इलस्ट्रेशन- अजय मोहंती
श्रम कानूनों में कोई भी संशोधन प्रायः बहस का कारण बन जाता है। हाल में कुछ राज्यों द्वारा एक दिन में 12 घंटे की श्रम अवधि के प्रावधान को अनुमति देने की पहल पर भी बहस छिड़ना तय है। फरवरी में कर्नाटक ने अपने श्रम विधानों में कुछ बदलाव किए थे। इन बदलावों के तहत एक दिन में 12 घंटे काम, तीन महीनों में निर्धारित समय के बाद भी काम (ओवरटाइम) के घंटे 75 से बढ़ाकर 145 करना और महिलाओं को रात्रि में काम करने की अनुमति देना शामिल थे। हालांकि, इन बदलावों के बाद भी एक सप्ताह में काम के कुल निर्धारित 48 घंटे की शर्त बरकरार रखी गई थी।
अप्रैल में तमिलनाडु ने भी ऐसे ही बदलाव किए थे मगर विपक्षी दलों और मजदूर संघों के तीखे विरोध के बाद राज्य सरकार को इन्हें वापस लेना पड़ा। ऐसी खबरें हैं कि उत्तर प्रदेश सहित दूसरे राज्य भी अपने श्रम कानूनों में इसी तरह के संशोधन करने की तैयारी कर रहे हैं।
ये खबरें इस ओर इशारा करती हैं कि 8-9 घंटे के बजाय एक दिन में 12 घंटे काम का प्रावधान कई वैश्विक अनुबंध विनिर्माता कंपनियों के अनुरोध पर किया गया है। पहले दिन में 9 घंटे काम करने की अनुमति थी।
श्रम कानूनों में संशोधनों के बीच यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि ये कदम उचित हैं या अनुचित? मगर इस प्रश्न पर विचार करते समय मुख्य रूप से दो विषयों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।
पहला विषय यह है कि क्या विधानों में संशोधन से उत्पादकता बढ़ती है या नहीं और यह अधिक निवेश लाने और इससे भी महत्त्वपूर्ण रोजगार के अवसर सृजित करने में सक्षम हैं या नहीं?
दूसरा विषय यह है कि क्या कानूनों में ऐसे बदलाव कहीं कार्य स्थल पर माहौल तो नहीं बिगाड़ देंगे या इनसे मजदूरों का शोषण तो नहीं बढ़ जाएगा?
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नीति निर्धारकों को इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि निवेशक या संयंत्र (फैक्टरी) मालिक के हितों और कामगारों के हितों में असंतुलन की स्थिति पैदा नहीं हो। मगर ऐसा सुनिश्चित कर पाना प्रायः मुश्किल होता है क्योंकि कभी-कभी निवेशक एवं कामगार दोनों के लक्ष्य एक दूसरे के विपरीत होते हैं।
आइए, एक दिन में 12 घंटे काम के प्रस्ताव पर दो संदर्भों-उत्पादकता एवं श्रम सुरक्षा- में विचार करते हैं और समझने की कोशिश करते हैं कि श्रम कानूनों में संशोधन कार्य संस्कृति एवं उत्पादकता को किस दिशा में ले जाते हैं। अनुबंध पर विनिर्माण करने वाली फॉक्सकॉन जैसी कई कंपनियां लंबे समय से कहती रही हैं कि 12 घंटे काम करने के प्रावधान से उत्पादकता बढ़ती है।
इन कंपनियों के अनुसार दुनिया के कई देशों में 12 घंटे काम का चलन है। इन कंपनियों का अभिप्राय यह है कि अन्य सभी बातें बराबर हों तो भी 12 घंटे काम के प्रावधान के बिना उत्पादकता नहीं बढ़ सकती और भारत में कोई संयंत्र चीन, ताइवान या कोरिया में स्थापित संयंत्रों से मुकाबला नहीं कर पाएगा।
मगर यह भी सच है कि अन्य कारक जैसे पूंजी लागत, माल ढुलाई, कर, कुल उत्पादन लागत और बड़े उपभोक्ता बाजारों से निकटता सभी देशों में एक समान नहीं है। कोई संयंत्र स्थापित करने में ये बातें काफी अहम होती हैं।
दूसरे देशों में अपने अनुभवों के आधार पर फॉक्सकॉन और दूसरी कंपनियों के पास 12 घंटे काम करने की सिफारिश करने की अपनी वजह हो सकती हैं।
