देश के टेलिकॉम रहनुमाओं का मूड भी काफी अजीब है। ऐसा लगता है कि ये रहनुमा इस सेक्टर की अलग-अलग तरह की कंपनियों के बारे में तुरंत-तुरंत राय बदलने की कला में माहिर हो चुके हैं।
कभी ये 2जी सेवा प्रदान करने वाली भारती एयरटेल और वोडाफोन-एस्सार जैसी कंपनियों के हाथ धोकर पीछे पड़ जाते हैं, तो कभी इस सेक्टर की नई कंपनियों यूनिटेक और वीडियोकॉन पर खासे मेहरबान हो जाते हैं। बहरहाल, दूसरे दिन इन कंपनियों से भी नाराज हो जाते हैं। इस हृदय परिवर्तन की वजह तो साफ नहीं है, लेकिन यह इस बात का परिचायक है कि टेलिकॉम अथॉरिटीज के कामकाज का तरीका बिल्कुल सही नहीं है।
टेलिकॉम अथॉरिटीज में संचार मंत्री ए. राजा और ट्राई के चैयरमैन नृपेंद्र मिश्रा शामिल हैं। मिश्रा के इस बात पर विरोध जताए जाने के बावजूद कि उनकी सिफारिशों को नाममात्र ही लागू किया जा रहा है, दोनों की कार्यप्रणाली काफी हद तक एक जैसी है। इसलिए शायद जब मिश्रा से यह पूछा गया कि क्या टेलिकॉम कंपनियों की तादाद सीमित की जानी चाहिए, तो उनका जवाब था कि यह बिल्कुल जरूरी नहीं है।
हालांकि उन्हें यह बात बखूबी पता थी कि टेलिकॉम सेक्टर के नए खिलाड़ियों को स्पेक्ट्रम आवंटित किए जाने के बाद वर्तमान खिलाड़ियों को अपना आधार बढ़ाने के लिए काफी कम स्पेक्ट्रम बचेगा। इतना ही नहीं, उन्होंने सब्सक्राइबर मापदंड के तहत स्पेक्ट्रम इस्तेमाल का दायरा 4-5 गुना बढ़ा दिया, ताकि टेलिकॉम सेक्टर की मौजूदा कंपनियों को ज्यादा स्पेक्ट्रम नहीं मिल सके।
उन्होंने स्पेक्ट्रम की नीलामी से भी इनकार कर दिया और एक तरह से सरकार की इस योजना को वैधता प्रदान कर दी, जिसके तहत नई कंपनियों को स्पेक्ट्रम आवंटन में इसके लिए आवेदन करने की तारीख को आधार बनाने की बात थी। इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि सरकार ने मिश्रा की सिफारिशों को पूरी तरह नहीं माना, लेकिन अगर व्यापक नजरिए से देखा जाए तो इन सिफारिशों का मर्म वही कहता है, जो सरकार ने किया।
नतीजतन, सरकार के फैसले से प्रभावित कई कंपनियों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया। इनमें से ज्यादातर इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थीं कि वे स्पेक्ट्रम प्राप्त करने के लिए नया लाइसेंस हासिल करने में सक्षम होंगी। हालांकि पिछले हफ्ते 22 अप्रैल को सरकार ने ऐलान किया कि इस सेक्टर की नई कंपनियां 3 साल तक अपना विलय नहीं कर पाएंगी। इसके अलावा इन कंपनियों का अधिग्रहण किए जाने पर भी कई तरह की पाबंदियां लगा दी गईं।
इसका असर नई कंपनियों के अलावा पहले से स्थापित कंपनियों पर भी पड़ेगा। सरकार ने ऐसा कर राजा के आलोचकों को जवाब देने की कोशिश की, जो यह कह रहे थे कि नया लाइसेंस प्राप्त करने वाली कंपनियां अपना स्पेक्ट्रम बेचकर भारी मुनाफा कमाएंगी। राजा के आलोचकों के मुताबिक, इन कंपनियों ने मिश्रा की मदद से काफी कम कीमतों पर स्पेक्ट्रम हासिल किया है।
