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सफेदपोश बनाम मेहनती काम

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 9:18 PM IST

सन 2000-2001 में यानी सदी में बदलाव के वक्त देश से होने वाले वस्तु और सेवा निर्यात में विनिर्मित वस्तुओं का निर्यात प्रमुख हिस्सेदार था। सेवा निर्यात का आकार विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात का आधा था। एक दशक बाद यानी 2010-11 में भी विनिर्मित वस्तुओं का निर्यात देश के कुल निर्यात में सबसे बड़ा हिस्सेदार था लेकिन इसकी हिस्सेदारी कम हुई थी। गत वित्त वर्ष यानी 2020-21 तक सेवा निर्यात (206 अरब डॉलर) काफी हद तक वस्तु निर्यात (208 अरब डॉलर) के करीब पहुंच गया और आयात का कुल आकार 498 अरब डॉलर हो गया। दो दशक की अवधि में सेवा निर्यात ने विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात के आधे से लगभग बराबरी तक का सफर तय कर लिया। यदि कुल निर्यात के बजाय वृद्धि पर नजर डाली जाए तो रुझान अधिक स्पष्ट है। 2020-21 तक के एक दशक में सेवा निर्यात में 81 अरब डॉलर की वृद्धि हुई जबकि विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात में इसके आधे से भी कम यानी करीब 37 अरब डॉलर की वृद्धि दर्ज की गई। देश में सेवा और वस्तु निर्यात का अनुपात अब अमेरिका तथा अन्य औद्योगीकृत देशों के निर्यात के समान हो गया है। भारत जैसे विविध विकासशील देश के लिए यह अनुपात विशिष्ट है। यह रुझान चालू वर्ष में उलटता नजर आता है। इस वर्ष वस्तु निर्यात, सेवा निर्यात की तुलना में तेज गति से बढ़ा। ऐसा शायद इसलिए हुआ कि पेट्रोलियम वस्तुओं के निर्यात की कीमतें ऊंची रहीं। यह आशा नहीं करनी चाहिए कि रुझान में यह पलटाव स्थायी होगा।
देश की प्राथमिक प्रतिस्पर्धी बढ़त अभी भी उसकी श्रम शक्ति की लागत है। यह बात शिक्षित श्रम शक्ति से स्पष्ट है और सॉफ्टवेयर सेवा निर्यात में देश की प्रतिस्पर्धा से जाहिर होती है। चिप निर्माण के बजाय चिप डिजाइन करने में हमारी महारत तथा बेहतर मार्जिन होने के कारण ज्ञान आधारित उत्पादों मसलन औषधियों तथा विशिष्ट रसायनों के निर्यात में हमारी सफलता भी यही दर्शाती है। श्रम की लागत में हमारी प्रतिस्पर्धी बढ़त कृषि निर्यात की बढ़ती महत्ता को भी रेखांकित करती है। यह इसलिए हुआ कि खेती के काम में मेहनताना भी कम है। एक तथ्य यह भी है कि बीते एक दशक में कृषि निर्यात में 68 फीसदी का इजाफा हुआ जबकि विनिर्मित वस्तु निर्यात में केवल 22 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। प्रश्न यह है कि श्रमिकों की अधिक जरूरत वाले, बड़े पैमाने पर लेकिन कम मार्जिन वाले उत्पादों के क्षेत्र मसलन तैयार वस्त्र और जूतों (पूर्वी एशिया की शुरुआती सफलता में इनकी अहम भूमिका रही) के मामले में श्रम शक्ति लागत की हमारी बढ़त क्यों नहीं सामने आती। जैसा कि हर कोई जानता है इसका उत्तर है नीतिगत विफलता। शुरुआती दौर में इन वस्तुओं को छोटे उद्योगों के लिए संरक्षित रखा गया इसलिए बड़े पैमाने पर काम नहीं हो सका। इसके बाद कड़े श्रम कानूनों ने कार्यस्थल पर लचीले कार्य व्यवहार की राह रोकी, इन क्षेत्रों को वे प्रोत्साहन नहीं मिल सके जो पूंजी आधारित उद्योगों को मिले। इनमें से कुछ मसले हल किए गए जबकि बाकी बरकरार रहे।
क्या निर्यात बाजारों के लिए श्रम आधारित विनिर्माण पर जोर देने के लिहाज से बहुत देर हो चुकी है? नहीं उच्च श्रम लागत के बावजूद चीन वस्त्र निर्यात करके हमसे अधिक आय जुटाता है। परंतु एक अहम कारण से यह काम कठिन अवश्य हो गया है और वह है रुपये की विनिमय दर। यदि भारत केवल वस्तुओं का व्यापार करता तो 150 अरब डॉलर (जीडीपी का 5 फीसदी) के भारी भरकम घाटे ने रुपये के मूल्य को कम किया होता। उससे हमारी विनिर्मित वस्तुएं निर्यात बाजार में सस्ती हुई होतीं और घरेलू उत्पादन आयात के मुकाबले सस्ता होता। मुद्रा में यह गिरावट नहीं हुई क्योंकि वस्तु व्यापार के घाटे की प्राय: सेवा अधिशेष से भरपायी हो जाती है। स्पष्ट कहा जाये तो सफेदपोश काम मेहनत के काम पर भारी पड़ा है। समस्या को पहचानते हुए भारत ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी में शामिल होने की वार्ता के दौरान सेवा व्यापार खोलने के बदले वाणिज्यिक व्यापार में रियायत चाही। परंतु चीन तथा अन्य देशों के प्रभाव में ऐसा नहीं हो सका। तब भारत इससे बाहर हो गया लेकिन उससे समस्या का अंत तो नहीं हुआ। बल्कि बाहरी पूंजी को लेकर खुलापन बढ़ाकर हमने अपनी मुश्किलें और अधिक बढ़ा ली हैं। बाहरी पूंजी रुपये को मजबूती देती है। विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों को तवज्जो दी गई क्योंकि वे घरेलू रोजगार तैयार करते हैं। इसके परिणामस्वरूप डॉलर का अधिशेष हुआ और रिजर्व बैंक को गैर जरूरी रूप से डॉलर खरीदने पर मजबूर होना पड़ा। इससे देश का विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ा। ऐसे कदम एक सीमा तक ही उठाये जा सकते हैं इसलिए कम मार्जिन वाले विनिर्माण निर्यात को व्यावहारिक रखने के लिहाज से रुपये के महंगा बने रहने की संभावना है। खासतौर पर भारत के पंगु परिचालन माहौल में। हालिया बजट में राहत की बात यह है कि सरकार ने बॉन्ड बाजार को अंतरराष्ट्रीय पूंजी के लिए ज्यादा नहीं खोला। यदि ऐसा किया जाता तो समस्या और गहन हो जाती।

First Published : February 11, 2022 | 11:04 PM IST