श्रम उत्पादकता और काम के घंटे से जुड़े विषय इस पूरी बहस पर रोशनी नहीं डाल पाते हैं। पिछले कई दशकों के दौरान कई अध्ययनों से प्राप्त साक्ष्य मिले-जुले रहे हैं। कुछ शोधकर्ताओं और अध्ययनों के अनुसार काम के घंटे अधिक होने से उत्पादकता बढ़ती है क्योंकि कार्य स्थल पर कामगारों को पूरी क्षमता से काम करने की स्थिति में पहुंचने में थोड़ा समय लग जाता है।
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मगर दूसरे कई अध्ययनों के अनुसार काम के घंटे अधिक रहते हैं तो एक समय के बाद काम करते-करते कामगार थक जाते हैं। यह भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि कितने घंटे काम करने के बाद कामगार थकान महसूस करने लगते हैं। कोई भी अध्ययन किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में सफल नहीं रहा है।
नए अध्ययनों के अनुसार केवल एक तय अवधि तक काम पर डटे रहने की तुलना में दूसरे कई अन्य कारक कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। कार्य स्थल पर माहौल, कामगारों की खूबियां और नियमित कार्य अवधि उत्पादकता बढ़ाने में अधिक बड़ी भूमिका निभाते हैं न कि अधिक समय तक काम।
इन कारकों के अलावा उद्योग की प्रकृति, जलवायु परिवर्तन जैसे बाह्य कारकों पर भी विचार करना पड़ता है। दिल्ली में वाहन उद्योग के लिए जो बातें आदर्श हो सकती हैं वे मोबाइल फोन तैयार करने के लिए अनुकूल नहीं हो सकती हैं। हालांकि, विनिर्माण क्षेत्र की बड़ी कंपनियां यह सोचती हैं कि अगर सप्ताह में चार दिन दो पालियों में 12 घंटे तक काम छह दिनों में तीन पालियों में 8 घंटे के काम की तुलना में उत्पादकता बढ़ाने में असरदार है तो इस मामले में उनके अनुभव पर विश्वास किया जा सकता है।
महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि क्या ये बदलाव कामगारों के लिए उचित हैं और क्या इनसे उनका शोषण नहीं बढ़ेगा? उदाहरण के लिए यह तर्क देना कठिन होगा कि सप्ताह में 4 दिनों तक 12 घंटे काम सप्ताह में छह दिनों तक 8 घंटे काम की तुलना में अनुचित है। किसी भी मामले में कामगार एक सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम नहीं करेंगे। श्रमिकों के शोषण का मुद्दा तब उठेगा जब प्रत्येक सप्ताह काम करने के कुल घंटे बढ़ जाएंगे।
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इस लेखक की राय में श्रमिकों के हितों से जुड़े दूसरे पहलू (वेतन, भर्ती एवं नौकरी से निकालने से जुड़ी सुरक्षा एवं बीमा) और कार्यस्थल की स्थिति (सुरक्षा प्रावधान, पर्याप्त सुविधाएं एवं प्रशिक्षण आदि) आधिक जरूरी हैं।
कामगारों के हितों की रक्षा के लिए कई सारे उपायों की जरूरत हैं क्योंकि संयंत्र अब अनुबंध पर अधिक से अधिक कामगारों को रख रहे हैं। इन कर्मियों को कंपनी के नियमित कर्मचारियों की तुलना में कम सुविधाएं मिलती हैं। सरकार को इन चीजों को लेकर अधिक चिंतित होना चाहिए और इनका नियमन करने के साथ ही कड़ी निगरानी रखनी चाहिए।
अगर श्रम कानूनों में संशोधन से कामगारों के हितों को नुकसान पहुंचाए बिना निवेश आकर्षित करने और रोजगार के नए अवसर सृजित करने में मदद मिलती है तो यह सभी पक्षों के लिए लाभदायक स्थिति है।
(लेखक संपादकीय सलाहकार संस्था प्रोजेकव्यू के संस्थापक हैं)