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सोशल मीडिया व सरकार के बीच तनातनी गैरजरूरी और बेमतलब

Last Updated- December 12, 2022 | 3:52 AM IST

पिछले दिनों ट्विटर एवं व्हाट्सऐप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को लेकर छिड़ी बेहद तीखी बहस के दौरान यह बात ध्यान देने लायक रही कि संप्रभु शक्ति के अर्थ एवं प्रभाव को शायद ही अहमियत दी गई। न केवल सरकार के बाहर के लोगों ने इसे नजरअंदाज किया बल्कि सरकार के भीतर के लोगों की भी यही राय सामने आई कि संप्रभु शक्ति के दम पर उन्हें कुछ भी करने का लाइसेंस मिला हुआ है।
हालांकि किसी भी राज्य की संप्रभु शक्ति अपने आप में पूर्ण है लेकिन व्यावहारिक स्तर पर इसका क्रियान्वयन तर्कसंगत ढंग से ही किया जाना चाहिए। मनमाने ढंग से बनाए गए और बेवकूफी भरे कानूनों से यह मकसद हासिल नहीं होगा और अदालतें भी उन कानूनों को निरस्त घोषित कर देती हैं।
इस तरह भले ही संप्रभुता पूर्ण-सत्ता में निहित होती है लेकिन इसके उपयोग में पूर्ण समझदारी की भी जरूरत होती है। ऐसे में सरकार पर एकमात्र अंकुश सहज बुद्धि एवं आत्म-संयम का ही होता है।
दरअसल समाजों के भीतर इन मसलों पर इस तरह चर्चा होती है मानो लोकतंत्र के इस चारित्रिक गुण को नजरअंदाज किया जा सकता है। हमें बहस में शामिल दोनों ही पक्षों से सिर्फ ऐसे तर्क ही सुनने को मिलते हैं जो बेतुके हों और जो सिर्फ उनके हित की ही पुष्टि करते हों।
अगर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के साथ इस समय जारी भारत सरकार की तनातनी पर इसको परखते हैं तो हमें मुद्दों के परीक्षण का कहीं अधिक समझदारी-भरा तरीका पता चलता है। इसमें कोई संदेह नहीं दिखता है कि ट्विटर एवं व्हाट्सऐप के साथ जल्द ही कुछ और प्लेटफॉर्म भी जुड़ जाएं।
इस पूरी बहस में दिए जा रहे बुनियादी तर्क को सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी श्रीवत्स कृष्ण ने अपने एक हालिया लेख में स्वर दिया है। कृष्ण अपने इस लेख में कहते हैं, ‘क्या अमेरिका की बड़ी टेक कंपनियां दूसरे देशों में काम करते समय अमेरिकी कानूनों का सहारा ले सकती हैं? या फिर वे सरकार के अधिकृत प्रतिनिधि की तरफ से कानूनी अनुरोध के तहत मांगी गई जानकारी देने के लिए भारतीय कानूनों के तहत बाध्य हैं?’
इसका जवाब ही यह साफ कर देता है कि बहुत गैरजरूरी होते हुए भी यह तनातनी एक तरफ संप्रभु शक्ति और दूसरी तरफ नागरिक अधिकारों को लेकर है। आप खतरा देखकर इस मुद्दे को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं।
दरअसल किसी भी सरकार को यह अधिकार है कि अपनी सीमा के भीतर काम कर रहे किसी भी शख्स या कंपनी को वह देश के कानूनों का पालन करने को कह सकती है। इस बात को समझने के लिए बहुत दिमाग की जरूरत नहीं है।
लेकिन इसी के साथ किसी भी सरकार को यह अधिकार नहीं है कि वह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म या मध्यवर्ती कंपनियों से अपने उपभोक्ताओं की पहचान एवं अन्य जानकारियों का खुलासा करने को कह सके। यह कुछ ऐसा ही है कि किसी डाकघर के पोस्ट-मास्टर से आप चिट्ठी खोलने के लिए कहें। साफ है कि वह ऐसा नहीं करेगा।
लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि सबसे खुला समाज कहे जाने वाले अमेरिका में इस संबंध में क्या प्रावधान हैं? यहां पर हम फिर श्रीवत्स कृष्ण को उद्धृत करते हैं, ‘व्हाइट हाउस ने शासकीय आदेश संख्या 13925 के जरिये यह साफ कर दिया कि भले ही अभिव्यक्ति की आजादी अलंघनीय है लेकिन कुछ ट्वीट को चिह्नित करने या अकाउंट बंद करने की शक्तिया बड़ी टेक कंपनियों को प्रसारित सामग्री सेंसर करने के लिए कहना अस्वीकार्य है।’
लेकिन यह नियम सिर्फ ट्विटर पर लागू होता है। किसी भी अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर आप कुछ भी कहने के लिए आजाद हैं। वे कंपनियां आपकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर लगाम नहीं लगा रही हैं, वे तो सिर्फ अपने प्लेटफॉर्म तक आपकी पहुंच पर अंकुश लगा रही हैं।
अगर आप इस पर गौर करेंगे तो नजर आएगा कि भारत में भी 1951 से ही इसी तरह की परिपाटी रही है। स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर तर्कसंगत पाबंदियों को लेकर दर्ज आपत्तियों को ध्यान में रखते हुए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को ही अलग-अलग मामले के आधार पर फैसला करना होता है। असल में हमारा संविधान भी तर्कसंगत पाबंदियां निर्धारित करने का जिम्मा सरकार पर डालता है। लेकिन इस शक्ति का अब तक कई बार दुरुपयोग हो चुका है।
आलोचना से समस्या?
अब प्रधानमंत्री की आलोचना का मुद्दा आता है। कहा जाता है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को किसी-न-किसी रूप में यह सुनिश्चित करने को कहा जा रहा है कि सत्ता में बैठे मौजूदा शख्स को उनके प्लेटफॉर्म पर बदनाम न किया जाए। यह कोशिश कुछ उसी तरह गैरवाजिब है जैसी 1988 में मानहानि विधेयक लाते समय थी। इस विधेयक को लाने का मकसद सिर्फ यही था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पर कलंक लगाने से बचाया जा सके। लेकिन तत्कालीन सरकार को वह विधेयक आखिर में वापस लेना पड़ा था। उस समय की तरह इस बार भी यही मुद्दा है कि सरकार डराने-धमकाने की कोशिश कर रही है।
वैसे अगर सरकार का रुख गैरवाजिब रहा है तो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भी कुछ उसी तरह बेवकूफी दिखा रहे हैं जैसा रवैया 1987-88 के दौरान के कुछ संपादकों का रहा था। प्लेटफॉर्मों का यह कहना पूरी तरह उनके अधिकार-क्षेत्र में है कि वे अपने उपभोक्ताओं के बारे में नहीं बता सकते हैं। लेकिन उनकी यह सोच ठीक नहीं है कि उन्हें शिकायत निपटान के बारे में बने समाचार कानूनों का पालन करने की जरूरत नहीं है।
इस तरह हमारे सामने एक ऐसी स्थिति है जहां पर एक गैरवाजिब मांग और एक नासमझ प्रतिक्रिया है। मौजूदा समस्याओं के मूल में यही है। खास बात यह है कि दोनों ही पक्षों को एक-दूसरे की जरूरत है और यह मामला किसी तनातनी के बगैर भी हल किया जा सकता था।

First Published - June 9, 2021 | 8:51 PM IST

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