महंगाई की मार से जहां पूरी दुनिया के कारोबारी परेशान हैं वहीं पूरे देश में घूम घूमकर गरम कपड़ों का कारोबार करने वाले तिब्बती शरणार्थी इस वर्ष अच्छे कारोबार की उम्मीद कर रहे हैं।
इस उम्मीद की वजह मौसम में तेजी से आ रहे बदलाव को माना जा रहा है। इस वर्ष गरम कपड़ों के कारोबार में 20 से 25 फीसदी की गरमाहट आने की उम्मीद जताई जा रही है।
वैश्विक स्तर पर मौसम में आ रहे बदलाव के चलते हमेशा सामान्य ताममान स्तर पर रहने वाले शहरों में भी भारी बदलाव देखने को मिल रहा है। पिछले साल मुंबई में ताममान गिरने की वजह से लोगों को गरम कपड़े खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ा था।
मौसम वैज्ञानिकों द्वारा मिल रहे संकेतों से साफ पता चलता है कि इस बार पिछले साल की अपेक्षा तापमान में ज्यादा गिरावट देखी जा सकती है। शायद इस बात को भांपते हुए सर्दियों की शुरुआत होते ही देश के लगभग सभी बड़े शहरों के फुटपाथों पर गरम कपड़ों की दुकान सजाने वाले तिब्बती मूल के कारोबारी इस बार बड़े पैमाने पर अपनी दुकानों में गरम कपड़ों का स्टॉक जमा कर रहे हैं।
अक्टूबर केअंतिम सप्ताह से फरवरी के अंत तक तिब्बती कारोबारी दिल्ली, आगरा, पटना, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, मुंबई, पुणे, अहमदाबाद, चेन्नई, कोलकाता जैसे बड़े शहरों में गरम कपड़ों का कारोबार करने के लिए जमा होते हैं। तीन से चार महीने तक गरम कपड़ों का कारोबार करने के बाद ये अपने यहां वापस चले जाते हैं और अगले साल सर्दियों की शुरुआत से पहले फिर रंग बिरंगे ऊनी कपड़े लेकर ये आ जाते हैं, जो लोगों के आकर्षण के केन्द्र भी बने रहते हैं।
लोगों के आकर्षण की मुख्य वजह दूसरे कारोबारियों की अपेक्षा काफी कम कीमत पर कपड़े उपलब्ध कराना भी है।मुंबई में परेल, सीएसटी, दादर, बंदर मस्जिद और चर्चगेट सहित सभी प्रमुख इलाकों में ये अपनी दुकानें लगाते हैं।
परेल इलाके में अपनी दुकान सजाए तिब्बती टेजटिल कहता हैं कि इस बार हमारा कारोबार 25 फीसदी ज्यादा तो होगा ही क्योंकि पिछले साल मुंबई में थोड़ी सी ठंड पड़ गई थी तो हमारा पूरा माल जनवरी में ही बिक गया था। इसीलिए इस बार हम ज्यादा माल लेकर आए हैं। महंगाई और पिछले बार भारी मांग को देखते हुए इस बार इनके गरम कपड़ों की कीमतों में लगभग 20 फीसदी की गरमाहट देखी जा रही है।
लेडिज और जेंटस के सभी तरह के गरम कपड़े इन लोगों के पास मिल जाते हैं। शाल, स्वेटर, जैकेट, टोपी, मफलर, चादर, गाऊन इनके पास 100 रुपये से लेकर 500 रुपये तक में मिल रहे हैं। बच्चों के गरम कपड़े तो देखते ही बनते है।
पूजा बताती है कि लुधियाना से हम लोग कपड़े लेकर आते हैं। इसके अलावा ऊन खरीद कर साल भर हम आपने हाथ से भी बनाते हैं लेकिन ज्यादातर लोग मशीन के बने कपड़े पसंद करते हैं। अपनी मदद के लिए कुछ स्थानीय लोगों को हम तीन महीने के लिए अपने साथ काम के लिए रख लेती है।
इस दौरान हमें इतनी कमाई हो जाती है कि सालभर हम खा लेते हैं और अगले साल फिर से तीन महीना काम करते हैं।