करीब एक पखवाड़ा पहले इस समाचार पत्र में खबर छपी थी कि केंद्र सरकार के 17 विभागों के पास प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के 46 प्रस्ताव करीब 12 सप्ताह से लंबित हैं। ऐसे आवेदनों के निपटान की समय सीमा भी 12 सप्ताह है। उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्द्धन विभाग यानी डीपीआईआईटी इसे लेकर चिंतित था और उसने सभी विभागों को पत्र लिखकर कहा कि वे इन आवेदनों की मंजूरी की गति तेज करें। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कई मामलों में गृह मंत्रालय द्वारा अनिवार्य सुरक्षा मंजूरी प्रदान करने के बाद भी ऐसी देरी हुई।
क्या यह भी बीते कुछ महीनों में देश में सकल एफडीआई आवक में कमी की वजह हो सकती है? यह सही है कि वैश्विक एफडीआई में धीमापन आया है लेकिन देश की सकल एफडीआई आवक में 2022-23 में तेज गिरावट आई और यह 16 फीसदी गिरकर 71 अरब डॉलर रहा। याद रहे कि नौ वर्षों में यह पहला मौका था जब देश की सकल एफडीआई आवक में कमी आई। चिंता की बात यह है कि 2023-24 के पहले 11 महीनों में भी गिरावट का सिलसिला जारी रहा, हालांकि गिरावट की दर में उल्लेखनीय कमी आई।
अप्रैल से फरवरी 2023-24 में सकल एफडीआई आवक 2.7 फीसदी गिरकर 65 अरब डॉलर रही। पूरे वर्ष के आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं। यह गिरावट कितनी गंभीर है? नरेंद्र मोदी सरकार कहेगी कि उसके 10 वर्ष के कार्यकाल के शुरुआती आठ साल में हर साल सकल एफडीआई आवक बढ़ी और शेष दो वर्षों की गिरावट के लिए विकासशील देशों में बढ़ी ब्याज दर तथा वैश्विक आर्थिक दिक्कतें जिम्मेदार हैं जिन्होंने अधिकांश देशों में एफडीआई आवक को प्रभावित किया। परंतु यह स्पष्टीकरण देश में एफडीआई प्रवाह की एक बड़ी समस्या की अनदेखी कर देता है। देश में मौजूदा प्रत्यक्ष विदेशी निवेशकों द्वारा धन की स्वदेश वापसी या विनिवेश के लिए जो किया जा रहा है, वह कहीं अधिक गंभीर स्थिति की ओर संकेत करता है।
सन 2001-02 से 2008-09 तक मौजूदा विदेशी निवेशकों द्वारा धन की स्वदेश वापसी या विनिवेश सकल एफडीआई आवक का बहुत छोटा हिस्सा था। यह 0.08 से 1.15 फीसदी के बीच सीमित था। बहरहाल, 2009-10 में यह हिस्सेदारी बढ़कर 12 फीसदी हो गई यानी 38 अरब डॉलर के सकल एफडीआई की तुलना में 4.6 अरब डॉलर की वापसी। 2011-12 में यह बढ़कर 29 फीसदी हो गई यानी 46.55 फीसदी के सकल एफडीआई की तुलना में 13.6 अरब डॉलर की वापसी। यह बात भी उल्लेखनीय थी कि 2009 से 2012 के बीच जब सकल एफडीआई 2.1 से 2.8 फीसदी की अच्छी दर पर था तब भी उस वक्त मौजूदा विदेशी निवेशकों में से कई या तो अपनी पूंजी वापस अपने देश भेज रहे थे या उसे अन्य जगहों पर भेजकर भारत में अपने कारोबार से बाहर निकल रहे थे अथवा विनिवेश के जरिये अपनी हिस्सेदारी कम कर रहे थे।
इन तीन वर्षों के दौरान ऐसी वापसी जीडीपी के 0.3 फीसदी से बढ़कर 0.7 फीसदी हो गई। यह वह अवधि थी जब वैश्विक आर्थिक उथलपुथल थी और ब्याज दरें बढ़ रही थीं। परंतु ऐसी निकासी ने पहले से जुटाए गए विदेशी निवेश को बरकरार रखने की देश की क्षमता पर भी बुरा असर डाला।
बाद के चार वर्षों में हालात में अपेक्षाकृत सुधार हुआ। सकल एफडीआई में 2012-13 से सुधार आने लगा और उल्लेखनीय बात यह है कि 2014 में मोदी सरकार के गठन के बाद सकल एफडीआई में मौजूदा विदेशी निवेशकों का विनिवेश और स्वदेश वापसी तेजी से कम हुआ। यह 2011-12 के 29 फीसदी से कम होकर 2015-16 में 19 फीसदी रह गया।
बहरहाल 2016-17 से यह रुझान करीब तीन वर्ष के लिए बदला। देश का सकल एफडीआई प्रवाह बढ़ता रहा, हालांकि इसकी वाार्षिक दर कम हुई और एक से आठ फीसदी के बीच रही। परंतु सकल एफडीआई आवक में स्वदेश वापसी और विनिवेश की हिस्सेदारी बढ़कर 30-35 प्रतिशत हो गई। क्या नवंबर 2016 की नोटबंदी और जुलाई 2017 में वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी के लागू होने की मौजूदा एफडीआई के बाहर जाने में कोई भूमिका थी?
