‘इकनॉमिस्ट’ ने हाल ही में कॉर्नवाल शहर में हुई जी-7 बैठक की आलोचना की है। अप्रैल 2022 तक दुनिया की करीब दो-तिहाई आबादी को कोविड टीका लगाने पर 50 अरब डॉलर की लागत आएगी और अगले चार वर्षों में इसका 17,000 फीसदी प्रतिफल मिलेगा। इस दौरान लाखों लोगों की जिंदगी बचाई जा सकेगी और वैश्विक उत्पादन 9 लाख करोड़ डॉलर तक बढ़ जाएगा। जी-7 समूह ने दुनिया को टीके की एक अरब खुराक देने की प्रतिबद्धता जताकर यह सोचा कि उसने कोई बड़ा काम कर दिया है। इकनॉमिस्ट ने सही ही कहा है कि उसने निवेश के बहुत बड़े अवसर को गंवा दिया है।
भारत के लिए भी यही बात लागू होती है। इस साल के बजट में कोविड टीकाकरण अभियान को 35,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। अप्रैल 2020 में लगे बेहद सख्त लॉकडाउन में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) राजस्व के संग्रह में 70,000 करोड़ रुपये की भारी गिरावट देखी गई थी। और यही अनुपात हरेक फर्म पर भी लागू होता है। कंपनी के सभी कर्मचारियों को टीका लगाने पर आने वाली लागत लॉकडाउन एवं क्वारंटीन की वजह से एक महीने में ही उत्पादन में हुए नुकसान का छोटा हिस्सा भर है।
संक्षेप में टीकाकरण के लाभ ऐसे हैं कि उनकी गिनती करना भी समय बरबाद करने जैसा है। हमें इस सिद्धांत पर चलना चाहिए कि हम तभी सुरक्षित हैं जब हर कोई सुरक्षित है। और यह हरेक शख्स देश के अलावा दुनिया और हरेक कंपनी का हिस्सा है। लिहाजा हमें कर्मचारियों एवं उनके परिवार, घर में काम करने वाले लोगों, रिक्शाचालकों, दूधवालों, सेवा-प्रदाताओं, दुकानदारों एवं फेरीवालों को टीका लगाना होगा।
समता: टीकों की कीमत के बारे में काफी कुछ कहा जा चुका है। संशोधित नीति यह है कि केंद्र सरकार 75 फीसदी टीके खरीदेगी और उन्हें राज्य सरकारों को मुफ्त में मुहैया कराएगी। बाकी 25 फीसदी टीकों की खरीद निजी अस्पताल पूर्व-निर्धारित कीमत पर करेंगे। अलग-अलग टीकों के दामों में फर्क है। सरकार ने इन टीकों को 150 रुपये के भाव से खरीदने की बात कही है। कुछ लोगों ने टीकों की निजी खरीद के खिलाफ तर्क दिए हैं लेकिन मेरी राय इससे अलग है। हमने अब टीकों की खरीद के बारे में वाजिब प्रोटोकॉल तय किए हैं जिसमें समता के साथ सक्षमता भी है। वैसे150 रुपये की कीमत रखना एक गलती है और इसे हटा देना चाहिए। सभी टीकों में से तीन-चौथाई टीकों को मुफ्त मुहैया कराना समता के सवाल से रूबरू कराता है। बाकी एक-चौथाई टीकों को बाजार में अपनी कीमत खुद ही तय करने का मौका देना चाहिए। किल्लत के इस दौर में टीकों की कीमत ऊंची होंगी। अधिक दाम होना टीका विनिर्माताओं एवं अस्पतालों को अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करेगा और असल में हमें इसकी ही दरकार है। क्षमता बढऩे से प्रतिस्पद्र्धा भी बढ़ेगी जो कीमतें नीचे लाने की स्थिति पैदा करेगा और सेवा आसानी से मिल पाएगी। बाजार इसी तरह काम करता है।
बौद्धिक संपदा अधिकार (आईपीआर): कंपनियों ने कोविड महामारी के फैलाव के साल भर के भीतर ही कई टीकों का विकास कर उल्लेेखनीय काम किया है। भारत और दक्षिण अफ्रीका ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) से टीकों पर से आईपीआर अस्थायी रूप से हटाने का अनुरोध किया है। जी-7 ने इस विचार पर सहानुभूतिपर्ण रवैया अपनाया है लेकिन अभी तक कोई फैसला नहीं हो पाया है। मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे पत्र में टीका पेटेंट के लिए अनिवार्य लाइसेंस जारी करने का सुझाव दिया था। क्या ऐसा करना ठीक है?
