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अमेरिका-भारत टैरिफ विवाद: ट्रंप की नीतियों के बीच मोदी सरकार कैसे संभालेगी व्यापार संतुलन?

निवेश और व्यापार के नजरिए से यह स्पष्ट है कि अमेरिका और भारत दोनों में से किसी को शुल्कों से कोई फायदा पहुंचने वाला नहीं है। बता रहे हैं देवांशु दत्ता

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देवांशु दत्ता   
Last Updated- August 17, 2025 | 10:08 PM IST

अमेरिका-भारत शुल्क विवाद से जुड़ी कई अटपटी बातें गिनाई जा सकती हैं। मगर उनमें सबसे अधिक अटपटा यह है कि भारतीय तेल शोधन कारखानों (रिफाइनरी) से अमेरिका को पेट्रोलियम उत्पादों के निर्यात पर कोई शुल्क नहीं लगेगा। यह तब है जब ट्रंप ने रूस से भारत के तेल खरीद पर दंड के लिए 25 फीसदी का अतिरिक्त शुल्क लगाने का ऐलान किया है। रूस से खरीदे जाने वाले तेल एवं गैस भारत के पेट्रोल, डीजल, केरोसिन और लुब्रिकेंट्स के निर्यात के लिए कच्चे माल के रूप में काम करते हैं। अमेरिका द्वारा रूस से यूरेनियम यौगिकों और उर्वरकों के आयात पर काफी कुछ लिखा जा चुका है, इसलिए इस विषय पर चर्चा करना आवश्यक नहीं है।

मगर निवेश और व्यापार के नजरिए से यह स्पष्ट है कि अमेरिका और भारत दोनों में से किसी को शुल्कों से कोई फायदा पहुंचने वाला नहीं है। भारत के लिए नुकसान यह है कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के बाजार तक उसकी पहुंच बाधित हो जाएगी और इसके उत्पाद वैश्विक स्तर पर अधिक प्रतिस्पर्द्धी नहीं रह जाएंगे। इससे भारतीय उत्पादों की मांग कम हो जाएगी। वर्ष 2024 में दोनों देशों के बीच 129 अरब डॉलर मूल्य की वस्तुओं का व्यापार हुआ था। अमेरिका से भारत को 42 अरब डॉलर और भारत से अमेरिका को 87 अरब डॉलर मूल्य की वस्तुओं का निर्यात हुआ था।

अमेरिकी उपभोक्ता (और अमेरिका स्थित विनिर्माता) जो भी आयात करेंगें और जिस भी देश से करेंगे उन पर उन्हें भारी भुगतान करना होगा। निर्माता और आयातक ऊंचे शुल्क के कारण वस्तुओं के दाम बढ़ा देंगे और यह सिलसिला शुरू भी हो चुका है। उदाहरण के लिए टाटा समूह बोइंग के लिए विमान के फ्यूजलेज (मुख्य ढांचे) का निर्माण करता है। यह ऐसा कार्य है जिसके विनिर्माता आसानी से नहीं बदले जा सकते। लिहाजा, बोइंग अपने विमान महंगे कर सकती है।

उत्पादों के दाम बढ़ने के बाद अमेरिका में उपभोक्ताओं के लिए महंगाई बढ़ जाएगी जिससे मांग पर चोट पड़ेगी। इसका मतलब यह भी होगा कि अमेरिका खपत पर चोट पड़ने से राजस्व नुकसान की भरपाई के लिए पर्याप्त शुल्क राजस्व हासिल नहीं कर पाएगा।

अब इस बात पर नजर डालते हैं कि शुल्क बढ़ने से भारत की अर्थव्यवस्था पर क्या असर हो सकता है? कई क्षेत्र अपने उत्पाद अमेरिका को निर्यात कर मोटा राजस्व अर्जित करते हैं। दवा, वाहन पुर्जा और परिधान आदि क्षेत्रों को तगड़ा नुकसान होगा। जो क्षेत्र अमेरिकी बाजारों में अपने उत्पाद अधिक नहीं भेजते हैं वे दूसरे बाजारों की तलाश करेंगे। शुल्क अंतिम रूप लेने के बाद शेयर बाजार कुछ समय तक गिरावट झेलेगा और फिर हालात के साथ तालमेल बैठा लेगा

