उनकी दुविधा को लेकर जसवंत सिंह का अलग नजरिया था।
सिंह उस तबके से ताल्लुक रखते थे जिसे सेना में जाने की परंपरा पर गर्व था। उनके पिता जोधपुर लांसर्स में एक सिपाही थे। ऐसे में सिंह के पास कोई चारा नहीं था। जब सेना के रेजिमेंट में उन्हें शामिल करने की बात आई तब सिंह को घुड़सवार फौज, सेंट्रल इंडिया हॉर्स में शामिल करने के लिए चुना गया। बख्तरबंद कोर अधिकारी के तौर पर उनकी अपनी अलग शैली और अकड़ थी। उन्हें फौज से प्यार भी था और उन्हें इसके खोखले दिखावे को लेकर नफरत भी थी। 1966 में उन्होंने फौज छोड़ दी और जब उनसे इसका कारण पूछा गया तो उन्होंने बिना लाग लपेट के कहा कि उन्हें राजनीति से जुडऩा है।
इसके बाद उनकी जिंदगी में अभाव का दौर आया। फौज की नौकरी छोडऩे के बाद उनके बैंक में केवल 2,600 रुपये थे। उसके माता-पिता उनके इस फैसले से स्तब्ध हो गए थे और उनके पिता ने तो उनसे बात करने से ही इनकार कर दिया था। उनकी पत्नी शीतल का परिवार भी मदद के लिए तैयार नहीं था। कुछ साल पहले उन्होंने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया था, ‘हम दोनों का अपने परिवारों से कोई मदद मांगने का सवाल ही नहीं था। हम जो थे अपने दम पर थे।’
सहकर्मियों और दोस्तों की मदद से वह अपने पैरों पर खड़े होने में कामयाब रहे। इनमें सबसे ज्यादा मददगार जोधपुर के महाराजा रहे और दूसरे एक अन्य उद्योगपति महेंद्र झाबक थे। सिंह ने 1967 में निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर अपना पहला चुनाव लड़ा लेकिन वह हार गए। भैरोंसिंह शेखावत ने उन्हें जनसंघ में शामिल होने को कहा। सिंह ने कहा कि अल्पसंख्यकों के बीच इस पार्टी की छवि को देखते हुए वह पार्टी से जुडऩे में असहज महसूस करते हैं। महारानी गायत्री देवी ने उन्हें ‘स्वतंत्र पार्टी’ में शामिल होने को कहा। हालांकि उन्होंने इसके लिए भी इनकार कर दिया।
बाद में शेखावत के साथ ही उनकी मुलाकात पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से हुई। इसके साथ ही उनके राजनीतिक करियर की शुरुआत हुई । वह दिल्ली आ गए और यहां के उदय पार्क में एक छोटे से अपार्टमेंट में अपने परिवार के साथ रहने लगे। अपनी छोटी सी रसोई में शीतल 30-40 लोगों के लिए खाना बनाती थीं, खासतौर पर आपातकाल के दौरान। प्रधानमंत्री बनने के बाद वाजपेयी उन्हें अपने तीन सबसे अच्छे दोस्तों में शुमार करते थे।
राज्यसभा में उनका पहला कार्यकाल 1980 से 1989 के बीच था जब विपक्ष के लिए बेहद चुनौतियों वाला दौर था। जसवंत सिंह ने 1989 में अपना पहला लोकसभा चुनाव जीता और 1998 तक लोकसभा में चुनाव जीतकर आते रहे। भारतीय राजनीति में ये उथल-पुथल वाला वाला साल था। भाजपा ने वीपी सिंह सरकार का समर्थन किया था लेकिन जब लालू प्रसाद ने बिहार में लालकृष्ण आडवाणी को रथयात्रा अभियान के दौरान गिरफ्तार कर लिया तो पार्टी ने अपना समर्थन वापस ले लिया। लेकिन इन गुजरते सालों में लोकसभा में भाजपा की ताकत बढ़ती चली गई और 1984 की 3 सीट से बढ़कर 1989 में भाजपा की 89 सीट और 1991 में 119 सीट तक हो गई।
