विशेषज्ञों में इस बात को लेकर व्यापक सहमति है कि स्थायी रूप से उच्च वृद्धि हासिल करने के लिए भारत को आर्थिक सुधार की प्रक्रिया को आगे ले जाने की आवश्यकता है। देश में रोजगार तैयार करने तथा लोगों को गरीबी से बाहर निकालने के लिए ऐसा करना आवश्यक है। इस पूरी प्रक्रिया का एक अहम पहलू यह है कि सरकार अपनी वित्तीय स्थिति का प्रबंधन कैसे करती है। उच्च वृद्धि और वित्तीय स्थिरता के लिए यह आवश्यक है कि सरकारी वित्त का सही ढंग से प्रबंधन हो। बीते दो दशकों में केंद्र और राज्य सरकारें मोटे तौर पर इस दिशा में बढ़ी हैं। हालांकि कुछ ऐसे बदलाव हो रहे हैं जिनको खतरनाक करार दिया जा सकता है। हालांकि महामारी के कारण बजट घाटे में इजाफा हुआ है लेकिन राजनीतिक दल और सरकारें ऐसे व्यय में बढ़ोतरी कर रही हैं जो दीर्घावधि में काफी बुरा असर डाल सकता है। इसका एक बड़ा उदाहरण कांग्रेस शासित राजस्थान और छत्तीसगढ़ सरकारों द्वारा पेंशन सुधारों के बजाय पुरानी पेंशन लागू करने की घोषणा है।
केंद्र सरकार ने 2004 में एक तयशुदा अंशदान के साथ नयी पेंशन व्यवस्था को अपना लिया। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो राज्यों ने भी इसे अपना लिया। अब दो राज्य सरकारों ने वापस पुरानी व्यवस्था अपनाने का निर्णय लिया है। यह मानना उचित है कि ऐसी मांग अन्य राज्यों में भी उठेगी और सरकारों को जनता का समर्थन पाने के लिए इन्हें मानना होगा। यह कड़ी मेहनत से किए गए सुधारों के प्रतिकूल जाना होगा और इसके दीर्घकालिक राजकोषीय प्रभाव देखने को मिलेंगे। भारतीय स्टेट बैंक के अर्थशास्त्रियों ने इस बात को रेखांकित किया है कि इसका सरकार की वित्तीय स्थिति पर गहरा असर हो सकता है। पुरानी व्यवस्था के लिए किसी फंडिंग का इंतजाम नहीं है और इसे वर्तमान राजस्व से चुकाया जाता है। अनुमान के मुताबिक वित्त वर्ष 2021-22 तक के 12 वर्षों में राज्य सरकारों की पेंशन देनदारी सालाना 34 फीसदी की समेकित दर से बढ़ी है। वित्त वर्ष 2021 में राज्यों के कुल कर राजस्व का 30 फीसदी तथा समग्र राजस्व प्राप्तियों का 13.2 फीसदी पेंशन में गया।
ये आंकड़े हालात के बारे में काफी कुछ बताते हैं। राज्य सरकारों की पेंशन में लगने वाली राशि की बात करें तो वह सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1.9 फीसदी है तथा इसमें इजाफा जारी रहेगा। यह बात ध्यान देने लायक है कि भारत का जनांकीय ढांचा तेजी से बदल रहा है और लोगों की जीवन संभाव्यता तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में पेंशन बिल भी तेजी से बढ़ेगा और सरकारों को अहम क्षेत्रों में व्यय करने में कठिनाई होगी। राज्यों का समेकित प्रतिबद्ध व्यय उनके राजस्व से अधिक है। पेंशन सुधारों के बजाय पुरानी पेंशन योजना अपनाने तथा अन्य लोकलुभावन व्यय बढ़ाने से हालात और खराब होंगे। भारतीय रिजर्व बैंक ने राज्य सरकारों की वित्तीय स्थिति के सालाना अध्ययन में इस बात को रेखांकित किया है कि हाल के वर्षों में व्यय की गुणवत्ता बिगड़ी है। अतिरिक्त व्यय प्रतिबद्धता के साथ राज्य सरकारों को उत्पादक क्षमता पर व्यय करने में मुश्किल होगी।
अब यह स्पष्ट है कि सरकार को बुनियादी ढांचा निर्माण का बोझ उठाना होगा क्योंकि निजी पूंजी कई वजहों से इस क्षेत्र में आना नहीं चाहती। चूंकि आम सरकारी व्यय में राज्यों की हिस्सेदारी अधिक है इसलिए उनकी बैलेंस शीट का बेहतर होना वृद्धि और विकास के लिए अहम है। व्यापक स्तर पर यह आवश्यक है कि इस राजनीतिक लोकलुभावनवाद की प्रवृत्ति पर रोक लगायी जाए। भारत को बुनियादी आर्थिक मसलों पर एक मजबूत राजनीतिक सहमति की आवश्यकता है और केंद्र सरकार इस पहल को शुरू करने की स्थिति में है।