बिहार में सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने विधानसभा चुनावों के लिए शुक्रवार को जो घोषणापत्र जारी किया, उसमें राज्य की जनता से कई वादे किए गए हैं। लेकिन एक वादा सबसे अलग नजर आया और आना ही था। वह वादा है कि अगर राजग फिर से सत्ता में आता है तो एक करोड़ से ज्यादा नौकरियां दी जाएंगी।
एक तरह से यह अपनी नाकामी कबूलना है, जो काफी खतरनाक बात है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के 2020 के घोषणापत्र से इसकी तुलना करें तो उस समय सरकार बनने पर 19 लाख नौकरियां देने का वादा किया गया था। यह आंकड़ा बढ़कर पांच गुना हो जाने की वजह क्या हो सकती है? हड़बड़ी या चिंता?
मगर इन वजहों पर यकीन करना मुश्किल है क्योंकि सभी रिपोर्ट यही कह रही हैं कि राजग को अपनी जीत का पूरा भरोसा है। तो क्या यह वादा मतदाताओं की उस भूख और हताशा का नतीजा है जो 2020 की तुलना में कम से कम पांच गुना ज्यादा है? इनमें से कोई भी सवाल भाजपा और उसके गठबंधन के लिए सहज नहीं है।
पार्टी के नेता और 2020 में राज्य के प्रभारी संजय जायसवाल ने स्पष्ट कर दिया था कि उन 19 लाख नौकरियों में से केवल 6 लाख सरकारी होंगी और बाकी निजी क्षेत्र में अच्छे वेतन वाली नौकरी होंगी। तो क्या पार्टियों को भरोसा है कि मतदाता उनके वादों का हिसाब कभी नहीं मांगेंगे? यह तो वाकई साफ नहीं है कि बिहार के सत्तारूढ़ गठवंधन में भाजपा के शामिल होने के बाद से 19 लाख नौकरियों का सृजन हुआ है या नहीं और 6 लाख सरकारी नौकरियां भी मिली हैं या नहीं।
राजग ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि इस बार के वादे में से कितनी नौकरियां सरकारी होंगी। कई युवा मतदाताओं को सरकारी नौकरियां ही सबसे ज्यादा आकर्षित करती हैं। तेजस्वी यादव यह समझते हैं, इसीलिए उन्होंने हर परिवार को एक सरकारी नौकरी देने का वादा कर दिया है। राजनीतिक प्रशिक्षक से राजनेता बने प्रशांत किशोर ने एकदम सही कहा है कि यह बिल्कुल खोखला वादा है।
बदले में प्रशांत ने वादा किया है कि सरकार स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा देगी, जिनसे युवाओं को रोजी-रोटी मिलेगी और उन्हें राज्य छोड़कर जाना नहीं पड़ेगा। दरअसल पलायन और रोजगार के बीच के इस जोड़ ने समस्या को और भी जटिल बना दिया है। प्रशांत को इसने इतना उलझा दिया है कि वह भी इस तरह का वादा करने पर मजबूर हो गए. जिस तरह के वादों की वह आलोचना करते रहते हैं।
देश के भीतर एक जगह से दूसरी जगह प्रवास राजनीतिक तौर पर इतना पेचीदा सवाल बन गया है, जितना पिछले कुछ समय में नहीं देखा गया। बिहार से अक्सर वे अकुशल और कुशल प्रवासी आते हैं, जिनकी जरूरत अधिक मजबूत अर्थव्यवस्था वाले राज्यों को होती है। सुचारु अर्थव्यवस्था में ऐसा ही होना चाहिए कि जिन सुदूर या अंदरूनी इलाकों में उत्पादन ज्यादा कारगर तरीके से हो वहां से श्रमिकों को अधिक आमदनी की तलाश में दूसरी जगहों पर जाना ही चाहिए। इसमें शर्म की बात नहीं है। विकास ऐसे ही होता है।
किंतु जिन राज्यों में हमेशा से बिहार और हिंदी पट्टी के दूसरे इलाकों से प्रवासी आते रहते थे, वहां पिछले एक दशक से और खास तौर पर महामारी के बाद उनका पहले की तरह खुले दिल से स्वागत नहीं होता। भारतीय राजनीति में ऐसी क्षेत्रीय पार्टियां बढ़ती जा रही हैं, जो स्थानीय लोगों को नौकरी में तरजीह देना चाहती हैं या उनके लिए कोटा तय करने की भी बात करती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में एक चुनाव सभा में यही बात कही और इसके लिए पंजाब, तमिलनाडु तथा अन्य विपक्ष शासित राज्यों की आलोचना भी की।
लेकिन कुछ समस्या भीतर भी है। उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों के राजनेताओं ने दूसरे राज्यों में पलायन को नकारात्मकर बताना शुरू कर दिया है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने कथित तौर पर यहां तक कहा कि लखनऊ में 2023 में होने वाले वैश्विक निवेशक सम्मेलन से इतना रोजगार आएगा कि राज्य से किसी को भी नौकरी की तलाश में पलायन नहीं करना पड़ेगा।
लेकिन बिहार और उत्तर प्रदेश में निजी निवेश लाने के केंद्र सरकार के प्रयास सफल नहीं रहे हैं। कम से कम उस पैमाने पर तो नहीं जो इन राज्यों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए जरूरी है। कोई निजी कंपनी गुजरात, महाराष्ट्र या तमिलनाडु के बजाय उत्तर प्रदेश को चुने, इसके लिए पहले बहुत कुछ करना होगा: बेहतर अदालतें और प्रशासन, तटों तक बेहतर परिवहन संपर्क, भरोसेमंद और सस्ती बिजली, कम राजनीतिक जोखिम और ज्यादा आज्ञाकारी कार्यबल।
‘एक करोड़ रोजगार’ घोषणापत्र का मुख्य निहितार्थ यह है कि बिहार में ऐसा हो नहीं पाया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अपने राज्य के प्रति समर्पण पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। लेकिन लगता है कि सत्तारूढ़ गठबंधन ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया है कि भविष्य में चाहे कुछ भी हो, उन्होंने अतीत में उतना अच्छा प्रदर्शन नहीं किया जितना मतदाताओं से वादा किया गया था।