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स्वदेशी की मियाद खत्म: भारतीय व्यवसायों को सफल होने के लिए प्रतिस्पर्धा करना सीखना होगा

स्वदेशी की अवधारणा अपने सभी लिहाज से औपनिवेशिक संघर्ष के अपनी मूल ऐतिहासिक जड़ों से बहुत दूर चली गई है। बता रही हैं कनिका दत्ता

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कनिका दत्ता   
Last Updated- October 22, 2025 | 10:35 PM IST

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वदेशी उत्पाद खरीदने के आह्वान के बाद ‘व्हाट्सऐप अंकल’ सक्रिय हो गए हैं। माफ कीजिए, शायद हमें उन्हें ‘अरटई अंकल’ कहना चाहिए जो एक स्वदेशी मेसेजिंग और कॉलिंग ऐप है जिसे वे व्हाट्सऐप समूहों के सदस्यों को इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। ऐसे ही एक समूह के कुछ सदस्यों की दिलचस्प प्रतिक्रिया साझा करने वाली है-

व्हाट्सऐप/अरटई अंकल (अचानक): ‘ सभी लोगों को नमस्ते, क्या हम इस समूह को व्हाट्सऐप से अरटई पर स्थानांतरित कर सकते हैं। धन्यवाद।’
उत्तरदाता 1: बढ़िया (एक बड़े थम्स अप इमोजी के साथ)
उत्तरदाता 2: इसके क्या फायदे हैं!
उत्तरदाता 1 अमेरिकी ब्रांडेड ऐप के भारतीय समकक्षों की एक लंबी सूची भेजता है। ज्यादातर वे क्रोम, जीमेल, एमएस वर्ड, पावरपॉइंट आदि के घरेलू समकक्ष हैं।
उत्तरदाता 2 दोहराता है: फायदे?
उत्तरदाता 1: स्वदेशी

उसके बाद सभी ने चुप्पी साध ली।

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। स्वदेशी की अवधारणा अपने सभी लिहाज से औपनिवेशिक संघर्ष के अपनी मूल ऐतिहासिक जड़ों से बहुत दूर चली गई है। आज यह राजनीति और प्रतिस्पर्द्धा-विमुख भारतीय व्यवसाय के क्षेत्र में तेजी से बहस का मुद्दा बना हुआ है। वर्ष 1991 में आर्थिक उदारीकरण के तुरंत बाद स्वदेशी की अवधारणा को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने आगे बढ़ाया था।

दूसरी तरफ, वाम दल किसी भी ऐसी नीति का विरोध करते थे जिससे सरकार का नियंत्रण कमजोर होता था। दोनों पक्षों ने उन व्यवसायों से योगदान एवं चंदा लिया जो वैश्वीकरण की बयार का सामना करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। वास्तव में, जब तक वाम दलों ने खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश का विरोध किया तब तक उन्हें खूब धन मिला मगर ऑनलाइन खुदरा दिग्गज कंपनियों के प्रवेश के बाद यह मुद्दा महत्त्वहीन हो गया।

लेकिन क्रय शक्ति रखने वाला मध्य वर्ग? उसे इन बातों की कोई परवाह नहीं थी। पहले कभी नजर नहीं आए विकल्पों और विविधता के संपर्क में आने के बाद भारतीय उपभोक्ता चाहे वह भगवा राजनीतिक विचारधारा का हो या किसी अन्य का वह सैमसंग, हिताची, सोनी, व्हर्लपूल, ह्युंडै, मर्सिडीज, बीएमडब्ल्यू, ब्लैक ऐंड डेकर खुशी-खुशी अपनाता रहा और ओनिडा, एम्बेसेडर, प्रीमियर पद्मिनी, वीडियोकॉन और यहां तक कि तथाकथित ‘भारतीय’ बहुराष्ट्रीय कंपनियों (यानी वे विदेशी समूह जो भारत में लंबे समय से काम कर रहे थे) के बारे में सब कुछ भूल गया।

जब मोबाइल फोन जैसे नए जमाने के कारोबार सामने आए तो कोई भी उपभोक्ता भारतीय मोबाइल फोन या भारतीय सेवा प्रदाताओं के बारे में पूछने के लिए जरी भी नहीं रुका। इसके बजाय वे नोकिया, ऐपल, सैमसंग या मोटोरोला के साथ जुड़ते चले गए। लावा और माइक्रोमैक्स जैसे कुछ भारतीय ब्रांडों ने कम लागत पर फोन तैयार कर साहसिक प्रयास जरूर किए मगर यह सिलसिला चीन के वीवो, ओपो और शाओमी के आगे ठहर गया। जब वर्ष2020 में लद्दाख में भारत और चीन के बीच टकराव हुआ तो कभी-कभार देशभक्ति के आवेश में कुछ लोगों ने चीन में बने टीवी जलाने का फैसला किया। सोशल मीडिया पर एक टिप्पणीकार ने व्यंग्य भरे लहजे में टिप्पणी की कि दुर्भाग्य से चीन के ब्रांडों को बदलने के लिए कोई भारतीय टीवी ब्रांड नहीं था।