विडंबना की बात यह है कि जब पार्टी कामयाब हो रही थी उस वक्त सिंह 1998 में लोकसभा चुनाव हार गए। दिलचस्प बात यह है कि उन्हें वित्त मंत्री बनाया जाना था लेकिन इसकी जगह उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाना पड़ा। एक साल बाद वह राज्यसभा में आए और विदेश मंत्री बने। परमाणु परीक्षणों के बाद दुनिया में भारत को लेकर रुख बदल रहा था और वह ऐसे ही दौर में इस अहम जिम्मेदारी को निभा रहे थे। इसके बाद ही पाकिस्तान ने भी परमाणु परीक्षण कर लिया जिसके साथ ही उपमहाद्वीप में परमाणु परीक्षण की होड़ को लेकर चिंताएं और बढ़ गईं। रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस को रिश्वत घोटाले के बाद सरकार से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया था और कुछ महीनों के लिए सिंह ने उस पद को भी संभाला ।
सिंह के राजनीतिक जीवन में 1999 में आईसी 814 विमान का अपहरण सबसे बड़ा दाग रहा है। भारत को अपहरणकर्ताओं की मांग स्वीकार करनी पड़ी। उन्होंने कई साल बाद बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि उनके पास इस मामले में कोई और चारा नहीं था। उन्होंने कहा था, ‘हर कोई इसके लिए मुझे जिम्मेदार ठहराता है। लेकिन सच यह है कि मैं कुछ नहीं कर सकता था। अफगानिस्तान में जिस हवाई अड्डे पर अपहृत विमान उतरा था वह पहले से ही भरा हुआ था। किसी की उपस्थिति जरूरी थी ताकि रिहाई की जा सके। जिन लोगों का अपहरण किया गया था उनके परिवार के लोग और रिश्तेदार यातायात रोक रहे थे, सड़कों पर आ गए थे। हमारे पास जानकारी थी कि विमान उड़ान भरेगा और हवा में ही उड़ा दिया जाएगा । हमने सबसे प्रतिकूल परिस्थितियों में यात्रियों की रिहाई पर बातचीत की। ऐसा करना ही सही था।’
वाजपेयी सरकार का कार्यकाल 2002 तक खत्म होने वाला था। भाजपा को कुछ विधानसभा चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा और इसके लिए वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के वित्त मंत्रालय में खराब प्रदर्शन को जिम्मेदार ठहराया गया। उस वक्त वाजपेयी ने जसवंत सिंह को फोन किया और उनसे कहा, ‘आपने विदेश मंत्रालय में शानदार काम किया है आप अपना चमत्कार यहां (वित्त मंत्रालय में) भी दिखाएं।’ उनके पास सहमत होने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। उन्हें 2002 में वित्त मंत्री बनाया गया। यह एक ऐसी नौकरी थी जिसके लिए उनमें थोड़ा उत्साह था।
लेकिन जब भाजपा विपक्ष में थी उस वक्त जसवंत सिंह ने जिन्ना की जीवनी लिखी और सरदार पटेल पर भी एक किताब लिखी। इसके बाद ही भाजपा में उन्हें नजरअंदाज करने का अभियान शुरू हो गया। जब उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया था तब उन्होंने बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा था, ‘सभी राजनीतिक दल प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां हैं। भाजपा भी इसका अपवाद नहीं है। लेकिन ऐसा लगता है कि भाजपा पर भी नियंत्रण कर लिया गया है और मैं यह नहीं कहूंगा कि किसके द्वारा ऐसा किया जा रहा है। मैं किसी दूसरे भाजपा को क्षितिज पर उभरते नहीं देखता हूं।’
पार्टी से उनका रिश्ता हमेशा के लिए खराब हो गया। उनकी जन्मभूमि राजस्थान में भी कई तरह की गलतफहमी की वजह से तत्कालीन वसुंधरा राजे सरकार के साथ उनके रिश्ते तल्ख हो गए। जसवंत सिंह राजनीति से बाहर हो गए और 2014 में जब भारी बहुमत के साथ भाजपा सत्ता में आई तब तक पार्टी को उनकी कोई जरूरत ही नहीं रह गई थी और पार्टी में कोई ऐसा नहीं था जो एक उभरती राजनीतिक विचारधारा के लिए एक नया रणनीतिक विचार तैयार कर सके।

First Published - September 27, 2020 | 11:17 PM IST

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