उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में किसी गांव के मामले में मुबारकपुर हटकर है। इसकी गलियां साफ-सुथरी हैं, सड़कें अच्छी-पक्की हैं और कहीं भी खुले नाले नहीं दिखते हैं। हालांकि कुछेक परित्यक्त घर नजर आते हैं, ज्यादातर में अपेक्षाकृत संपन्नता का संकेत मिलता है, कुछ में तो समद्धि का भी। लेकिन इसका श्रेय गांव के प्रमुख उद्योग-रेशम की साड़ी बुनाई को नहीं जाता है, जिन्हें देश भर में बनारसी रेशम की साड़ी के रूप में बेचा जाता है। बल्कि इसकी वजह यहां के निवासियों और आस-पास के गांवों के लोगों का सऊदी अरब पलायन करना और घर पैसा भेजना है। हालांकि कोई आधिकारिक अनुमान तो नहींं है, लेकिन गांव में किसी से भी बात कर लीजिए, उसके यहां सऊदी में काम करने वाला कोई न कोई होगा।
गांव के विपरीत, जो खाड़ी के पैसे की वजह से सुधरा है, मुबारकपुर का 14वीं शताब्दी का रेशमी साड़ी हथकरघा उद्योग अब भी उसी दौर में अटका हुआ है। हाल की घटनाओं ने गहरी खामियों को उजागर किया है, जो कई तरह से मुसलमानों के इस गांव में हाथ से बुनी जाने वाली रेशमी साडिय़ों के भविष्य के लिए खतरा है, जिसमें शिया और सुन्नी दोनों की खासी संख्या है।
हाल के महीनों में कच्चे रेशम के दाम तकरीबन दोगुने होकर 6,500 रुपये प्रति किलोग्राम हो चुके हैं। हथकरघा इकाइयां चलाने वाले साड़ी का बिक्री मूल्य 1,000 रुपये से ज्यादा नहीं कर पाए हैं। शुद्ध आय में गंभीर रूप से नुकसान होने की वजह से कई इकाइयों ने कच्चे रेशम की खरीद कम कर दी है। इससे कई हथकरघों के पास कोई काम नहीं रहा, जिससे उन्हें काम बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। कई हथकरघों के अस्थायी रूप से बंद होने की वजह से थोड़ी-बहुत कमाई करते हुए वहां काम करने वाले बुनकरों और उनके परिवारों को कहीं और रोजगार की तलाश करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।
कच्चे रेशम के स्थानीय आपूर्तिकर्ता प्रमोद अग्रवाल ने कहा,’ कर्नाटक में वर्ष 2021 के चक्रवात ने राज्य में रेशम उत्पादन को बुरी तरह प्रभावित किया है। अब मैं इसे 6,000 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से खरीद रहा हूं, यह उस कीमत से दोगुनी है, जिस पर मैं आम तौर पर खरीदता हूं।’ हालांकि वर्ष 2021 के चक्रवात तौकते का कर्नाटक के रेशम उत्पादन पर असर जरूर पड़ा है, लेकिन हाल के दिनों में चीन और वियतनाम से कच्चे रेशम का आयात भी कम हुआ है, जिससे ये हालात बन गए हैं। वर्ष 2019-20 में भारत ने चीन से 200 टन कच्चा रेशम लिया था। वर्ष 2020-21 में यह गिरकर 69 टन रह गया। वियतनाम से भी आयात में गिरावट आई। इस अवधि के दौरान भारत का रेशम आयात 50 प्रतिशत से अधिक गिर चुका है।
