Budget 2024: बजट में जीडीपी (GDP) के आंकड़ों की चकाचौंध से निकल कर रोजगार सृजन और ग्रामीण क्षेत्रों में बदहाली दूर करने के उपाय भी होने चाहिए। बता रहे हैं अजय छिब्बर
लोकसभा चुनाव संपन्न हुए एक महीना हो गया है। कई सप्ताहों तक चली चुनावी जद्दोजहद के बाद नई सरकार को बिना समय गंवाए नए दृष्टिकोण के साथ देश के विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इसी महीने वित्त वर्ष 2024-25 के लिए पूर्ण बजट पेश होने वाला है। यह बजट सरकार के लिए यह बताने का अवसर है कि वह किस तरह चुनाव नतीजे से मिले संदेश को समझ चुकी है।
अब राज एवं अर्थव्यवस्था वैसे नहीं चलाई जा सकती जैसे पिछले 10 वर्षों से चल रही थी, इसलिए इस बजट में बदलाव का संकेत स्पष्ट होना चाहिए। लोगों ने चुनाव नतीजों के माध्यम से बता दिया है कि वे रोजगार की उपलब्धता और ग्रामीण क्षेत्रों में पैदा संकट दूर करने पर सरकार को अधिक गंभीरता से काम करते देखना चाहते हैं।
सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की वृद्धि दर निःसंदेह महत्त्वपूर्ण है, मगर इसी से संतुष्ट रहना काफी नहीं है, क्योंकि आर्थिक वृद्धि की दशा-दिशा और गुणवत्ता भी मायने रखती हैं। लोग केवल भोजन और गैस सिलिंडर से ही खुश नहीं है, वे बेहतर एवं सम्मानजनक रोजगार भी चाहते हैं। जन कल्याण से जुड़ी योजनाओं की भी एक अपनी सीमा है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस वर्ष फरवरी में फिक्की के एक कार्यक्रम में कहा था कि सरकार चुनाव के बाद भूमि, श्रम, पूंजी और डिजिटल सार्वजनिक ढांचे पर विशेष ध्यान देगी। सीतारमण ने इन बातों का जिक्र कर एक अच्छा संकेत दिया था और अब देखना है कि वह आगामी बजट में इन मोर्चों पर किस तरह कदम बढ़ाती हैं। ये सुधार इन सवालों के उत्तर जानने के लिए जरूरी हैं कि हम उत्पादन में अहम भूमिका निभाने वाले एक प्रमुख घटक श्रम का क्यों इतना अविवेकपूर्ण इस्तेमाल करते हैं और भारत का आधारभूत ढांचा क्यों अत्यधिक पूंजी के इस्तेमाल पर आश्रित है।
बजट में इस प्रश्न का उत्तर भी होना चाहिए कि भूमि की उपलब्धता सीमित होने के बावजूद क्यों इसका इस्तेमाल कम या न के बराबर लाभ देने वाले कृषि कार्यों और अनियोजित शहरी तंत्र तैयार करने में होता है।
भारत का पूंजी बाजार भी पूरी तरह परिपक्व नहीं हो पाया है, क्योंकि जीडीपी के 8-9 प्रतिशत तक पहुंच चुके राजकोषीय घाटे की भरपाई करने में काफी आर्थिक संसाधनों का इस्तेमाल होता है। ये संसाधन निजी क्षेत्र के लिए उपलब्ध रहते तो इसके बड़े फायदे दिखते। सांविधिक तरलता अनुपात का प्रावधान खत्म किया जाना चाहिए। डिजिटल ढांचे में सुधार का और अधिक फायदा मिल सकता है।
भारत आने वाले समय में भी पूंजीगत व्यय जारी रखना चाहता है, मगर इसके साथ ही इसे राजकोषीय स्थिति सुदृढ़ बनाने पर भी ध्यान देना चाहिए। वस्तु एवं सेवा कर (GST) प्रणाली में अब स्थिरता आ गई है और यह राजस्व का एक बड़ा जरिया बन चुका है। भविष्य के लिए विनिवेश भी एक बड़ा संभावित स्रोत साबित हो सकता है। विनिवेश की मौजूदा प्रणाली, जिसमें लक्ष्य निर्धारित कर लिया जाता है, कारगर साबित नहीं हो रहा है। सरकार भी यह बात समझ चुकी है।
सार्वजनिक लोक वित्त एवं नीति संस्थान में भारत के सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों पर अपने एक अध्ययन के आधार पर मैं यह सुझाव देना चाहूंगा कि अगले पांच वर्षों में बड़े स्तर पर निजीकरण कार्यक्रम चलाया जाए, मगर यह बात काफी मायने रखेगी कि इसे किस तरह क्रियान्वित किया जाता है।
सार्वजनिक परिसंपत्तियों को रूस के तर्ज पर कुछ खास उद्योग समूहों को दे देना उचित रास्ता नहीं होगा। पारदर्शी प्रक्रिया, प्रतिस्पर्द्धात्मक बोली और श्रमिकों के मुआवजे के लिए कुछ रकम का अलग से प्रावधान करना रणनीतिक विनिवेश की सफलता के लिए अहम होंगे।
परिपक्व बाजार वाले लोकतांत्रिक देशों में खुले बाजार में शेयरों की बिक्री का ढांचा मालिकाना नियंत्रण का दायरा बढ़ाने और विनिवेश में अधिक सार्वजनिक भागीदारी के लिए तैयार किया जा सकता है। उन कंपनियों में कर्मचारियों को भी शेयर (कर्मचारी शेयर विकल्प योजना या ईसॉप्स) दिए जा सकते हैं, जो निजी प्रबंधन के अंतर्गत आते हैं। इससे कर्मचारी बिक्री के खिलाफ नहीं जाएंगे।
