न्यायमूर्ति एन वेंकट रमण अगले 18 महीने तक देश के मुख्य न्यायाधीश का दायित्व संभालेंगे। वह 24 अप्रैल को इस पद की शपथ लेंगे। लेकिन जानकारों की मानें तो रमण से किसी उठापटक भरे फैसले की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। उच्चतम न्यायालय के एक वरिष्ठ अधिवक्ता कहते हैं, ‘वह स्थापित व्यवस्था के अनुकूल चलने वाले शख्स हैं। लेकिन इसी के साथ वह अपनी समझ का भी इस्तेमाल करते हैं और कानून को हमेशा पहले रखते हैं।’
रमण अपने परिवार के पहले शख्स हैं जो वकालत के पेशे से जुडे हैं। उन्हें न तो अपने पिता से कोई स्थापित प्रैक्टिस विरासत में मिली थी और न ही कानूनी किताबों की समृद्ध लाइब्रेरी मिली। फिर भी वह अपने इलाके में अच्छी हैसियत रखने वाले परिवार से ताल्लुक रखते हैं। उनका परिवार आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले से संबंध रखता है जहां पर कम्मा समुदाय का खासा प्रभाव है। कोरोमंडल तट के आसपास कम्मा समुदाय के लोगों के पास अच्छी-खासी जमीन रही है। आंध्र प्रदेश के दिग्गज नेता रहे एन टी रामाराव, उनके दामाद एवं पूर्व मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू और तेलुगू देशम पार्टी के वरिष्ठ नेता पी उपेंद्र भी कम्मा जाति से ही ताल्लुक रखते हैं। उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जे चेलमेश्वर और मौजूदा न्यायाधीश एल नागेश्वर राव भी रमण की तरह कम्मा समुदाय से ही आते हैं। न्यायमूर्ति रमण ने वर्ष 1983 में वकालत करनी शुरू की थी और वर्ष 2000 में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त हुए। उस समय चंद्रबाबू नायडू राज्य के मुख्यमंत्री थे। रमण को राज्यसभा का सदस्य बनाए जाने का प्रस्ताव भी रखा गया था लेकिन उन्होंने न्यायाधीश बनने का ही विकल्प चुना। खुद रमण यह सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि उनके पिता को लगता था कि आपातकाल की घोषणा के बाद वह गिरफ्तार कर लिए जाएंगे। यह तथ्य रमण की शख्सियत को एक नया आयाम देती है। जब उनका कानूनी करियर परवान चढ़ रहा था तो उन्होंने खुद को एक सियासी मुकाबले में फंसा हुआ पाया। चंद्रबाबू नायडू के कट्टर विरोधी एवं आंध्र प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री वाई एस जगनमोहन रेड्डी ने यह आरोप लगाया कि रमण के परिवार को नायडू के कार्यकाल में गैरकानूनी ढंग से जमीन आवंटित की गई थी। उसके बाद जगनमोहन ने पिछले साल मुख्य न्यायाधीश को लिखे एक पत्र में यह आरोप भी लगाया कि नायडू के साथ करीबी रिश्तों के कारण उनकी सरकार को भी अस्थिर करने की कोशिशें की जा सकती हैं। जगनमोहन ने उस पत्र में कहा था, ‘चंद्रबाबू नायडू के साथ रमण की नजदीकी जगजाहिर है। मैं यह बयान पूरी जिम्मेदारी से दे रहा हूं… रमण उच्च न्यायालय के कामकाज को प्रभावित करते रहे हैं। कुछ सम्मानित न्यायाधीशों के रोस्टर में बदलाव और तेलुगू देशम पार्टी से जुड़े कुछ मसलों को चुनिंदा न्यायाधीशों के सुपुर्द किया गया है।’
जगनमोहन ने अपने दावों के समर्थन में सात दस्तावेज भी लगाए थे। उसमें शामिल दस्तावेज के मुताबिक, कुछ वकीलों को उच्च न्यायालय में न्यायाधीश बनाए जाने की योग्यता को लेकर नायडू और रमण के विचार समान हैं। उन्होंने कहा था कि रमण ने आंध्र प्रदेश की अदालतों में होने वाली नियुक्तियों को प्रभावित करने में भी अहम भूमिका निभाई थी। हालांकि जगनमोहन ने अपने पत्र में इस बात का कोई उल्लेख नहीं किया कि न्यायमूर्ति रमण पूर्व एवं मौजूदा सांसदों एवं विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामलों की त्वरित सुनवाई करने वाले खंडपीठ के प्रमुख भी रहे हैं। खुद जगनमोहन भ्रष्टाचार एवं कदाचार के 30 से अधिक मामलों का सामना कर रहे हैं और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) उन्हें गिरफ्तार कर जेल तक भेज चुकी है। बहरहाल रमण पर लगाए गए उनके आरोपों को उच्चतम न्यायालय की आंतरिक जांच प्रक्रिया में खारिज कर दिया गया। उच्चतम न्यायालय के एक वकील कहते हैं, ‘साफ कहें तो वह एक ऐसे शख्स हैं जिनका राजनीति में एक सीमा से ज्यादा लगाव रहा है, उन्हें बखूबी पता है कि राजनीतिक व्यवस्था कैसे काम करती है लेकिन वह बुनियादी तौर पर कानून की नजर में सही पक्ष के साथ रहे हैं।’ बिजऩेस स्टैंडर्ड ने जितने भी वकीलों से बात की, उनमें से एक भी ऐसा नहीं मिला जिसने रमण की कानूनी महारत या निष्ठा पर सवाल उठाए। यहां तक कि जगनमोहन रेड्डी का मुकदमा लडऩे वाले वकील ने भी अदालत में ऐसा नहीं कहा। एक वरिष्ठ अधिवक्ता इस पूरे प्रकरण को कुछ यूं पेश करते हैं, ‘रमण को उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनाने का समय रहा हो या देश का मुख्य न्यायाधीश बनने का मौका हो, उनकी नियुक्ति को रोकने की तमाम कोशिशें की गईं।’
वैसे कहा जाता है कि किसी भी न्यायाधीश को परखने का सबसे सही तरीका उसके द्वारा दिए गए फैसलों का मूल्यांकन ही है। रमण का शायद सबसे अहम फैसला कश्मीर में इंटरनेट पर लगी पाबंदी के बारे में था। एक वकील कहते हैं, ‘उन्होंने पाबंदी हटाने का फैसला प्रशासन पर छोड़ दिया। कानून के हिसाब से वह पूरी तरह सही थे लेकिन उन्होंने पाबंदी लगाने का काम प्रशासन पर छोड़कर एक तरह से किनारे बैठना ही सही समझा। लेकिन वह किसी लोकप्रिय विकल्प के आगे नहीं झुके, उन न्यायाधीशों के उलट जिन्होंने सरकार के सभी कामों को सही ठहराने के लिए अपने कानून ही बना डाले।’ सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े कहते हैं, ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि रमण को लोग सम्मान की नजर से देखते हैं। वह फैसले अपनी सोच-समझ के मुताबिक करते हैं। कभी वह फैसला आपके पक्ष में जाता है तो कभी वह आपके खिलाफ भी जा सकता है। वह एक सज्जन व्यक्ति हैं जो दूसरों को इज्जत देते हैं और कुछ लोगों के उलट खुद भी सम्मान पाने की काबिलियत रखते हैं।’
संतोष हेगड़े का इशारा शायद उस प्रकरण की तरफ है जिसमें उच्चतम न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश ने एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘बहुमुखी प्रतिभा वाला जीनियस’ बताते हुए जमकर तारीफ की थी। उन्होंने अपने पोते के मुंडन संस्कार कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री और कुछ अन्य मंत्रियों को भी शामिल होने का निमंत्रण दिया था। एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश तो सेवानिवृत्त होने के चंद महीने बाद ही राज्यसभा के मनोनीत सदस्य बन गए। जब बात गैर-न्यायिक आचरण की आती है तो रमण के सामने चुनौती बड़ी नहीं है। लेकिन उनके सामने दूसरे तरह की चुनौतियां हैं। मसलन, समलैंगिक वकील सौरभ किरपाल को न्यायाधीश बनाने का मसला। न्यायमर्ति गीता मित्तल ने 2017 में किरपाल के समक्ष दिल्ली उच्च न्यायालय में न्यायाधीश बनाने की पेशकश रखी थी जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया था। लेकिन न्यायाधीशों के नाम की अनुशंसा करने वाला सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम किरपाल के नाम पर अब तक कोई फैसला नहीं कर पाया है। किसी को भी नहीं पता कि समस्या क्या है? लेकिन जानकारों का कहना है कि कानून मंत्रालय ही इस नियुक्ति के प्रस्ताव को दबाकर बैठ गया है। और इसकी वजह यह बताई जा रही है कि किरपाल के पार्टनर भारत के नागरिक नहीं हैं।
देश के वरिष्ठ वकील इस मामले में न्यायमूर्ति रमण के रुख पर करीबी नजर रखे हुए हैं। इस मामले से यह भी तय होगा कि रमण न्यायपालिका को स्वतंत्रता एवं दृढ़संकल्प के नए रास्ते पर ले जाएंगे या नहीं।