कोविड-19 के ठीक पहले यानी 2019-20 में न केवल देश के सकल एफडीआई आवक में 20 फीसदी का इजाफा हुआ बल्कि विनिवेश और स्वदेश वापसी के लिए निकासी की दर भी धीमी हुई। इसके परिणामस्वरूप 2019 में 74 अरब डॉलर की सकल एफडीआई आवक में केवल 18 अरब डॉलर की राशि का विनिवेश हुआ और वह देश से वापस गई। इस प्रकार यह हिस्सेदारी घटकर 25 फीसदी से नीचे आ गई।
अगले दो वर्ष देश कोविड से प्रभावित रहा और सकल एफडीआई आवक बढ़ी लेकिन 2022-23 में इनमें 16 फीसदी गिरावट देखने को मिली और यह 71 अरब डॉलर रह गया। वर्ष 2020-21 और 2021-22 के दौरान स्वदेश वापसी और विनिवेश भी बढ़कर सकल एफडीआई आवक के 33-34 फीसदी हो गया था और 2022-23 में तो यह 41 फीसदी तक जा पहुंचा। 2023-24 के पहले 11 महीनों में इस चिंताजनक रुझान में और गिरावट आई। अप्रैल-फरवरी 2023-24 के दौरान यह बढ़कर 41 फीसदी हो गया और इस अवधि की सकल एफडीआई आवक के 59 फीसदी के बराबर रहा।
ऐसे में यह स्वाभाविक है कि एफडीआई को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार विभाग यानी डीपीआईआईटी इस बात का परीक्षण करे कि आखिर क्यों विदेशी निवेशकों के आवेदनों को मंजूर करने में समय लग रहा है। इसका काम इसलिए भी अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया क्योंकि मोदी सरकार ने 2017 में एक संस्थागत पुनर्गठन किया।
विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड जो केंद्रीय वित्त मंत्रालय के दायरे में था, उसे जून 2017 के एक आदेश के जरिये समाप्त कर दिया गया। सरकार के अलग-अलग विभागों को यह अधिकार दिया गया कि वे औद्योगिक नीति एवं संवर्धन विभाग के साथ मशविरा करके एफडीआई प्रस्तावों को मंजूरी दें। बाद में इसे ही डीपीआईआईटी का नाम दिया गया। देश में एफडीआई की आवक में गिरावट की प्रकृति को देखते हुए डीपीआईआईटी के लिए बेहतर होगा कि वह संस्थागत सुधार के बारे में विचार करे।
विदेशी निवेश के आवेदनों को मंजूरी के लिए विकेंद्रीकृत व्यवस्था में अधिक सतर्कता की आवश्यकता है। सरकार एफआईपीबी जैसे संस्थान को पुनर्जीवित करने पर विचार कर सकती है जो पर्याप्त अधिकार संपन्न हो और जिसे विदेशी निवेश प्रस्तावों को मंजूरी का काम सौंपा जा सके। इसमें न केवल सुसंगत मंजूरी प्रक्रिया होनी चाहिए बल्कि उसे इतना अधिकार संपन्न भी होना चाहिए कि देश को विदेशी निवेशकों का पसंदीदा केंद्र बनाने की राह में आने वाली किसी भी प्रक्रियागत या नीतिगत दिक्कत को दूर कर सके। फिलहाल विभिन्न विभाग और मंत्रालय शायद इसे लेकर पूरी तरह अधिकार संपन्न न हों।
इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि एक नया अंतर मंत्रालयीन संस्थान इस चिंताजनक रुझान की पड़ताल कर सकता है कि आखिर कैसे मौजूदा निवेशक अपनी पूंजी को विनिवेश के जरिये या अन्य तरीकों से वापस ले जा रहे हैं। यह सही है कि भले ही एफडीआई की कुल आवक में इजाफा हो लेकिन कुछ निवेश तो विनिवेश या वापसी के जरिये यहां से जाएगा ही। परंतु भारत में ऐसी निकासी की दर बहुत तेजी से बढ़ी है। इससे देश के भुगतान संतुलन पर एफडीआई की आवक का सकारात्मक प्रभाव निष्क्रिय हो जा रहा है।
ऐसे में विदेशी निवेशकों को आकर्षित करके तथा उनके आवेदनों की तेज मंजूरी की मदद से ही यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि मौजूदा निवेशक देश में बने रहें और अपने कारोबार का विस्तार करके देश की अर्थव्यवस्था को उच्च निवेश का लाभ लेने दें। इन हालात में पहला कदम यही होगा कि यह समझने की प्रक्रिया आरंभ की जाए कि देश के सकल एफडीआई प्रवाह में विनिवेश और धन वापसी की हिस्सेदारी पिछले कुछ सालों में बढ़ी क्यों है?