जब विकास दर और महंगाई दर एक दिशा में बढ़ रही हों, तो दोनों को ध्यान में रखते हुए मौद्रिक नीति तैयार करना अपेक्षाकृत आसान होता है।
ऐसी परिस्थिति में अर्थव्यवस्था के दोनों पक्षों को यथावत या बेहतर स्थिति में रखने के लिए केंद्रीय बैंक का काम एक ही तरह के कदम उठाने से चल जाता है। मसलन, अगर विकास दर और महंगाई दर दोनों जरूरत से ज्यादा तेजी से आगे बढ़ रही हों तो इसके मद्देनजर दोनों के बीच असंतुलन पैदा होने की सूरत में केंद्रीय बैंक ब्याज दरों में बढ़ोतरी या धन के प्रवाह को रोककर या फिर दोनों उपायों के जरिये इसे रोकने की कोशिश कर सकता है।
इसके उलट अगर दोनों काफी तेजी से घट रही हों, तो ब्याज दरों में कमी या धन के प्रवाह में बढ़ोतरी या फिर दोनों उपायों के जरिये इससे निपटा जा सकता है।लेकिन जब दोनों (महंगाई दर और विकास दर) अलग-अलग दिशाओं में बढ़ते हैं, तो उलझन बढ़ जाती है। जाहिर है कि ऐसी परिस्थिति में जब महंगाई की दर में कमी हो रही हो और विकास दर में तेजी का आलम हो, मौद्रिक नीति के हस्तक्षेप से समस्या का हल निकालना मुमकिन नहीं जान पड़ता है।
लेकिन हम अब ठीक इसके विपरीत स्थिति पर चर्चा करते हैं, जहां महंगाई की दर तेजी से भाग रही है, जबकि विकास दर में कमी हो रही है। भारत समेत कमोबेश पूरी दुनिया में कुछ ऐसा ही सूरत-ए-हाल नजर आ रहा है। ऐसी परिस्थिति में केंद्रीय बैंक को क्या करना चाहिए?
क्या महंगाई की समस्या को दूर कर विकास दर को और घटने के लिए छोड़ देना चाहिए? या फिर विकास दर को ध्यान में रखते हुए महंगाई के खतरे को नजरअंदाज कर देना चाहिए? यहां ध्यान रखने लायक बात यह है कि बाद में महंगाई को थामना काफी मुश्किल हो जाएगा।जहां तक इस बाबत विकल्प चुनने की बात है, यह पूरी तरह संदर्भ पर निर्भर करता है। हालांकि, विकल्प चुनते वक्त कुछ सामान्य सिध्दांतों को ध्यान में रखा जा सकता है।विकल्पों को तय करने में दो सिध्दांत बुनियाद का काम करते हैं।
पहला यह कि यह कदम दोनों सूचकों के खतरों के मायने को ध्यान में रखकर उठाया जाना चाहिए। अगर उचित मौद्रिक नीति के अभाव में महंगाई दर के तेज होने का खतरा इन कदमों से विकास दर के घटने के खतरे से ज्यादा गंभीर है, तो फिर इसे ध्यान में रखकर कदम उठाया जाना चाहिए।
दूसरा, ऐसी सूरत में कदम उठाते वक्त सफलता की संभावना पर भी बारीक निगाह रखनी जरूरी होती है। अगर महंगाई की दर को कम करने संबंधी उपायों का विकास दर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना लगभग तय है और इस बात की संभावना काफी कम है कि इससे महंगाई पर लगाम लगाने में सफलता मिलेगी, तो ऐसे कदम नहीं उठाए जाने चाहिए।
इसी तरह अगर विकास को बढ़ावा देने के लिए किए जाने वाले उपाय से महंगाई की दर बढ़ने की आशंका ज्यादा हो और विकास पर इससे बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ने की संभावना हो तो इससे बचना चाहिए।
अब हम ऐसी परिस्थिति में इन संदर्भों को ध्यान में रखते हुए भारतीय रिजर्व बैंक के सामने मौजूद 3 विकल्पों पर विचार करते हैं। इन विकल्पों में धन के प्रवाह को बढ़ाना या घटाना और फिर बरकरार रखना जैसे उपाय शामिल हैं।आगामी मौद्रिक नीति में तरलता के प्रवाह पर अंकुश लगाने की सिफारिश की गई है और इस बाबत ऐलान की भी संभावना जताई जा रही है।
