शोध एवं विकास एक बड़ा वैश्विक उद्यम है। दुनिया के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का दो फीसदी से थोड़ा अधिक शोध एवं विकास में व्यय किया जाता है। दुनिया के 180 से अधिक देशों में शोध एवं विकास में दो लाख करोड़ डॉलर से अधिक की जो राशि व्यय की जाती है उसमें अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी और दक्षिण अफ्रीका की हिस्सेदारी तीन चौथाई से अधिक है।
उद्योगों का आंतरिक व्यय कुल शोध एवं विकास निवेश के दोतिहाई से थोड़ा अधिक है। इसमें भी उच्च शिक्षा और सरकारी प्रयोगशालाओं में व्यय 60:40 में बंटा हुआ है।
उद्योगों की बात करें तो शीर्ष पांच उद्योगों- औषधि, वाहन, तकनीक, हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर और इलेक्ट्रॉनिक्स पूरे औद्योगिक शोध एवं विकास में 73 फीसदी के लिए उत्तरदायी हैं। उन उद्योगों के भीतर भी यह चुनिंदा कंपनियों तक सीमित है। शीर्ष 20 कंपनियां वैश्विक औद्योगिक शोध एवं विकास व्यय के 22 फीसदी के लिए उत्तरदायी हैं।
भारत कहां है?
भारत इन सभी मोर्चों पर पीछे है। जैसा कि प्रचारित किया जाता है, हम दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। परंतु शोध एवं विकास में निवेश के मामले में हम 16वें स्थान पर हैं। यहां तक कि इजरायल भी हमसे आगे है जिसका जीडीपी हमारे जीडीपी की तुलना में छठे हिस्से के बराबर और आबादी हमारे सौवें हिस्से के बराबर है। उद्योग जगत के आंतरिक शोध एवं विकास में तो हम और भी पीछे हैं। यहां हम 7 अरब डॉलर के निवेश के साथ पोलैंड और सिंगापुर के बीच 22वें स्थान पर हैं।
यूरोपीय आयोग हर वर्ष हमें शोध एवं विकास के क्षेत्र में दुनिया के शीर्ष 2,500 निवेशकों की जानकारी देता है। ये कंपनियां वैश्विक औद्योगिक शोध एवं विकास के तीन चौथाई के लिए उत्तरदायी हैं। यानी पूरी तस्वीर में उनकी अहम भूमिका है। इन 2,500 में भारत की 24 फर्म हैं जबकि अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी की क्रमश: 822, 678, 233 और 114 फर्म हैं।
पीछे क्यों है भारत?
इसकी दो वजह हैं। पहली, हम प्रौद्योगिकी की दृष्टि से अहम कुछ क्षेत्रों में नहीं हैं। मसलन प्रौद्योगिकी हार्डवेयर, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, वैमानिकी, विनिर्माण सामग्री आदि की बात करें तो हम शीर्ष 10 में नहीं हैं जबकि रसायन और औद्योगिक अभियांत्रिकी में हमारी केवल एक फर्म है। औषधि, सॉफ्टवेयर और वाहन क्षेत्रों में हमारी सीमित पहुंच है।
दूसरी और सबसे अहम बात यह है कि हमारे देश में आंतरिक शोध एवं विकास में एक भी बड़ा निवेशक नहीं है। हमारी शीर्ष कंपनी टाटा मोटर्स का सालाना वैश्विक शोध एवं विकास खर्च 3.5 अरब डॉलर है और वह 58वें नंबर पर है।
दिलचस्प बात यह है कि दुनिया की शीर्ष सात कंपनियां शोध एवं विकास में पूरे भारत से अधिक निवेश करती हैं। होन्डा, क्वालकॉम और बॉश जो क्रमश: 24वें, 25वें और 26वें स्थान पर हैं, वे भी सात अरब डॉलर के साथ शोध एवं विकास में भारत से अधिक निवेश करती हैं।
हमारी सर्वाधिक मुनाफे वाली कंपनियां वित्तीय सेवा, पेट्रोकेमिकल्स, धातु प्रसंस्करण और सॉफ्टवेयर क्षेत्र में हैं। सॉफ्टवेयर में हमारे पास कुछ ऐसी कंपनियां हैं जो सबसे बढि़या मुनाफा कमाती हैं लेकिन वे शोध एवं विकास में पीछे हैं। वे अपनी बिक्री का एक फीसदी शोध विकास में लगाती हैं जबकि वैश्विक औसत 10 फीसदी है।
