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  आज का अखबार  प्रदूषण के कारणों की पड़ताल केवल कोयले तक ही सीमित क्यों?
आज का अखबारलेख

प्रदूषण के कारणों की पड़ताल केवल कोयले तक ही सीमित क्यों?

सुनीता नारायण सुनीता नारायण —March 6, 2023 7:42 PM IST
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जलवायु परिवर्तन पर जब भी बात होती है तो आखिर कोयला ही क्यों निशाने पर आता है? कोयले की तरह ही प्राकृतिक गैस भी एक जीवाश्म ईंधन है, जो गैस उत्सर्जित करती है और वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी का कारण बनती है। मगर इसकी चर्चा कोई क्यों नहीं करता?

मैं समझ रही हूं कि यह प्रश्न असहज है मगर इसका उत्तर जानना भी आवश्यक है। मैं इस बात की गंभीरता समझती हूं कि कार्बन डाईऑक्साइड गैस का उत्सर्जन कम करना जरूरी है। मगर हम जो कुछ भी कर रहे हैं उन्हें लेकर सभी बिंदुओं पर स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए।

पर्यावरणविद् होने के नाते मैं भली-भांति समझती हूं कि कोयले का इस्तेमाल ठीक नहीं है और इससे वातावरण में जो धुआं उठता है वह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। कोयले का इस्तेमाल इस वजह से भी अच्छा नहीं माना जा सकता क्योंकि हजारों लघु एवं मझोली औद्योगिक इकाइयों में यह जलाया जाता है जहां प्रदूषण नियंत्रित करना महंगा है या इससे होने वाले प्रदूषण पर नजर रखना मुश्किल होता है।

इसके अलावा ताप विद्युत संयंत्रों में भी कोयले का इस्तेमाल होता है। इससे स्थानीय स्तर पर प्रदूषण फैलता है। कई ताप विद्युत संयंत्र पुराने हैं और इन्हें नया रूप देना संभव नहीं है। इनमें ऐसी तकनीकी उपकरण नहीं लगाए जा सकते हैं जो पार्टिक्यूलेट मैटर (पीएम), सल्फर डाईऑक्साइड या नाइट्रोजन ऑक्साइड आदि का उत्सर्जन नियंत्रित करते हैं।

यही कारण है कि वायु प्रदूषण रोकने के लिए दिल्ली में कोयले का इस्तेमाल प्रतिबंधित कर दिया गया है। राष्ट्रीय राजधानी में पुराने पड़ चुके कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्र बंद कर दिए गए हैं। दिल्ली के 100 किलोमीटर के दायरे में कोयले का इस्तेमाल रोक दिया गया है। ईंधन के रूप में कोयले का इस्तेमाल करने वाले सभी भट्ठियों को प्राकृतिक गैस या अन्य स्वच्छ ऊर्जा का इस्तेमाल करने के लिए कहा गया है। ऐसा नहीं करने पर इन्हें बंद किया जा सकता है।

मूल लक्ष्य उद्योगों और वाहनों को ऊर्जा के स्रोत के रूप में बिजली के इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित करना है। यह बिजली अक्षय ऊर्जा के स्रोतों से पैदा की जाएगी। हालांकि अंतरिम अवधि में प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल एक विकल्प है। कोयले की तुलना में इसके इस्तेमाल से वायु कम प्रदूषित होती है। अब दिक्कत यह है कि प्राकृतिक गैस के दाम बढ़ गए हैं।

यूक्रेन संकट और यूरोप में ऊर्जा के स्रोत के रूप में प्राकृतिक गैस की जरूरत दोनों आंशिक रूप से दाम में बढ़ोतरी के लिए उत्तरदायी हैं। इस समय यूरोप में प्राकृतिक गैस की मांग बढ़ गई है जिससे इसकी उपलब्धता प्रभावित हुई है। इसका सीधा असर भारत में स्वच्छ ऊर्जा की तरफ बढ़ने के प्रयासों पर हो रहा है।

मैं कोयले के इस्तेमाल की पक्षधर नहीं हूं मगर मेरा प्रश्न फिर भी कोयला बनाम प्राकृतिक गैस के इर्द-गिर्द है क्योंकि स्थानीय और वैश्विक प्रदूषण का विज्ञान एक जैसा नहीं है। कोयला जलाने पर जितनी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन गैस निकलती है उनका आधा प्राकृतिक गैस के इस्तेमाल से उत्सर्जित होता है। ये स्थानीय स्तर पर प्रदूषण फैलाने वाले नहीं हैं। ये लंबे समय तक वातावरण में अपना अस्तित्व बनाए रह सकते हैं जिससे वैश्विक तापमान बढ़ता है।

कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन दोनों के प्रबंधन के दो तरीके हो सकते हैं। पहली तकनीक के तहत ईंधन के रूप में कोयले और प्राकृतिक गैस की क्षमता बढ़ाई जा सकती है या अक्षय ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाया जा सकता है।

दूसरी तकनीक के तहत इन दोनों ईंधन का इस्तेमाल जारी रखा जा सकता है मगर कार्बन डाईऑक्साइड गैस का भूमिगत भंडारण करना होगा। प्राकृतिक गैस के मामले में मीथेन गैस का भंडारण सावधानीपूर्वक करना होगा और वातावरण में इसका स्राव रोकना होगा।

मैं इसलिए यह कह रही हूं ताकि हम स्थानीय और वैश्विक प्रदूषण में अंतर करने की जरूरत समझ सकें और दोनों को एक साथ जोड़कर नहीं देखें। जलवायु परिवर्तन के लिहाज से कोयला और प्राकृतिक गैस दोनों ही खराब हैं। ईंधन के इन दोनों स्रोतों पर निर्भरता धीरे-धीरे कम करने के लिए रणनीति तैयार करने की जरूरत हैं। अगर ऐसी बात है तो कोयले का इस्तेमाल कर अपनी अर्थव्यवस्था खड़ी करने वाला यूरोपीय संघ गैस को भविष्य के ईंधन के रूप में देख रहा है?

यूरोपीय संघ गैस को हरित ईंधन के तौर पर प्रचारित कर रही है। तेल एवं गैस कंपनियां इसे आवश्यक ऊर्जा स्रोत बता रही हैं और अधिक से अधिक गैस निकाल रही हैं। वास्तव में अब यह तर्क दिया जाने लगा है कि प्रश्न प्राकृतिक गैस पर लगातार निर्भरता का नहीं है, बल्कि उत्सर्जन कम करने की जरूरत अधिक हो गई है। यह भी कहा जा रहा है कि हरित ऊर्जा के इस्तेमाल की तरफ कदम बढ़ाने के लिए ‘ग्रीन हाइड्रोजन’ (अक्षय ऊर्जा या अन्य हरित ईंधन की मदद से उत्पन्न हाइड्रोजन) आवश्यक नहीं है।

प्राकृतिक गैस से तैयार ‘ब्लू हाइड्रोजन’ भी हरित ईंधन होता है मगर इसके लिए उत्सर्जन कम करने और कार्बन डाईऑक्साइड का सावधानी पूर्व भंडारण करना पड़ता है। इस तरह, पूरा जोर अब उत्सर्जन कम करने पर है न कि जीवाश्म ईंधन (प्राकृतिक गैस) का इस्तेमाल धीरे-धीरे कम करने पर है। मैं एक बार फिर पूछती हूं कि कोयले के मामले में भी उत्सर्जन कम करने पर चर्चा क्यों नहीं की जा सकती है?

इंटरनैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सस्टेनेबल डेवलपमेंट ऐंड यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन के ग्रेग मटीट एवं अन्य ने ‘नेचर क्लाइमेट’ में प्रकाशित एक पत्र में इस बात पर चर्चा की है कि किस तरह जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी समिति (आईपीसीसी) ने गैस एवं तेल पर निर्भरता कम करने की आवश्यकता का कमजोर आकलन लिया है।

कोयले पर निर्भरता पर पूरी तरह समाप्त करने की तुलना में 2030 तक गैस का इस्तेमाल केवल 14 प्रतिशत कम करने की जरूरत बताई गई है। आईपीसीसी ने कहा है कि कोयले पर निर्भरता अगले 10 वर्षों में पूरी तरह समाप्त किए जाने की जरूरत है तभी औद्योगिक काल से पूर्व की तुलना में तापमान में बढ़ोतरी 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रहेगी।

पत्र में कहा गया है कि तापमान में बढ़ोतरी 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कोयला, तेल एवं गैस से होने वाले उत्सर्जन में बड़ी कटौती करनी होगी। उनका कहना है कि जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी समिति का अपरिपक्व आकलन कोयले पर निर्भर दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों पर भारी दबाव डाल रहा है। वास्तव में पत्र में कहा गया है कि विकासशील देशों को किसी भी अन्य देश की तुलना में दोगुना रफ्तार से स्वच्छ ऊर्जा की तरफ बढ़ना होगा।

प्रश्न यह है कि पश्चिमी देशों को प्राकृतिक गैस के बेरोक-टोक इस्तेमाल की अनुमति क्यों दी जानी चाहिए। मैं ये प्रश्न स्वच्छ ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाने की जरूरत से इनकार करने के लिए नहीं पूछती हूं, बल्कि इसलिए पूछती हूं कि इनके कुछ प्रत्युत्तर सामने आ सकें। ये प्रत्युत्तर एक साझा एवं स्वच्छ भविष्य तैयार करने में मदद करेंगे।

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