पेटेंट का आशय कृत्रिम रूप से तैयार संपत्ति पर दिए गए अधिकारों से है। पेटेंट एक तय अवधि (फिलहाल 20 साल) के लिए अस्थायी एकाधिकार देते हैं। पेटेंट के लिए अनूठापन, स्पष्टता एवं उपयोगिता के परीक्षणों को पूरा उतरना होता है।
विकसित एवं विकासशील देशों के बीच होनेे वाली चर्चा के केंद्र में पेटेंट की ताकत एवं संरक्षण अवधि होती है। यह संपदा अधिकार नवाचार में निवेश को प्रोत्साहन देता है। लेकिन खुलासे की पारस्परिक जरूरत पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। पेटेंट व्यवस्था के पीछे का मकसद यह है कि मानवता नई खोज के अलावा उसके प्रसार एवं इस्तेमाल से भी लाभान्वित हो। समाज पेटेंट की मियाद खत्म होने के बाद भी खोज से होने वाले स्थायी लाभ के एवज में आविष्कारक को अस्थायी एकाधिकार देता है। प्रसार एवं इस्तेमाल सिर्फ व्यापक खुलासे से ही हो सकता है। खोजकर्ता को खोज की जानकारी सार्वजनिक करने के लिए प्रोत्साहन देना होता है, लिहाजा पेटेंट का अधिकार दिया जाता है।
वर्ष 1995 में संपन्न व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकार (ट्रिप्स) समझौते के तहत सभी देशों को बौद्धिक संपदा के संरक्षण के लिए अपने यहां कानून लेकर आने थे। भारत ने भी ऐसा किया है और हमारे यहां लागू कानून पूरी तरह ट्रिप्स समझौते के अनुकूल हैं। ट्रिप्स समझौता राष्ट्रीय सरकारों को यह अधिकार देता है कि वे एक पेटेंट उत्पाद के भी घरेलू उपयोग के लिए अनिवार्य लाइसेंस दे सकती हैं। देश खुद ही यह तय कर सकते हैं कि बाध्यकारी लाइसेंस जारी करना कब सही है? स्वास्थ्य आपातकाल की स्थिति इसके लिए एकदम माकूल है और कोविड महामारी तो किसी अन्य स्वास्थ्य आपातस्थिति से बहुत आगे की बात है। देशों को पहले टीका विनिर्माता से लाइसेंस हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए। अगर वे मना करते हैं तो फिर वे अनिवार्य लाइसेंस का तरीका अपना सकते हैं। तब भी पेटेंटधारक को एक वाजिब लाइसेंस शुल्क का भुगतान करना जरूरी है।
भारत ने ट्रिप्स प्रावधानों के तहत सिर्फ एक बार 2012 में बाध्यकारी लाइसेंस जारी किया है जो कैंसर के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवा नेक्सावार (बेयर) के लिए था। तकनीक के मसले पर भारत एवं अमेरिका के बीच होने वाली चर्चाओं में यह मसला अक्सर उठता रहा है। अमेरिकी सरकार ने भी 2001 में जर्मन कंपनी बेयर को सिप्रोफ्लॉक्सेसिन दवा के दाम कम न करने पर इसका बाध्यकारी लाइसेंस जारी करने की धमकी दी थी। अभी हाल में अमेरिका ने कोविड के एकल खुराक वाले टीके का लाइसेंस जॉनसन ऐंड जॉनसन के प्रतिद्वंद्वी मर्क को देने के लिए प्रोत्साहित किया था।
ऐसा लगेगा कि बाध्यकारी लाइसेंस का सबसे असरदार इस्तेमाल ऐसा कदम उठाए बगैर ही उसके लाभ ले लेना है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) से पेटेंट अधिकार हटाने की मांग कर हम भी वही काम कर रहे हैं लेकिन इसकी रफ्तार तेज करने की जरूरत है। मेरा विनम्र सुझाव है कि हमें एक समयसीमा तय कर देनी चाहिए और उससे आगे मामला जाने पर हम बाध्यकारी लाइसेंस जारी कर देंगे।
एक साथ जोडऩे की कवायद: सक्षम बाजारों की पहचान कई खरीदारों एवं विक्रेताओं से होती है ताकि किसी एक खरीदार या विक्रेता के पास कीमतें तय करने का अधिकार न हो। बाजारों में खुली एवं समान सूचना की जरूरत होती है। इसका मतलब है कि टीके की असरकारिता, कीमत, उपलब्धता और आपूर्ति की गुणवत्ता एवं मानकों के बारे में व्यापक जानकारी पारदर्शी ढंग से साझा की जाए। अनिश्चितता कम होने से बाजार को लाभ होता है। ऐसा लगता है कि कोविड एक देशज बीमारी बनकर हमारे बीच ही रहेगी। फिर हमें भारत में टीकाकरण का सालाना कार्यक्रम चलाने की स्थायी क्षमता विकसित करनी होगी। देश के 85 करोड़ लोगों को टीका लगाने में कई महीनों का वक्त लगने से कंपनियों को मांग का अंदाजा लगाने में मदद मिलेगी।
हमारा उद्देश्य यह होना चाहिए कि तीन महीनों में हमारी बेहद सक्षम फार्मा कंपनियां हर महीने कई लाख टीके बना रही हैं। यह उत्पादन जितना बढ़े उतना ही अच्छा है। हजारों अस्पतालों एवं क्लिनिक में रोजाना लाखों लोगों को कोविड टीके लगाए जाने चाहिए। फिर बाजार को वह काम करने दें।
( लेखक फोर्ब्स मार्शल के सह-चेयरमैन एवं सीआईआई के पूर्व अध्यक्ष हैं)