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कार्बन कर व्यवस्था के बीच निर्यात

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अजय शाह, अक्षय जेटली
Last Updated- May 03, 2023 | 11:18 PM IST

नीति निर्माताओं को भारत को दुनिया भर में कार्बन कर की बढ़ती पहुंच के साथ जोड़ने में मदद करनी चाहिए। ​इस विषय में जानकारी प्रदान कर रहे हैं अजय शाह और अक्षय जेटली

यूरोपीय कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (सीबीएएम) के क्रियान्वयन की दिशा में ठोस कदम आगामी 1 अक्टूबर, 2023 से उठाए जाएंगे और इसे लेकर भारत में चिंता का माहौल है। यूरोप के कदमों की आलोचना करने वाले इसे संरक्षणवाद के रूप में देखते हैं। इससे भी महत्त्वपूर्ण है नीतिगत स्तर पर तथा कंपनियों के स्तर पर भारत की विस्तृत प्रतिक्रिया।

सन 2017 में जब तत्कालीन अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने अमेरिका को पेरिस समझौते से बाहर किया तो कई देशों ने अपने-अपने स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के प्रयासों को लेकर रुख बदला। यूरोप में नाटकीय कदम उठाए जा रहे हैं और सरकारें अकार्बनीकरण को बढ़ावा दे रही हैं। उदाहरण के लिए जर्मनी में प्रति व्य​क्ति सालाना कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन सन 1979 के 14.3 टन के उच्चतम स्तर से कम होकर 2021 में 8.1 टन रह गया।

अपने उच्चतम स्तर पर सन 1897 में जर्मनी ने दुनिया के कुल उत्सर्जन में 17 फीसदी का योगदान किया था जबकि 2021 में यह केवल 1.82 फीसदी रह गया। यूरोपीय संघ में कार्बनीकरण कम करने से वै​श्विक स्तर पर बेहतरी लाने में मदद मिली। उदाहरण के लिए इससे तटीय भारत में सामाजिक ​स्थिरता बढ़ाने में मदद मिली। यह सब यूरोपीय उद्योगों की कीमत पर हुआ। यूरोपीय संघ के मतदाता इस बात को लेकर सचेत हैं कि वे बेहतरी के लिए अ​धिक कीमत चुका रहे हैं, यानी उत्सर्जन कम करने के लिए।

अगर कार्बन आधारित उत्पादन को केवल यूरोपीय संघ से बाहर कर​ दिया जाता तो अकार्बनीकरण की वै​श्विक सार्वजनिक बेहतरी सामने नहीं आ सकेगी और यूरोप में रोजगार का नुकसान होगा। इस अवधारणा ने कार्बन बॉर्डर टैक्स के विचार को जन्म दिया। यानी यूरोपीय संघ में होने वाले आयात पर सीमा पर कर लगना चाहिए जो यूरोपीय संघ में कार्बन के बाजार मूल्य को परिल​क्षित करती हो। ऐसा करके किसी कंपनी के यूरोपीय संघ या बाहर स्थापित होने के निर्णय को निरपेक्ष किया जा सकेगा।

यह वैसा ही है जैसे अंतरराष्ट्रीय उत्पादन के मामले में जीएसटी पूरी तरह निरपेक्ष है। घरेलू जीएसटी का पूरा भार भारतीय निर्यातकों को रिफंड कर दिया जाता है और आयात पर लगने वाला जीएसटी प्राप्तकर्ता कंपनी पर लगता है। आयात पर लगने वाला जीएसटी संरक्षणवादी नहीं है।

यूरोपीय संघ में सीबीएएम की व्यवस्था 1 जनवरी, 2026 से चुनिंदा उद्योगों के लिए लागू हो जाएगी। भारतीय निर्यातकों के लिए जो दो उद्योग अभी मायने रखते हैं वे हैं इस्पात और एल्युमीनियम। सीबीएम की दिशा में पहला कदम यह है कि 1 अक्टूबर, 2023 से यूरोपीय संघ में इस्पात और एल्युमीनियम लाने वाली कंपनियों को कार्बन गहनता का आकलन पेश करना होगा और उससे संबं​धित वक्तव्य पेश करना होगा। देश में कुछ लोगों की भावना पैर पीछे खींचने की है या कहें वे भारत के कूटनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करके यूरोपीय संघ में सीबीएएम की वापसी चाहते हैं।