मुबारकपुर में 200 हथकरघे चलाने वाले यहां के संपन्न परिचालक इफ्तिखार अहमद अंसारी कहते हैं कि हाल के महीनों में उन्होंने उनमें से 30 हथकरघे बंद कर दिए हैं। अंसारी ने कहा ‘अगर ऐसा जारी रहा, तो मुझे और बंद करने पड़ेंगे। हाल ही में कच्चे रेशम के दामों का दोगुना होना बड़ी दिक्कतों का एक छोटा-सा हिस्सा ही है।’ अंसारी ने कहा कि मौजूदा सरकार ने 10 फीसदी सब्सिडी रोक दी है, जिसे संप्रग सरकार में दिया जाता था। यह सब्सिडी कच्चे रेशम की खरीद की लागत पर दी गई थी।
मुबारकपुर में हथकरघा परिचालकों की मायूसी का यह प्रमाण गांव के बाहरी इलाके से दूर नहीं है। व्यापारियों को मुबारकपुर की रेशमी साडिय़ां बेचने के लिए लोगों को किराये पर दिए जाने के वास्ते 180 से अधिक दुकानों वाला एक वाणिज्यिक केंद्र पिछली सरकार द्वारा बनाया गया था और वर्ष 2017 में समाजवादी पार्टी के सत्ता से बाहर होने से पहले इसका उद्घाटन किया गया था। इसे एक ही जगह पर सभी सुविधाओं वाला केंद्र बनना था और इरादा था कि यहवर्ष 2000 तक मौजूद रहने वाले इसी प्रकार के मार्केटप्लेस की जगह लेगा, जब मुबारकपुर में शिया-सुन्नी के सांप्रदायिक दंगों में बमबारी और गोलीबारी में कई लोग मारे गए थे। उस सांप्रदायिक दंगे के बाद डरे हुए व्यापारियों ने गांव में आना बंद कर दिया था, जिससे गांव के कई लोगों ने खरीदारों के पास जाना शुरू कर दिया था। एक भी दुकान किराये पर नहीं चढऩे से आज तक यह वाणिज्यिक केंद्र बदहाल पड़ा है।
पावरलूम, जिसने वर्ष 2005 के बाद काफी पकड़ बना ली, की शुरुआत होने से मुबारकपुर के रेशम हथकरघा उद्योग की संभावनाओं को और ज्यादा नुकसान पहुंचा। हालांकि हस्त-निर्मित उत्पादों की विशिष्टता का कोई मुकाबला नहीं है, लेकिन पावरलूम काफी तेजी से उत्पादन कर सकते थे। मुबारकपुर, जहां केवल हथकरघे ही हैं, के लिए यह बहुत बुरी खबर है। गांव के बुजुर्ग कहते हैं कि वर्ष 2000 के शिया-सुन्नी दंगों और पांच साल बाद पावरलूम अपनाने के बाद सऊदी अरब की ओर पलायन ने काफी रफ्तार पकड़ ली है।
मुबारकपुर में बुनकर इस पूरी अवसंरचना में सबसे नीचे हैं। हालांकि अंसारी जैसे हथकरघा परिचालक इन बुनकरों को करीब 6,000 रुपये प्रति माह का भुगतान करते हैं, लेकिन वास्तव में ज्यादातर बुनकरों को काफी कम वेतन मिलता है। उन्हें हर साड़ी के लिए एक निश्चित दर पर भुगतान किया जाता है। तेज धूप वाली एक दोपहर में गांव का 20 वर्षीय एक युवक – विंध्याचल 12 मीटर की बनारसी रेशमी साड़ी की बुनाई करते हुए अपने करघे पर व्यस्त है। उसने इन करघों पर छह साल की उम्र से ही काम करना शुरू कर दिया था। दिन में 10 घंटे की मेहनत के लिए उसे प्रति मीटर 70 रुपये मिलते हैं। किसी बुनकर को 12 मीटर की बनारसी साड़ी बुनने में सात दिन लगते हैं। अपने काम के लिए उसे एक साड़ी के लिए 840 रुपये मिलते हैं। यह एक ऐसा उत्पाद, जो विभिन्न बिचौलियों से गुजरने के बाद आम तौर पर हजारों और यहां तक कि लाखों रुपये में बिकता है।