इन बातों के मद्देनजर बीते शुक्रवार (25 अप्रैल) को जारी ट्राई की सिफारिशें काफी महत्वपूर्ण हैं। इसमें मिश्रा ने सिफारिश की है कि 3जी स्पेक्ट्रम आवंटन में सिर्फ मौजूदा 2जी मोबाइल फोन सेवा प्रदान करने वाली कंपनियों को बोली लगाने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए। इसके जरिए मिश्रा ने न सिर्फ स्थापित कपंनियों को नया जीवन दिया है, बल्कि नए 2जी लाइसेंस हासिल करने वालों को भी इससे फायदा पहुंचेगा।
3जी मुकाबले को सीमित करने के मद्देनजर मिश्रा की दलील काफी दिलचस्प है और छलावा है। उनकी पहली दलील यह है कि अगर नए खिलाड़ियों को इसमें शामिल किया जाता है, तो इससे 3जी सेवाओं की कीमत में बढ़ोतरी होगी।
किसी नियामक के लिए ऐसा सोचना काफी भोलापन है, क्योंकि यह बात कई बार साबित हो चुकी है कि कंपनियां ऐसे खर्चों को ‘डूबने वाले लागत खर्च’ की तरह मानती हैं और अपनी सेवाओं की कीमत में इस खर्च को न शामिल कर इसके निर्धारण में इस बात को ध्यान में रखती हैं कि बाजार इसे वहन करने के लिए सक्षम है या नहीं।
यही वजह है कि 2001 में चौथी सेल्युलर नीलामी या पिछले साल वोडाफोन द्वारा हच को खरीदे जाने के लिए 11 अरब डॉलर अदा किए जाने के बाद भी उपभोक्ताओं के शुल्क में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई।
बहरहाल हम इस बात को छोड़ देते हैं। मिश्रा का कहना है कि 3जी स्पेक्ट्रम की उपलब्धता महज 3-4 कंपनियों के लिए पर्याप्त है और उन्हीं की बात को मानते हुए कहा जा सकता है कि हर टेलिकॉम सर्कल में तकरीबन 13-14 कंपनियों को लाइसेंस प्राप्त है। इसके मद्देनजर कहा जा सकता है कि नीलामी की कीमत काफी ज्यादा होगी और ज्यादातर टेलिकॉम खिलाड़ी इसे हासिल करने में नाकाम रहेंगे।
सवाल यह है कि नई कंपनियों को इसमें शामिल किए जाने से समीकरण में किस तरह बदलाव होगा? दिलचस्प बात यह है कि ट्राई के मुताबिक, 3जी स्पेक्ट्रम को 2जी की कड़ी नहीं माना जा सकता, इसके बावजूद इस नतीजे पर पहुंचने का क्या आधार है कि मौजूदा 2जी खिलाड़ियो को ही 3जी स्पेक्ट्रम के लिए बोली लगाने की प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए?
ट्राई का यह भी तर्क है कि इन कंपनियों ने भारी निवेश कर रखा है और अगर इन्हें अतिरिक्त स्पेक्ट्रम (3जी स्पेक्ट्रम के जरिये 2जी की वायस टेलिफोनी सर्विस को और बेहतर बनाया जा सकता है) नहीं मिला तो उनका निवेश बेकार हो जाएगा। जरा इस विडंबना पर गौर कीजिए – ट्राईसंचार मंत्रालय ने पहले इन कंपनियों को मिलने वाले 2जी स्पेक्ट्रम में कटौती कर दी (नई कंपनियों को देकर) और अब अब उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें 3जी की बोली का विशेषाधिकार देने की तैयारी है।
यह सारा घालमेल सिर्फ स्पेक्ट्रम हासिल करने के लिए नीलामी को जरूरी बनाकर टाला जा सकता है। इसमें चूंकि कीमतों का निर्धारण बाजार के जरिये होता, इसलिए न कोई सब्सक्राइबर मापदंड तैयार करने की जरूरत होती और न ही अधिग्रहण और विलय पर पाबंदी लगाने की।
इस पूरी कवायद का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि इससे मंत्रालय के विवेकाधीन अधिकारों में नाटकीय बढ़ोतरी हुई है। बहरहाल हमारे राजनेता और नौकरशाह इन अधिकारों को छोड़ना नहीं चाहते हैं, क्योंकि सत्ता का रास्ता यहीं से गुजरता है।