भारत पड़ोसी देश चीन (China) से आयात में सतर्कता बरते और शेष विश्व के साथ कारोबारी समायोजन बढ़ाए। सुझाव दे रहे हैं अजय शाह और इला पटनायक
ऑटार्की यानी आम जन की सीमा पार गतिविधियों में सरकारी हस्तक्षेप के विपरीत परिणामों की पूरी समझ अर्थशास्त्र में पेशेवर दक्षता की पहचान है। परंतु आज पूरी दुनिया असाधारण परिस्थितियों से दो चार है: चीन की वृहद आर्थिक नीति की दिक्कतें दुनिया भर में विपरीत प्रभाव डाल रही हैं।
हम मानते हैं कि भारत की सरकारी शक्ति का इस्तेमाल करके चीनी निर्यात के देश में पहुंचने के मार्ग में व्यापारिक गतिरोध खड़ा करने के फायदे हैं। ये कदम उस पूर्ण नीतिगत पैकेज का हिस्सा होने चाहिए जो भारतीय अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाता है।
शी चिनफिंग साल 2013 में सत्ता में आए। उनके अधीन ‘चीन मॉडल’ फला फूला। इसमें देश पर सरकार के नियंत्रण, सत्ता का केंद्रीकरण, आर्थिक राष्ट्रवाद, पश्चिम के विरुद्ध शत्रु भाव, हमेशा लोगों के खिलाफ कार्रवाई का खतरा, कुलीनों की व्यक्तिगत सुरक्षा की कमी जैसी बातें शामिल रहीं। ऐसे अधिनायकवादी शासन वृद्धि के कम ही अवसर बनाते हैं। यही वजह है कि शी चिनफिंग के 11 वर्ष के कार्यकाल में चीन की अर्थव्यवस्था बहुत अच्छी नहीं रही।
एक समय बेहतर स्थिति में रही निजी निवेश की प्रक्रिया का भी पतन हो चुका है। एक परिसंपत्ति वर्ग के रूप में अचल संपत्ति को लेकर अति उत्साह भी अब इसकी कीमतों में गिरावट में तब्दील हो गया है और अधिकांश संपत्तियां खाली पड़ी हैं। विदेशी कंपनियां, निवेशक और आम लोग चीन में अपनी गतिविधि कम कर रहे हैं। ब्याज का उच्च स्तर भी व्यवस्थित स्थिरता को चुनौती प्रदान कर रहा है।
आंतरिक आर्थिक कमजोरियों के बावजूद चीन की विदेश नीति में अहंकारपूर्ण रुख रहा है। सीमा पर भूटान और भारत के साथ सैन्य झड़प चीन में सक्रिय राष्ट्रवाद के उदाहरण हैं। आज दुनिया के सामने मौजूद विदेश नीति संबंधी सबसे बड़ मुद्दे की बात करें तो चीन ने यूक्रेन पर रूस के आक्रमण का समर्थन किया है। वहीं चीन द्वारा ताइवान पर आक्रमण की आशंका भी बनी हुई है।
2018 के बाद इन घटनाओं का असर वैश्वीकरण की प्रकृति पर नजर आने लगा जिसे तीसरा वैश्वीकरण नाम दिया गया। 1982 से 2018 तक दूसरे वैश्वीकरण में चीन तथा भारत जैसे देशों को बिना शर्त पहुंच मिली थी। तीसरे वैश्वीकरण में एक पंक्ति खींच दी गई। अब अगर कोई देश विदेश नीति या सैन्य मामलों में शत्रुतापूर्ण रुख रखता है तो उस देश को आर्थिक एकीकरण में सीमित अवसर मिलते हैं।
अब विकसित देश तथा उनके सहयोगी एक दूसरे के साथ पूर्ण वैश्वीकरण आजमाते हैं लेकिन जो देश विदेश नीति या सैन्य नीति में उनके अनुकल नहीं हैं, उनकी बुनियादी संसाधनों तक पहुंच सीमित की गई।
वर्ष 2018 के बाद से विकसित देशों की ओर से चीन के साथ सीमा पार व्यापार पर बड़ी संख्या में प्रतिबंध लगाए गए। चार अहम क्षेत्र जहां दिक्कत आ रही है वे हैं इलेक्ट्रिक वाहन, बैटरी, सोलर पैनल तथा माइक्रो चिप।
चीन की अर्थव्यवस्था की कमजोरी की वजह खराब घरेलू नीतियां और विकसित देशों द्वारा उठाए गए कदमों का मिश्रण भी है। वहां घरेलू मांग अधिक नहीं है। कई चीनी कंपनियों के सामने कीमत कम करने या बंदी की स्थिति है। आर्थिक मोर्चे पर नाकामी ने सत्ता तंत्र के लिए आर्थिक और राजनीतिक दिक्कत पैदा की।