अब पांच साल बाद चीन बर्फीले उत्तरी सीमा पर अग्रिम चौकियों से हट गया है लेकिन उसके वीवो, ओपो और शाओमी जैसे ब्रांड अब भी मोबाइल हैंडसेट बाजार पर अपनी पकड़ बनाए हुए हैं। एक असहज सच्चाई यह है कि चीन अभी भी भारत के शीर्ष दो व्यापारिक भागीदारों में एक है। चीन को होने वाला भारतीय निर्यात चीन से भारत को निर्यात का लगभग दसवां हिस्सा ही है।

भारतीय उपभोक्ता अकेले ऐसे नहीं हैं जो अनजाने में चीन के अन्य विदेशी उत्पादों का चयन कर रहे हैं। यहां तक कि जो व्यवसाय अपनी देशभक्ति को खुले तौर पर प्रदर्शित करते हैं वे भी चीन की मध्यवर्ती वस्तुओं एवं तैयार माल की एक श्रृंखला के असहाय खरीदार हैं, भले ही आधे-अधूरे मन से ही क्यों न हो। भारत अगर शुरू में ही वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला से जुड़ गया होता तो वह इन वस्तुओं उत्पादन कर रहा होता।

इसी तरह, घरेलू आईटी हार्डवेयर उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए डिजाइन की गई ‘आयात प्रबंधन प्रणाली’ की शुरुआत के बावजूद अभी तक कोई भारतीय ब्रांड नहीं उभरा है। घरेलू व्यवसाय की रक्षा करने की ओर लगातार नीतिगत झुकाव (जो मौजूदा सरकार के तहत ऊंची शुल्क दीवारों के रूप में चरम पर पहुंच गया है) ने वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा करने या वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनने की भारत की क्षमता को कमजोर कर दिया है।

इसका नतीजा यह हुआ है कि एक वैश्विक इलेक्ट्रॉनिक विनिर्माण केंद्र बनने की भारत की महत्त्वाकांक्षा, ‘दुनिया का दवाखाना’ कहलाने की तमन्ना और जलवायु परिवर्तन के कारण आवश्यक हुए विशुद्ध शून्य उत्सर्जन जैसे उद्देश्य सभी चीन के इलेक्ट्रॉनिक, एपीआई और सौर पैनल आदि मध्यवर्ती वस्तुओं पर निर्भर हैं। उदाहरण के लिए ऐपल आईफोन का लगभग 80 फीसदी हिस्सा जो भारत की उत्पादन संबंधित प्रोत्साहन योजना का केंद्र है, अभी भी आयात किया जाता है।

अमेरिका से व्यापार पर चल रही वार्ता के बीच नीति आयोग के मुख्य कार्याधिकारी बीवीआर सुब्रह्मण्यम को यह बताने की जरूरत महसूस हुई कि कच्चे माल पर आयात शुल्क कम करना और सामान्य तौर पर पूर्वी एशिया और विशेष रूप से चीन के साथ व्यापार संबंधों को मजबूत करना भारत के विनिर्माण निर्यात को बढ़ाने के लिए अहम है। उन्होंने कहा कि चीन 18 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। ये आज दुनिया की सबसे अधिक प्रतिस्पर्द्धी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हैं और पश्चिमी देशों से किए जा रहे विभिन्न व्यापार सौदों में प्रतिस्पर्द्धी हैं।

इस परिदृश्य में स्वदेशी में अंतर्निहित एक रक्षात्मक आर्थिक नीति, चाहे उसकी व्याख्या कुछ भी हो, अपनी मियाद से बहुत आगे निकल गई है। व्यावहारिकता का तकाजा है कि भारतीय व्यवसायों को, चाहे वे कितने भी बड़े या ऐतिहासिक क्यों न हों, प्रतिस्पर्द्धा करने के लिए तैयार करना होगा नहीं तो वे पीछे छूट जाएंगे। भारतीय उपभोक्ता लगभग 30 वर्षों से यह संदेश दे रहे हैं।

First Published : October 22, 2025 | 9:15 PM IST