राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने वित्त वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के अनुमान जारी कर दिए हैं। अप्रैल से जून तिमाही ही वह समय था जब केंद्र सरकार द्वारा कोरोनावायरस महामारी का प्रसार रोकने के लिए लगाया गया शुरुआती दौर का लॉकडाउन सर्वाधिक प्रभावी था। इस लॉकडाउन ने आर्थिक गतिविधियों को बुरी तरह प्रभावित किया। जीडीपी को लेकर अधिकांश अनुमान यही थे कि मौजूदा तिमाही में इसमें सालाना आधार पर 19 से 20 फीसदी की गिरावट आएगी। परंतु इसमें 23.9 फीसदी की भारी गिरावट देखने को मिली। देश के हालिया आर्थिक इतिहास में ऐसी कोई अन्य नजीर नहीं मिलती। बीते चार दशकों में जीडीपी वृद्धि दर कभी ऋणात्मक नहीं हुई थी। भारत में जीडीपी आंकड़ों में गिरावट अन्य जी-20 देशों की तुलना में बहुत ज्यादा है। केवल ब्रिटेन 20 फीसदी की गिरावट के साथ आसपास है।
हालांकि इन आंकड़ों को खास संदर्भ के साथ देखा जाना चाहिए। सच तो यही है कि दुनिया अप्रत्याशित महामारी से जूझ रही है और ऐसे में असाधारण उपाय भी जरूरी हैं। ऐसे उपायों का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव लाजिमी है। यह समय घबराने का नहीं है लेकिन इसकी पड़ताल और राहत एवं सुधार के उपायों का दोबारा आकलन आवश्यक है। अब तक सरकार का यह सोचना सही रहा है कि आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए खुलकर खर्च करना निरर्थक साबित हो सकता है। वह दलील अपनी जगह कायम है और रहनी भी चाहिए। जुलाई और उसके बाद के महीनों में अर्थव्यवस्था को धीरे-धीरे खोलने का अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर भी पड़ा है। वित्त वर्ष 2020-21 की दूसरी तिमाही में भी सालाना आधार पर गिरावट आ सकती है लेकिन यह गिरावट उतनी नहीं होगी जितनी कि लॉकडाउन के चरम पर रहने के दौरान देखने को मिली है। जीडीपी के इन आंकड़ों को इस तरह भी देखना होगा कि आंकड़े जुटाने का काम अधूरा और कठिन था क्योंकि लॉकडाउन के कारण तमाम प्रतिबंध लागू थे। कहा जा सकता है कि गिरावट वास्तव में और गहन हो सकती है।
आंकड़ों को अलग-अलग देखा जाए तो पता चलता है कि लॉकडाउन ने आर्थिक गतिविधियों को किस प्रकार प्रभावित किया। स्थिर कीमतों में सरकारी व्यय में इजाफा जारी रहा और अप्रैल-जून 2020 तिमाही में यह जीडीपी का 18 फीसदी रहा जबकि पिछले वर्ष की समान तिमाही में यह 12 फीसदी था। निजी खपत और सकल स्थायी पूंजी निर्माण में भारी गिरावट आई। सकल स्थायी पूंजी निर्माण तो सालाना आधार पर 47 फीसदी गिर गया। कारोबारी उत्साह न्यूनतम स्तर पर पहुंच चुका है। आरबीआई का उपभोक्ता आत्मविश्वास सूचकांक जुलाई में गिरकर 53.8 रहा। बीते वर्षों में यह 90-100 के स्तर पर रहता था। कारोबारी आकलन सूचकांक पर भी असर पड़ा। आत्मविश्वास प्रभावित होने की बात करें तो यह स्पष्ट है कि आर्थिक प्रभाव के लिए केवल लॉकडाउन उत्तरदायी नहीं है। हमें यह मानना होगा कि महामारी भी उपभोक्ताओं और कंपनियों के मन में अनिश्चितता पैदा कर रही है। ऐसे में सरकार के पास समस्याओं से निजात का कोई आसान रास्ता नहीं है। यह जन स्वास्थ्य संकट है और इससे उसी तरह निपटना होगा।
किसी भी सुनियोजित सुधार के मामले में प्रमुख दिक्कत यह है कि देश में अभी भी कोविड-19 के मामलों में लगातार इजाफा हो रहा है। जब तक विषाणु का प्रसार नियंत्रित नहीं होता, पूर्ण सुधार का प्रश्न ही नहीं उठता। अप्रत्याशित लॉकडाउन और स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों की आशंका व्यय और निवेश को प्रभावित कर रही है। सरकार इसमें कुछ नहीं कर सकती। उसे महामारी पर नियंत्रण हासिल करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा।