कभी राज परिवारों की महिलाओं की शान बढ़ाने वाली चंदेरी साड़ी का कारोबार कोरोना की मार से उबरने लगा है। दो साल से शादियों पर कोरोना की बंदिशें लागू होने के कारण चंदेरी साड़ी बहुत कम बिक रही थी। मगर अब ढील मिलने और शादियों का सीजन पहले की तरह शुरू होने से इस साल चंदेरी का कारोबार एकदम चमक गया है। कारेाबारियों को उम्मीद है कि पिछले दो साल के मुकाबले इस बार बिक्री दोगुनी हो जाएगी।
बिक्री बढऩे के बाद भी चंदेरी साड़ी के कारोबारियों की मुश्किलें कम नहीं हुई हैं। सबसे बड़ी मुसीबत कच्चा माल महंगा होने से आई है क्योंकि इससे साड़ी बनाने की लागत बढ़ रही है और उसके अनुपात में दाम बढ़ा नहीं सकते। इसलिए कारोबारियों को अपना मुनाफा कम करना पड़ रहा है क्योंकि दो साल बहुत कम कमाई वाले रहे और इस बार ग्राहकों को नाराज नहीं किया जा सकता। कोरोना लॉकडाउन के दौरान साड़ी बुनने वालों ने भी सीधे ग्राहकों को माल बेचना शुरू कर दिया था, जिसकी मार थोक कारोबारियों पर पड़ रही है। बुनकरों को कारोबार सुधरने का फायदा हो रहा है और उन्हें साड़ी बुनने के भरपूर ऑर्डर मिल रहे हैं तथा मजदूरी भी मुंहमांगी मिल रही है।
मध्य प्रदेश के चंदेरी में लगभग 5,500 हैंडलूम हैं। यहां साडिय़ों का कारोबार 20-25 हजार लोगों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रोजगार देता है। छोटे-बड़े मिलाकर 250 से 300 साड़ी निर्माता और विक्रेता हैं। चंदेरी में कुछ सौ रुपये से लेकर लाख रुपये तक कीमत की साडिय़ां बनती हैं मगर 2,000 से 10,000 रुपये कीमत की साडिय़ां सबसे ज्यादा बिकती हैं। कुल बिक्री में इनकी हिस्सेदारी 80 फीसदी है। चंदेरी साड़ी को असली रेशम के साथ हाथ से बुना जाता है और यहां के बुनकर डिजाइन तथा रंगों के संयोजन में अपनी पूरी कलाकारी दिखाते हैं। इसीलिए ये साड़ी अलग ही नजर आती हैं। साड़ी निर्माता बुनकरों को कच्चा माल देकर साड़ी बुनवाते हैं। महामारी आने से पहले साल में 150 से 200 करोड़ रुपये की चंदेरी साड़ी, सूट, कुर्ते बिक ही जाते थे। कोरोना के दौरान यह घटकर 50 से 70 करोड़ रुपये रह गया था। इस साल कारोबार बढ़कर 100 से 125 करोड़ रुपये तक पहुंचने की उम्मीद है।
चंदेरी साड़ी के उद्यमी बांके बिहारी लाल चतुर्वेदी ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि चंदेरी साड़ी का कारोबार अब कोरोना की मार से उबर चुका है। पिछले साल की तुलना में इस साल बिक्री दोगुने से भी ज्यादा बढऩे की उम्मीद है क्योंकि इस साल शादियां भी खूब हैं और शादियों पर किसी तरह की बंदिशें नहीं हैं। चंदेरी में मध्य प्रदेश के साथ ही बाहरी राज्यों के कारोबारी भी ऑर्डर देने आ रहे हैं। चंदेरी साड़ी के कारोबारी आलोक कठेरिया बताते हैं कि शादियों के दौरान चंदेरी साड़ी की मांग सबसे ज्यादा रहती है और इस साल शादियों से बंदिशें हटने के कारण अगले दो-तीन महीने चंदेरी साड़ी के कारोबारियों को बहुत व्यस्त रखेंगे। हालांकि कारोबार कोरोना से पहले के स्तर तक तो नहीं पहुंच पाएगा मगर 80 फीसदी तक होने की उम्मीद है। दो साल से सुस्ती झेल रहे कारोबारियों के लिए यही बड़ी बात है।
बिक्री बढऩे से चंदेरी साड़ी के बुनकरों के भी अच्छे दिन आ गए हैं। उन्हें काम भी जमकर मिल रहा है और मजदूरी भी समय पर मिल रही है। चंदेरी साड़ी बुनने वाले नासिर अंसारी बताते हैं कि माल कम बिकने के कारण पिछले दो साल से बुनकरों को साड़ी बुनने के ऑर्डर बहुत कम मिल रहे थे और मजदूरी भी अटक रही थी। अब चंदेरी साडिय़ों की बिक्री बढऩे से ऑर्डर भी आ रहे हैं और पूरी मजदूरी भी समय से मिल रही है। नासिर ने बताया कि कोरोना के दिनों में हफ्ते में एक साड़ी बुनने का ऑर्डर भी मयस्सर नहीं हो रहा था मगर अब हर हफ्ते 3-4 साड़ी बुनने को मिल जाती हैं।
लागत का बढ़ रहा बोझ
चंदेरी साड़ी का कच्चा माल पिछले साल भी 40-50 फीसदी महंगा हुआ था। इस बार माल पिछले साल से भी 50 फीसदी महंगा हो गया है। गनीमत यह है कि चंदेरी साड़ी की लागत में कच्चे माल का हिस्सा 30-40 फीसदी ही होता है और 60-70 फीसदी लागत मजदूरी की होती है। इस वजह से कच्चे माल की महंगाई उतनी नहीं साल रही है। फिर भी रेशम का दाम पहले 4,000 से 5,500 रुपये प्रति किलोग्राम था, जो अब बढ़कर 6,000 से 8,500 रुपये प्रति किलो हो गया है। 450 से 550 रुपये में आने वाला जरी का बंडल 550 से 650 रुपये में आ रहा है। साड़ी बनाने में काम आने वाली अट्टी भी महंगी हो गई है। चतुर्वेदी ने कहा कि जो साड़ी पहले 5,000 रुपये में बन जाती थी, वो अब 6,000 रुपये से अधिक में बन रही है। कठेरिया कहते हैं कि कच्चा माल महंगा होने के साथ ही मजदूरी बढऩे से भी लागत बढ़ी है। मांग ज्यादा होने से पहले की तरह कम मजदूरी पर बुनाई वाले नहीं मिल रहे हैं।
चंदेरी कारोबारी अरुण सोमानी कहते हैं कि लागत के हिसाब से दाम नहीं बढ़ रहे हैं क्योंकि ग्राहक छिटकने का खतरा है। इसलिए मुनाफे पर ही चोट झेलनी पड़ रही है। कोरोना से पहले चंदेरी साड़ी पर 20-25 फीसदी मुनाफा मिल जाता था, जो अब घटकर 10 फीसदी से भी नीचे आ गया है। चतुर्वेदी कहते हैं कि पहले 4,000 से 5,000 रुपये की साड़ी पर 500-600 रुपये आसानी से मिल जाते थे मगर अब 200—300 रुपये ही मिल पा रहे हैं। कारोबार में बने रहने के लिए मजबूरी में कम मुनाफे पर भी धंधा करना पड़ रहा है। कोरोना के दौरान बुनकरों ने भी खुदरा ग्राहकों को जमकर ऑनलाइन साडिय़ां बेचीं, जिसका नुकसान अब थोक कारोबारियों को हो रहा है।