यह कमजोर रणनीति है। यूरोपीय संघ कार्बन कर पेश करने वाला पहला संघ है। कई अन्य देश उसका अनुसरण करेंगे। कार्बन कर वाले हर देश में सीबीएएम जैसा कर होगा ताकि कंपनियों के स्थान संबंधी निर्णय को ​निरपेक्ष बनाया जा सके। नीति निर्माताओं को यह समझने की आवश्यकता है और भारतीय अर्थव्यवस्था को उस हिसाब से तैयार करना आवश्यक है। भारत के लिए बड़ी परिसंप​त्ति है नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में मजबूत ​स्थिति।

यूरोपीय संघ के सीबीएएम दस्तावेजीकरण का संलग्नक तीन उत्पादन के दौरान होने वाले उत्सर्जन निगरानी के लिए जरूरी सूचना व्यवस्था के बारे में बताता है। इस क्षेत्र में जीएसटी व्यवस्था से स्वाभाविक मेल नजर आता है जहां उत्पादन के दौरान लगने वाले कर के मामले में भारतीय निर्यातकों को सभी स​न्निहित करों का रिफंड किया जाता है। भारत में हमें भी ऐसी सूचना प्रणाली विकसित करनी होंगी।

भारत के नीति निर्माताओं और कंपनियों को इन कदमों के बारे में 2021 में प्रस्ताव के स्तर से ही जानकारी है। हमारे यहां कई प्रस्ताव प्रक्रिया में हैं। उदाहरण के लिए इस्पात मंत्रालय ने ग्रीन स्टील पहल का संचालन किया। बिजली नीति ने खरीदारों के लिए लचीलापन बढ़ाया ताकि खरीदारों के लिए वि​शिष्ट नवीकरणीय बिजली खरीद प्रणाली स्थापित की जा सके। कई उद्योगों में भारतीय कंपनियों ने नवीकरणीय ऊर्जा का रुख किया है। इन कदमों ने भी वर्तमान ​स्थिति की बुनियाद तैयार करने में मदद मिली है।

कार्बन कराधान और ईएसजी निवेश के बाद कई भारतीय कंपनियां नवीकरणीय ऊर्जा चाहती हैं। स्वायत्तता तैयार करने का काम बिजली नीति का है: जहां एक इच्छुक खरीदार अपनी इच्छा से नवीकरणीय ऊर्जा पा सकता है। केंद्र सरकार का इंटरस्टेट ट्रांसमिशन सिस्टम (आईएसटीएस) इसमें मददगार है। यह निजी खरीदारों और नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादकों की दिक्कतें दूर करता है। आईएसटीएस हर जगह भौतिक रूप से मौजूद नहीं है लेकिन इसका निरंतर विस्तार हो रहा है।
यह बात आरंभ से स्पष्ट थी कि बिजली राज्य का विषय है और देश भर में स्थानीय हालात काफी अलग-अलग हैं।

किसानों को स​ब्सिडी हरियाणा में मसला है लेकिन​ दिल्ली में नहीं। निजी वितरण कंपनियां जो बिजली सुधारों के लिए हालात सुधारती हैं, उनकी उप​स्थिति असमान है। तकनीकी संभावनाओं में भी अंतर है। हिमालय में जल विद्युत, राजस्थान में सौर ऊर्जा, प​श्चिमी घाट में पंप से जल भंडारण और गुजरात तथा तमिलनाडु में पवन ऊर्जा की संभावनाएं हैं।

दुनिया भर में कार्बन कराधान एक अहम कारक है जो स्थानीय कारकों पर आधारित है। गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु के लिए निर्यात काफी अहम है। कार्बन बॉर्डर कर की उभरती दुनिया की बात करें तो इन राज्यों में अन्य स्थानों की तुलना में अहम प्रतिक्रिया की आवश्यकता है। इन राज्यों को अपने बिजली क्षेत्र को मजबूती देकर देश में अग्रणी बनना होगा।

साथ ही इन्हें अपने निर्यात क्षेत्र के लिए नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र का भी समुचित समर्थन करना होगा। दो रास्ते हमें देश के जरूरी अकार्बनीकरण की ओर ले जा सकते हैं: एक रास्ता केंद्रीय नियोजन पर आधारित है जहां अ​धिकारी बिजली व्यवस्था का डिजाइन तैयार करें और तकनीकी नियम कायम करें और दूसरा रास्ता है कार्बन कराधान का। कार्बन कर निजी हितों को आक​र्षित करता है और भारत में अकार्बनीकरण की न्यूनतम लागत वाला मार्ग है। भारत के लिए यह अच्छा अवसर है कि वह कार्बन कर के जरिये बिजली क्षेत्र में जरूरी सुधार लाए।

(शाह एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता और जेटली नीतिगत मामलों के सलाहकार हैं)

First Published : May 3, 2023 | 11:18 PM IST