जहां तक पहले सिध्दांत (अपेक्षाकृत खतरनाक पहलू) की बात है, इस कदम से विकास दर में और कमी होने की आशंका है, जबकि रिजर्व बैंक की लापरवाही से महंगाई की दर और तेज हो सकती है।
बहरहाल दूसरे सिध्दांत (सफलता की संभावना) के तहत फिलहाल धन के प्रवाह पर अंकुश का विकल्प उचित नहीं जान पड़ता है। महंगाई की दर में तेजी की प्रमुख वजह खाद्य सामग्रियों और खनिज पदार्थों (खासकर लौह इस्पात) की कीमतों में बढ़ोतरी है। दोनों कैटिगरी की तेजी में वैश्विक मांग-पूर्ति का पहलू काफी अहम है। इस वजह से मौद्रिक नीति में किए गए उपायों का महंगाई दर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने की संभावना है।
दूसरे शब्दों में कहें तो अगर सख्त
मौद्रिक नीति इन परिस्थितियों के आगे प्रभावहीन हो रही है, तो ऐसा करने का मतलब नहीं बनता है। खासकर जब इससे विकास दर में और कमी होगी।अब हम दूसरे विकल्प यानी धन के प्रवाह को आसान बनाने की तरफ रुख करते हैं। फिलहाल यह विकल्प पूरी तरह नामुकिन माना जा रहा है।
हालांकि इसके पक्ष और विपक्ष दोनों पहलुओं की बारीक पड़ताल जरूरी है, क्योंकि अगर महंगाई की दर थोड़ी कम भयंकर होती, तो इसे एक काफी उचित कदम के रूप में देखा जा सकता था। जहां तक सापेक्ष खतरे के सिध्दांत की बात है, विकास दर में पहले से ही कमी की संभावना जताई जा रही है और यह पूरी तरह से ब्याज दर के चक्र से जुड़ा हुआ है। दूसरी तरफ, इस विकल्प को अमल में लाए जाने से घरेलू कीमतों पर भी दवाब बढ़ेगा।
गौरतलब है कि पहले से ही ग्लोबल कीमतों का असर महंगाई पर दिख रहा है। सफलता की संभावना सिध्दांत के तहत अगर इसे देखा जाए तो इस कदम का असर विकास दर पर पड़ने से पहले महंगाई की दर तेज होने के रूप में होगा।
इन विश्लेषणों के मद्देनजर धन के प्रवाह पर अंकुश लगाने और इसे बढ़ाने जैसे उपाय अगर महंगाई और विकास दर संबंधी मामले दुरुस्त करने में कारगर साबित नहीं हो रहे हों, तो हमारे पास एक ही विकल्प बचता है और वह यथास्थिति को कायम रखना। खासकर फिलहाल के लिए। हालांकि, यह मामले का संतोषजनक हल नहीं है।महत्वपूर्ण सवाल यह है कि महंगाई की दर संक्रमण काल से गुजर रही है या यह अभी लंबे समय तक कायम रहेगा?
जहां तक खनिज और इसे जुड़ी दूसरी चीजों का सवाल है, यह वैश्विक परिस्थितियों के आधार पर ही इसकी कीमतें तय की जा सकेंगी। हालांकि कच्चे तेल और खाद्य पदार्थों की कीमतें संक्रमण काल के दौर से गुजर रही है। यहां अहम बात यह है कि अगर इन समस्याओं के दीर्घकालिक मायने हैं, तो छोटी अवधि को ध्यान में रखकर बनाई जाने वाली नीति (मौद्रिक नीति) से इन समस्याओं से कैसे निपटा जा सकता है?
यह सवाल हमें तीसरे और सबसे अहम सिध्दांत ‘सटीकता’ की तरफ ले जाता है। इसके तहत सबसे पहले समस्या की वजह को समझने की जरूरत है। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित करने की जरूरत है कि नीतियां बनाते समय इस समस्याओं को ध्यान में रखा जाए। दुर्भाग्य की बात यह है कि दुनिया भर में मौजूद खाद्य समस्या का हल ब्याज दरों और कैश रिजर्व में फेरबदल से परे है।