पूंजी व्यय पर जोर (विशेषकर आधारभूत ढांचे पर) आर्थिक वृद्धि में सहायक रहा है, मगर इससे निजी निवेश में चिर प्रतीक्षित बढ़ोतरी का रास्ता नहीं खुल पाया है। कारोबारी खेमे उत्पादन प्रोत्साहन से जुड़ी योजनाओं की तरह दूसरी योजनाएं चाह रहे हैं, जिनमें उन्हें और सब्सिडी की गुंजाइश हो। मगर यह निजी क्षेत्र की अगुआई में अधिक रोजगार देने वाली आर्थिक वृद्धि के लिए टिकाऊ ढांचा नहीं होगा।
इसका कारण यह है कि मौजूदा ‘ट्रिकल-डाउन इकनॉमिक मॉडल’ पर्याप्त रोजगार सृजित नहीं करता है और न ही एक बड़े जन समूह के लिए अधिक आय सुनिश्चित कर पाता है, इसलिए उपभोग आधारित मांग कमजोर रहती है। कंपनी जगत को बैंकों से ऋण आवंटन कम रही है और निवेश में सुधार का असर भी नहीं दिख रहा है।
बैंकिंग क्षेत्र ऋण आवंटित करने की गुंजाइश तो तलाश रहा है, मगर कंपनियों की तरफ से उधार लेने में सुस्ती को देखते हुए बैंक खुदरा उधारी पर दांव लगा रहे हैं। खुदरा ऋण आवंटन में भारी बढ़ोतरी को देखते हुए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने बैंकों को आंख मूंदकर कर्ज बांटने से परहेज करने की हिदायत दी है।
सड़क एवं राजमार्ग व्यवस्थाओं में सुधार से भारत में माल परिवहन की स्थिति बेहतर हुई है, मगर इसका इस्तेमाल करना अब भी काफी महंगा है। पीएलआई का दायरा बढ़ाने (जैसा कि बड़े कारोबारी समूह चाहते हैं) के बजाय कारोबार करने पर लागत घटाने के अधिक फायदे दिखेंगे।
बजट में यात्रियों को दूसरे तरीकों से लाभ देकर माल भाड़ा कम रखने, बिजली वितरण कंपनियों के नुकसान का वहन कर उत्पादकों को सस्ती बिजली देने और पेट्रोल एवं डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने से सरकारी रकम का बेहतर इस्तेमाल हो पाएगा।
लोग चीन और दक्षिण कोरिया की सफलता देखकर सबक लेते हुए तर्क दे रहे हैं कि आर्थिक वृद्धि आगे बढ़ाने के लिए भारत को एक अधिक गतिशील औद्योगिक नीति की जरूरत है। यह सच है, मगर उन देशों ने कई बुनियादी चीजों पर भी काम किया है, जिनसे उनके शानदार आर्थिक विकास की नींव तैयार हुई है। सार्वभौम शिक्षा एवं प्राथमिक स्वास्थ्य पर उन देशों का अधिक जोर रहा है।
दोनों देशों ने कृषि क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सुधार कर अधिक उत्पादक कार्यों के लिए अधिक भूमि उपलब्ध कराई और कोरिया में तो भूमि सुधार की दिशा में भी कदम उठाए गए। दोनों ही देशों में तीव्र गति से शहरीकरण हुआ, मगर उन्होंने शहरों के लिए चिह्नित भूमि का उचित एवं विवेकपूर्ण इस्तेमाल किया। भारत भी औद्योगिक नीति की दिशा में कदम बढ़ा सकता है, मगर इसका लक्ष्य निर्यात और रोजगार को बढ़ावा देना होना चाहिए। शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर भी विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
अंत में, पर्यटन एक ऐसा क्षेत्र है जहां भारत का प्रदर्शन काफी कमजोर रहा है। भारत को एक समृद्ध विरासत मिली है और यहां पर्वत-पहाड़ सहित प्राकृतिक सौंदर्य की बहार है। मगर इनका समुचित लाभ उठाने के लिए भारत को अगले पांच वर्षों के लिए एक कार्य योजना तैयार करनी होगी। इसमें महिलाओं को सुरक्षा, स्वच्छता पर विशेष ध्यान देना होगा और ‘इनक्रेडिबल इंडिया’ को ‘क्रेडिबल , सेफ इंडिया’ में तब्दील करना होगा। इससे पर्यटक तो आकर्षित होंगे ही, साथ ही रोजगार में भी इजाफा होगा।
भारत में कुछ बड़े एवं साहसिक सुधार गठबंधन सरकार के समय में हुए हैं। अब समय आ गया है कि ऐसे और सुधारों के जरिये भारत को अधिक समावेशी एवं टिकाऊ विकास के मार्ग पर ले जाने का मार्ग प्रशस्त हो।
बिना रोजगार मुहैया कराए जीडीपी के आंकड़ों से संतुष्ट रह जाना विकसित भारत का सपना साकार नहीं कर पाएगा। देश की दिशा बदलने का समय आ गया है और आगामी बजट इस बदलाव का स्पष्ट संकेत देने का अवसर प्रदान कर रहा है।
(लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी में इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनैशनल इकनॉमिक पॉलिसी सेंटर में विजिटिंग स्कॉलर हैं)