अक्सर हमें यह सुनने को मिलता है कि हमारी सॉफ्टवेयर कंपनियां वैश्विक उत्पाद कंपनियों को सेवा प्रदान करती हैं। लेकिन चीन की 10 शीर्ष सॉफ्टवेयर कंपनियों में से भी ज्यादातर सेवा कंपनियां हैं। हमारी शीर्ष 10 सॉफ्टवेयर कंपनियां शोध एवं विकास में एक फीसदी निवेश करती हैं जबकि चीन का औसत 8 फीसदी है।
इसी प्रकार पेट्रोकेमिकल्स और स्टील में भी शोध एवं विकास में किया जाने वाला निवेश बिक्री का बहुत छोटा हिस्सा है। हमारी वित्तीय सेवा कंपनियां शोध वाली सूची से गायब हैं। हमारी वित्तीय सेवा तकनीक पर बहुत हद तक निर्भर है। हमें आशा करनी चाहिए कि फिनटेक कंपनियां कि वे भी इस दिशा में आगे आएंगी।
चीन से तुलना
चीन के साथ तुलना खासतौर पर जानकारीपरक है। 2014 में जब एक किताब के लिए जानकारी जुटा रहा था तब पता चला कि चीन की 301 कंपनियों के मुकाबले भारत की 26 कंपनियां हैं। 2021 के ताजा आंकड़े दिखाते हैं कि हमारी 24 कंपनियों के मुकाबले चीन की 678 कंपनियां हैं।
ध्यान दीजिए कि बीते कुछ वर्षों में दुनिया भर के उद्योग किस तरह बदले। औषधि क्षेत्र में भारत आठ से 11 कंपनियों तक पहुंचा जबकि चीन 21 से 79। रसायन में भारत शून्य से एक तथा चीन 10 से 33, वाहन क्षेत्र में भारत छह से पांच जबकि चीन 28 से 45 और सॉफ्टवेयर में भारत पांच से दो तथा चीन 32 से 73।
हमें अपने औद्योगिक ढांचे में बदलाव लाना होगा, अपनी कंपनियों को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए बदलाव को आकार देना होगा, अपनी कंपनियों पर प्रतिस्पर्धी होने का दबाव बनाने के लिए व्यापार नीति का इस्तेमाल करना होगा तथा सार्वजनिक शोध प्रणाली में परिवर्तन करना होगा। लेकिन इन वृहद बदलावों को किसी अन्य आलेख के लिए छोड़ कर बात करते हैं कि मौजूदा भारतीय कंपनियों को क्या कदम उठाने चाहिए।
कुछ बातों के साथ शुरुआत की जा सकती है:
• शोध एवं विकास का व्यय क्या है? बिक्री का कितना प्रतिशत उस पर व्यय किया जाता है? दुनिया भर में समान उद्योग की 10-20 कंपनियों के साथ उसकी तुलना से क्या नतीजे मिलते हैं?
• शोध एवं विकास में कितने इंजीनियर और वैज्ञानिक लगे हैं? वैश्विक उद्योगों की 10-20 शीर्ष कंपनियों से इसकी तुलना के नतीजे क्या हैं?
• टर्नओवर के प्रतिशत के रूप में निर्यात की क्या भूमिका है? निर्यात में नए उत्पादों की क्या भूमिका है? कुल राजस्व हिस्सेदारी से अधिक या कम?
• टर्नओवर में नए उत्पादों का प्रतिशत? क्या नए उत्पाद औसत से अधिक मार्जिन पर बिकते हैं या कम?
हम अहमदाबाद विश्वविद्यालय, सीटीआईईआर और सीआईआई के के जरिये एक कार्यक्रम में इन्हीं सवालों से जूझ रहे हैं।
विदेशों में लगभग हर कंपनी प्रतिभाओं को जुटाने के लिए संघर्ष कर रही है। हमारे पास प्रतिभाएं प्रचुर मात्रा में हैं। हमारे नए इंजीनियरों को प्रशिक्षण और काम के अवसर की जरूरत है। विदेशी कंपनियां हमारी प्रतिभाओं को पहचानती हैं। शोध एवं विकास के 100 शीर्ष निवेशकों में दोतिहाई के शोध विकास केंद्र भारत में हैं। कम से कम भारतीय कंपनियों को जीई, बॉश और एमर्सन का मुकाबला करना होगा। इनमें से हर कंपनी ने भारत में शोध एवं विकास में हजारों इंजीनियरों को काम पर रखा है।
अंत में, हमें कंपनियों के भीतर भी इस क्षेत्र में निवेश बढ़ाना होगा। विभिन्न क्षेत्रों में तकनीकी निवेश की कमी को लेकर हमें अपनी हर बोर्ड बैठक और नीतिगत बैठक में चर्चा करनी होगी।
(लेखक फोर्ब्स मार्शल के को-चेयरमैन और सीआईआई के पूर्व अध्यक्ष हैं)