सरकार की चाह तो यही होती है कि कंपनियां अधिक से अधिक बेचें, ज्यादा निर्यात करें और रोजगार बढ़ाएं। चीन में समेकित खुदरा मूल्य सूचकांक बास्केट में अपस्फीति की स्थिति है। ऐसे में अमेरिकी डॉलर में चीनी निर्यात का मूल्य गिरा और उसमें और गिरावट आने की उम्मीद है।
समय के साथ और चीन में आर्थिक और राजनीतिक बदलाव आने पर ये समस्याएं हल हो जाएंगी। इस बीच चीन की ओर से सस्ती वस्तुओं का निर्यात उन देशों में कंपनियों या समूचे उद्योगों के खात्मे के खतरे के साथ आता है जो वास्तव में उन्हीं वस्तुओं का महंगा निर्माण करते हैं।
विकसित देशों ने इन बातों को देखते हुए चीनी आयात पर प्रतिबंध लगा दिए हैं। गत 12 जून को यूरोपीय आयोग ने चीन में बने इलेक्ट्रिक वाहनों पर 48 फीसदी शुल्क लगाने की घोषणा की। यह बहुत ही असाधारण दर है क्योंकि कई दशकों से ऐसे शुल्क की दरें एक अंक में रही हैं।
विकसित देशों को निर्यात करने में हो रही मुश्किलों को देखते हुए चीन की कंपनियों ने स्वाभाविक तौर पर शेष विश्व में निर्यात बढ़ाने पर जोर देना शुरू किया। 2018 में चीन के निर्यात में आसियान, लैटिन अमेरिका और अफ्रीका की हिस्सेदारी क्रमश: 12.9 फीसदी, 5.8 फीसदी और 4.2 फीसदी थी जो अब बढ़कर 15.7 फीसदी, 7.8 फीसदी और 5.5 फीसदी रह गई है।
यह वह वैश्विक परिदृश्य है जिसमें हमें भारत में चीन का आयात बढ़ता नजर आ रहा है। 2018 से 2023 के बीच अमेरिकी डॉलर में चीन के निर्यात की कुल वृद्धि 36 फीसदी थी। इस अवधि में भारत में उसका निर्यात 53 फीसदी बढ़ा। हमारा मानना है कि भारत के लिए अब बेहतर यही है कि वह चीनी निर्यात और चीनी कंपनियों के विदेशी उत्पादन केंद्रों के विरुद्ध गैर टैरिफ गतिरोध खड़े करे।
हम यह भी मानते हैं कि यह संरक्षणवाद है और मजबूत विकास नीति के विरुद्ध है परंतु इस विशेष क्षण में हमारा मानना है कि एक खास कारोबारी साझेदार के साथ ऐसा किया जा सकता है।
इसके अलावा भी कई कदमों की आवश्यकता है ताकि अंतरराष्ट्रीय एकीकरण के लाभों को बरकरार रखा जा सके और भारतीय कंपनियों के कामकाज में भी सुधार किया जा सके। इनवर्टेड शुल्क ढांचे के कई मामले हैं जिन्हें दूर करना है। जीएसटी (GST) सुधार बहुत समय से लंबित हैं और इसकी दरों की तादाद कम करने की जरूरत है। दरों में भी कमी करने की जरूरत है। इसके अलावा ऊर्जा और रेलवे जैसे उद्योगों में व्यापक एकीकरण की आवश्यकता है।
भारत में चीन के आयात के खिलाफ गैर टैरिफ अवरोध के साथ उदारीकरण के अन्य तत्त्वों का समायोजन करना होगा। मसलन अन्य देशों के साथ संबद्धता में इजाफा करना होगा। ऐसा करके भारत को हर मायने में उदारीकरण का पूरा लाभ मिल सकेगा। वह एक देश को छोड़कर शेष पूरे विश्व के साथ वस्तु, सेवा, पूंजी और श्रम के क्षेत्र में रिश्ते कायम कर सकेगा।
केवल एक कारोबारी साझेदार के साथ संरक्षणवाद के तरीके अपनाते हुए कारोबार करने के लिए आर्थिक नीति में विशिष्ट क्षमताओं की आवश्यकता होगी। इसके साथ ही ऐसे तमाम पूरक उपायों को भी अपनाना होगा जो शेष विश्व के साथ पारंपरिक भारतीय संरक्षणवादी रिश्ते नहीं बनने दें। 2024 में देश के नीति निर्माताओं के लिए ऐसी रणनीति बनाना एक बड़ी चुनौती होगी।
(शाह एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता और पटनायक आदित्य बिड़ला समूह में मुख्य अर्थशास्त्री हैं। लेख में विचार व्यक्तिगत हैं)