भारतीय संसद के कुछ ही शीतकालीन सत्रों ने केंद्र सरकार की वित्तीय स्थिति पर उतना प्रभाव डाला है जितना पिछले सप्ताह समाप्त हुए सत्र ने डाला। गत 19 दिसंबर को समाप्त हुए एक पखवाड़े लंबे शीतकालीन सत्र को इस बात के लिए भी उचित ही याद किया जाएगा कि सरकार ने कई विधेयक बहुत कम समय में पेश किए और उन्हें गहन जांच के लिए संसदीय समितियों के पास भेजने की विपक्ष की मांग को अनदेखा कर दिया। परंतु, इसके अलावा भी इस पर चर्चा बहुत कम हुई है कि संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान पेश किए गए तीन विधेयकों का वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के आगामी 2026-27 के बजट पर किस तरह का असर होगा।
शुरुआत करते हैं ‘हेल्थ सिक्योरिटी से नैशनल सिक्योरिटी सेस एक्ट, 2025’ से। इस नए कानून के जरिये पान मसाला जैसी वस्तुओं के उत्पादन या केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित अन्य वस्तुओं के उत्पादन पर एक उपकर लगाया गया।
इस कदम का एक संदर्भ है। तीन सितंबर 2025 को माल एवं सेवा कर (जीएसटी) परिषद ने 5 फीसदी, 12 फीसदी, 18 फीसदी और 28 फीसदी की चार कर दरों वाली व्यवस्था को युक्तिसंगत बनाते हुए जीएसटी को तीन दरों वाली व्यवस्था में बदल दिया गया। आवश्यक और प्राथमिकता क्षेत्र की वस्तुओं एवं सेवाओं के लिए 5 फीसदी की रियायती दर, अधिकांश वस्तुओं के लिए 18 फीसदी की मानक दर, और चुनी हुई नुकसानदेह और विलासिता की वस्तुओं की सूची पर 40 फीसदी की दंडात्मक दर लगाई गई।
नई दर व्यवस्था 22 सितंबर से लागू हो गई। नई दरों के लागू होते ही, जीएसटी क्षतिपूर्ति सेस, जो विभिन्न दरों पर लगाया जाता था, सभी वस्तुओं पर समाप्त कर दिया गया, सिवाय तंबाकू और उससे संबंधित उत्पादों के जिनमें पान मसाला भी शामिल है। तंबाकू उत्पादों पर सेस तब तक जारी रहना था जब तक केंद्र सरकार कोविड महामारी के दौरान राज्यों को राजस्व की कमी की भरपाई के लिए लिए गए बकाया ऋण (ब्याज सहित) का भुगतान नहीं कर देती। उपलब्ध संकेतों के अनुसार, यह पुनर्भुगतान दायित्व दिसंबर 2025 के अंत तक पूरा हो जाना चाहिए। यही वह जगह है जहां ‘हेल्थ सिक्योरिटी से नैशनल सिक्योरिटी सेस अधिनियम, 2025’ का महत्त्व और उसके केंद्रीय बजट के लिए निहितार्थ सामने आते हैं।
यानी जब जीएसटी क्षतिपूर्ति उपकर समाप्त होगा तो पान मसाला से संबंधित नया उपकर लागू हो जाएगा। अब तक नया उपकर कानून केवल पान मसाले के लिए दरों का जिक्र करता है। परंतु ध्यान रखने वाली बात है कि अधिसूचना के जरिये नया कानून अन्य तंबाकू उत्पादों पर भी लागू किया जा सकता है। ऐसे में संभव है कि तंबाकू उद्योग जीएसटी क्षतिपूर्ति उपकर की जगह नए तरह का कर देता रहे।
इसमें कुछ भी गलत नहीं है सिवाय इसके कि इसका असर केंद्र और राज्यों पर अलग-अलग पड़ेगा। यदि जीएसटी क्षतिपूर्ति उपकर जारी रहता, तो उसकी वसूली केंद्र और राज्यों के बीच एक सूत्र के अनुसार बांटी जाती। लेकिन नया उपकर केंद्र द्वारा वसूला जाएगा और उसके खजाने में रखा जाएगा। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इससे केंद्रीय बजट को लाभ होगा।
आने वाले वर्षों में यह राशि केवल बढ़ेगी और भले ही स्वास्थ्य देखभाल और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक अलग कोष बनाया जाए ताकि सेस संग्रह से ऐसे खर्चों के लिए धन दिया जा सके, लेकिन यह निर्विवाद है कि केंद्र की वित्तीय स्थिति को शुद्ध लाभ होगा। यदि इसके बजाय केंद्र ने ऐसे तंबाकू उत्पादों पर अतिरिक्त कर जीएसटी व्यवस्था के तहत या उत्पाद शुल्क के रूप में लगाया होता, तो राज्यों को भी लाभ मिलता। जीएसटी कानूनों के तहत निर्धारित राजस्व हिस्सेदारी या वित्त आयोग के वितरण सूत्र के अनुसार।