अमेरिका में भारतीय नियंत्रण वाले कारोबारों जैसे नोवेलिस (हिंडाल्को की सहायक कंपनी) को आपूर्ति व्यवस्था नए सिरे से तैयार करनी होगी। नोवेलिस फिलहाल कनाडा (जो स्वयं अमेरिकी शुल्कों की चपेट में आ गया है) से कच्चे माल मंगाती है। इसी तरह, जिन वाहन कंपनियों (जैसे महिंद्रा समूह) की अमेरिका में सहायक इकाइयां हैं उन्हें पुर्जे आदि मंगाने के नए तरीके खोजने होंगे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों जैसे सीमेन्स और एबीबी के लिए भी कारोबार करना मुश्किल हो जाएगा क्योंकि वैश्विक मूल्य व्यवस्था में उनकी भारतीय इकाइयां भी शामिल हैं।

डॉनल्ड ट्रंप की मांगें पूरी करना असंभव है। राजनीतिक रूप से नरेंद्र मोदी सरकार के लिए देश के कृषि क्षेत्र को अमेरिका के लिए खोलना संभव नहीं है। ऐसा भी कोई तरीका नहीं है जिससे भारत अपने व्यापार संतुलन को भारी नुकसान पहुंचाए बिना रूस से तेल खरीदना बंद कर दे। अगर भारत अमेरिका से तेल एवं गैस खरीदेगा (जैसा कि अमेरिका ने प्रस्ताव दिया है) तो उसके लिए लागत बढ़ जाएगी और ढुलाई एवं अभियांत्रिकी से संबंधित समस्याओं का भी सामना करना पड़ेगा।

भारत के पास ट्रंप का मन बदलने की कोशिश करने के लिए कुछ ही विकल्प हैं जिन्हें वह आजमा सकता है। अमेरिका के साथ सौदेबाजी करने के लिए मोदी सरकार में चीन की तरह जवाबी शुल्क लगाने की हिम्मत नहीं है। भारत अमेरिका से रक्षा उत्पाद खरीदने की पेशकश कर सकता है और फिर नवंबर 2026 में अमेरिका में सीनेट के चुनाव के बाद ट्रंप के कमजोर पड़ने की सूरत में अपने वादे से पीछे हट सकता है। रक्षा साजो-सामान की आपूर्ति में लंबा समय लगता है। उदाहरण के लिए अगर भारत इस सप्ताह के अंत में कुछ एफ-35 विमानों के ऑर्डर देता है तो पहले एफ-35 की आपूर्ति में कई साल लग जाएंगे। लिहाजा, रक्षा सौदे करने की गुंजाइश मौजूद है और शुल्क की समस्या खत्म होने पर इन्हें रद्द किया जा सकता है।

यह स्थिति हमें दो अन्य पहलुओं से जुड़ी राजनीति की तरफ ले जाता है। ट्रंप अमेरिकी कांग्रेस की मंजूरी के बिना शुल्क लगाने में कानूनी रूप से सक्षम नहीं हैं। फिलहाल इस मोर्चे पर उनके लिए समस्या नहीं है क्योंकि रिपब्लिकन पार्टी के पास प्रतिनिधि सभा और सीनेट दोनों में बहुमत है। ट्रंप की नीतियां अगर जनता को अधिक सताने लगीं तो इस बात की अच्छी-खासी संभावना होगी कि डेमोक्रेटिक पार्टी प्रतिनिधि सभा और संभवतः सीनेट में भी खेल पलट दे। लिहाजा नवंबर 2026 तक शुल्क का दर्द सहना पड़ सकता है।

अनुभवी एवं जानकार लोगों को याद होगा कि कारोबारी ‘ग्रीनस्पैन पुट’ को किस नजरिये से देखते थे। जब भी फेडरल रिजर्व के पूर्व प्रमुख एलन ग्रीनस्पैन (जो 1987 से 2006 तक प्रमुख रहे) के दौर में अमेरिकी अर्थव्यवस्था मुश्किल दौर से गुजरती थी तो वे पेचीदा बयान देते थे मगर मुद्रा की आपूर्ति आसान बना देते थे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि ग्रीनस्पैन क्या कह जाते थे मगर अच्छी बात यह होती थी कि वह मुद्रा आपूर्ति जरूर सहज बना देते थे। कुछ कारोबारी अब ‘टैको पुट’ (ट्रंप ऑलवेज चिकन्स आउट) की बात कर रहे हैं। ट्रंप अक्सर सख्त रवैया अपनाते हैं और फिर ठंडे पड़ जाते हैं। जब तक यह सिलसिला जारी रहेगा तब तक इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ट्रंप क्या कहते हैं।

First Published : August 17, 2025 | 10:08 PM IST