दूसरी विधायी पहल जिसे संसद मंजूर कर चुकी है वह है महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) में बदलाव और उसका नाम बदलकर विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार ऐंड आजीविका मिशन (ग्रामीण) अधिनियम करना। इसका नाम बदलना एक राजनीतिक विवाद में तब्दील हो गया। इस बात को समझा जा सकता है। परंतु नए कानून की सबसे अहम बात है ग्रामीण रोजगार योजना के क्रियान्वयन में राज्यों की वित्तीय जिम्मेदारी को बढ़ा देना। अब साल में 125 दिन काम देने का वादा किया गया है जबकि पहले 100 दिन की गारंटी थी।
नए कानून ने योजना को चलाने की लागत साझा करने के लिए एक नया सूत्र पेश किया है। पहले के कानून के अनुसार राज्यों को योजना की लागत का लगभग 10 फीसदी वहन करना पड़ता था, जबकि केंद्र लगभग 90 फीसदी बोझ उठाता था। लेकिन नए कानून ने केंद्र के व्यय हिस्से को घटाकर 60 फीसदी कर दिया और राज्यों के हिस्से को बढ़ाकर 40 फीसदी कर दिया। एक ही झटके में, इस कानून के कारण केंद्र सरकार का वित्तीय बोझ लगभग एक-तिहाई कम हो जाना चाहिए।
इन आंकड़ों पर विचार कीजिए। बीते तीन साल से केंद्र सरकार ने मनरेगा के तहत 85,000 से 90,000 करोड़ रुपये खर्च कर रही है। राज्यों की हिस्सेदारी को मिलाकर देखा जाए तो इस योजना के तहत सालाना वार्षिक व्यय करीब एक लाख करोड़ रुपये है। पिछले तीन वर्षों में पुराने कार्यक्रम के तहत प्रति परिवार औसत रोजगार दिवस 48 से 52 दिनों के बीच रहा है। इसलिए, भले ही नए कानून के तहत दिए जाने वाले कार्य दिवसों की संख्या में कोई बदलाव न हो, केंद्र सरकार का कुल व्यय में हिस्सा लगभग 60,000 करोड़ रुपये तक घट जाएगा, यह कमी 30-33 फीसदी की है। यह केंद्र के लिए एक बड़ी बचत होगी, जबकि राज्यों को इस मद में अधिक खर्च का बोझ उठाना पड़ेगा।
तीसरा विधेयक पूंजी बाजार से संबंधित है। संसद के शीतकालीन सत्र में पेश ‘सिक्युरिटीज मार्केट्स कोड’ यानी प्रतिभूति बाजार संहिता आगे की जांच के लिए वित्त संबंधी संसद की स्थायी समिति को भेजी गई है। नए कोड में कई सुधारात्मक पहल शामिल हैं जो प्रतिभूति बाजारों के नियामक तंत्र को मजबूत करेंगी। लेकिन प्रस्तावित कानून का एक प्रमुख प्रावधान केंद्रीय कोषागार को भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) से नियमित संसाधन हस्तांतरण सुनिश्चित करने में मदद करेगा, लगभग उसी प्रणाली की तरह जिसका पालन एक अन्य वित्तीय क्षेत्र नियामक यानी रिजर्व बैंक करता है।
संहिता ने सेबी द्वारा किए गए व्यय की व्यवस्था के लिए एक आरक्षित कोष बनाने और शेष कोष को भारत की संचित निधि में स्थानांतरित करने का प्रावधान किया है। इसके अतिरिक्त, सेबी द्वारा दंड के रूप में प्राप्त सभी राशि को केंद्रीय कोषागार में जमा करना होगा। इस तरह के हस्तांतरण की प्रक्रिया और मात्रा केंद्र सरकार द्वारा तय उपयुक्त नियमों के माध्यम से निर्धारित की जाएगी। सेबी, आरबीआई जितना समृद्ध नियामक नहीं है। मार्च 2024 के अंत में, उसके सामान्य कोष में राशि लगभग 5,573 करोड़ रुपये थी, जिसमें लगभग 1,065 करोड़ रुपये का अधिशेष शामिल था। लेकिन अधिशेष को केंद्र सरकार को स्थानांतरित करने की नई व्यवस्था आने वाले वर्षों में वित्त मंत्रालय के लिए राजस्व का एक स्थिर स्रोत प्रदान करेगी।
संक्षेप में कहें तो, ये तीन विधायी उपाय वित्त मंत्री को बजट बनाने में तुरंत कोई बड़ी राहत नहीं देंगे, लेकिन इनमें आने वाले वर्षों में केंद्र के लिए स्थिर अतिरिक्त राजस्व स्रोत बनने की क्षमता अवश्य है। हालांकि, इनमें से दो कानून, एक पान मसाले पर उपकर लगाने वाला और दूसरा ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम के लिए फंडिंग, यह दिखाते हैं कि केंद्र के लाभ राज्यों की कीमत पर आते हैं, जिनके राजस्व स्रोत घट सकते हैं और केंद्र द्वारा तय योजनाओं पर व्यय का बोझ बढ़ सकता है। इसका भारत की लोक वित्त व्यवस्था पर अन्य प्रभाव भी होगा। लेकिन वह एक अलग कहानी है।